Class 10th Up Board Sanskrit Chapter 3 Veera Veeren Pujyate वीर: वीरेण पूज्यते का हिंदी अनुवाद

Class 10th  Sanskrit Chapter 3 Veera Veeren Pujyate

Class 10th Up Board Sanskrit Chapter 3 Veera Veeren Pujyate वीर: वीरेण पूज्यते का हिंदी अनुवाद: संस्कृत हिंदी पाठ्य-पुस्तक Class 10th  Anivarya Sanskrit  के प्रथम पाठ Chapter 3 Veera Veeren Pujyate वीर: वीरेण पूज्यते   के Chapter 3  के आधार पर पाठ 3  का संस्कृत से हिंदी में अनुवाद सरल भाषा में दिए जा रहे है , यूपी बोर्ड की कक्षा 10 के पाठयक्रम के आधार पर सम्पूर्ण पाठ का अनुवाद दिया जा रहा है तथा  विगत वर्षों में आये हुए प्रश्नों का बेहतरीन संकलन है और  सभी विद्यार्थी Sanskrit Chapter Varanasi  का लाभ उठायें|Class 10th Up Board Sanskrit Chapter 3  Veera Veeren Pujyate वीर: वीरेण पूज्यते का हिंदी अनुवाद

आवश्यक बात – इस पाठ का अनुवाद हर वाक्य अलग कर के किया गया है |यदि कोई समस्या हो तो नीचे  दिए गए लिंक पर क्लिक कर के वीडियो के माध्यम से समझें|

 Book Name / पाठ्य पुस्तक का नामScert
Class / कक्षाClass 10th / कक्षा -10
Subject / विषयHindi /हिंदी
Chapter Number /  पाठ संख्याChapter 3 पाठ -3
Name of Chapter / पाठ का नामVeera Veeren Pujyate /वीर:वीरेण पूज्यते 
Board Name /  बोर्ड का नामयूपी बोर्ड 10th हिंदी/up board 10th Hindi
 Book Name / पाठ्य पुस्तक का नामNon NCERT / एन सी आर टी
Class / कक्षा

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Class 10th / कक्षा -10

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       Up  board non NCERT textbook for Class 10 Hindi explanations

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य – पुस्तक ‘ संस्कृत परिचायिका ‘ के ‘ वाराणसी ‘ नामक पाठ से लिया गया है । इसमें वाराणसी नगर की शोभा का वर्णन किया गया है ।

वीर: वीरेण पूज्यते का हिंदी अनुवाद- ( वीर के द्वारा वीर की पूजा की जाती है )

सन्दर्भ – प्रस्तुत नाट्य – खण्ड हमारी पाठ्य – पुस्तक ‘ संस्कृत परिचायिका ‘ के ‘ वीरः वीरेण पूज्यते ‘ नामक पाठ से लिया गया है ।

  • ( स्थानम् – अलक्षेन्द्रस्य सैन्य शिविरम् ।

( स्थान – सिकन्दर का सैनिक शिविर ) ।

  • अलक्षेन्द्रः आम्भीकः च आसीनो वर्तते ।

सिकन्दर और आम्भीक बैठे हैं ।

  • वन्दिनं पुरुराजम् अग्रेकृत्वा एकतः प्रविशति यवन – सेनापतिः ।

बन्दी पुरुराज को आगे करके एक ओर से यवन सेनापति प्रवेश करता है । )

  • सेनापतिः : विजयतां सम्राट् ।

सेनापति – सम्राट् की जय हो !

  • पुरुराजः : एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते ।

पुरुराज – यह भारतवीर भी यवनराज का अभिवादन करता है ।

  • अलक्षेन्द्रः : ( साक्षेपम् ) अहो ! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज ?

सिकन्दर –(आक्षेप सहित) अरे ! पुरुराज ! बन्धन में पड़े हुए भी अपने को वीर मानते हो ?

  • पुरुराजः : यवनराज ! सिंहस्तु सिंह एव , वने वा भवतु पञ्जरे वा ।

पुरुराज हे यवनराज ! सिंह तो सिंह ही है , वन में हो अथवा पिंजरे में ।

  • अलक्षेन्द्रः : किन्तु पञ्जरस्थः सिंहः न किमपि पराक्रमते ।

सिकन्दर – किन्तु पिंजरे में पड़ा हुआ सिंह कुछ भी पराक्रम नहीं करता है ।

  • पुरुराजः : पराक्रमते , यदि अवसरं लभते । अपि च यवनराज !

पुरुराज – पराक्रम करता है , यदि अवसर मिलता है । और हे यवनराज !

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  • बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः ।

“ बन्धन हो अथवा मृत्यु , जय हो अथवा पराजय ; ”

  • उभयत्र समो वीरः वीर भावो हि वीरता ।।

वीर पुरुष दोनों स्थितियों में समान रहता है । वीर – भाव को ही ‘ वीरता ‘ कहते हैं ।

  • अम्भिराजः सम्राट ! वाचाल एष हन्तव्यः ।

आम्भिराज – सम्राट् ! यह वाचाल मार डालने के योग्य है ।

  • सेनापतिः : आदिशतु सम्राट् ।

सिकन्दर –सेनापति – सम्राट् आज्ञा दें ।

  • अलक्षेन्द्रः : अथ मम मैत्रीसन्धे अस्वीकरणे तव किम् अभिमतम् आसीत् पुरुराज !

सिकन्दर – हे पुरुराज ! मेरी मैत्री – सन्धि के अस्वीकार करने में तुम्हारी क्या इच्छा थी ?

  • पुरुराजः : स्वराज्यस्य रक्षा , राष्ट्रद्रोहाच्च मुक्तिः ।

पुरुराज – अपने राज्य की रक्षा और राष्ट्रद्रोह से मुक्ति ।

  • अलक्षेन्द्रः : मैत्रीकरणेऽपि गष्ट्रद्रोहः ?

सिकन्दर – मित्रता करने में भी राष्ट्रद्रोह ?

  • पुरुराजः : आम् गष्ट्रद्रोहः यवनराज !

पुरुराज – हाँ । राष्ट्रद्रोह । यवनराज !

  • एकम् इदं भारतं राष्ट्रम् , बहूनि चात्र राज्यान् , बहवश्च शासकाः ।

यह भारत राष्ट्र एक है , यहाँ बहुत – से राज्य हैं और बहुत – से शासक हैं ।

  • त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि ।

तुम मैत्री – सन्धि से उन्हें विभाजित करके भारत को जीतना चाहते हो

  • आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम् ।

और आम्भीक इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है ।

  • अलक्षेन्द्रः : भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम् ।

सिकन्दर – भारत एक राष्ट्र है , तुम्हारा यह कथन गलत है ।

  • इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं द्रुह्यन्ति ।

यहाँ राजा और प्रजा परस्पर द्वेष करते हैं

  • पुरुराजः : तत् सर्वम् अस्माकम् आन्तरिकः विषयः ।

पुरुराज – वह सब हमारा आन्तरिक मामला है ।

  • बाह्यशक्तेः तत्र हस्तक्षेपः असह्यः यवनगज !

हे यवनराज ! उसमें बाह्य शक्ति का हस्तक्षेप सहन किए जाने योग्य नहीं है ।

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  • पृथग्धर्माः , पृथग्भाषाभूषा अपि वयं सर्वे भारतीयाः । ।

पृथक् धर्म , पृथक् भाषा , पृथक् वेशभूषा होने पर भी हम सब भारतीय हैं ।

  • विशालम् अस्माकं राष्ट्रम् ।

हमारा राष्ट्र विशाल है

  • तथाहि –

कहा गया है –

  • उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।

जो समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित है

  • वर्षं तद् भारतं नाम भारती तत्र सन्ततिः ।।

क्योंकि, वह भारत नाम का देश है , जहाँ की सन्तान भारतीय है ।

  • अलक्षेन्द्रः : अथ मे भारतविजयः दुष्करः ।

सिकन्दर – तो फिर मेरी भारत – विजय कठिन है ।

  • पुरुराजः : न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि ।

पुरुराज – न केवल कठिन है , असम्भव भी है ।

  • अलक्षेन्द्रः : ( सरोषम् ) दुर्विनीत , किं न जानासि ,

सिकन्दर – रोषपूर्वक ) हे दुष्ट | क्या तुम नहीं जानते हो

  • इदानीं विश्वविजयिनः अलक्षेन्द्रस्य अग्रे वर्तसे ?

इस समय ( तुम ) विश्व – विजेता सिकन्दर के सामने हो ?

  • पुरुराजः : जानामि , किन्तु सत्यं तु सत्यम् एव यवनराज !

पुरुराज:- जानता हूँ ; किन्तु यवनराज सत्य तो सत्य ही है ।

  • भारतीयाः वयं गीतायाः सन्देशं न विस्मरामः ।

पुरुराज – हम भारतीय गीता के सन्देश को नहीं भूले हैं ।

  • अलक्षेन्द्रः : कस्तावत् गीतायाः सन्देशः ?

सिकन्दर – गीता का सन्देश क्या है ?

  • पुरुराजः : -श्रूयताम् ।

पुरुराज:- सुनिए

  • हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं

मर गए तो स्वर्ग प्राप्त करोगे

  • जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।

अथवा जीत गए तो पृथ्वी का भोग करोगे ।

  • तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय

इसलिए  हे अर्जुन !

  • युद्धाय कृतनिश्चयः ॥

(इच्छारहित , मोहरहित और सन्तापरहित) होकर युद्ध करो ।

  • अलक्षेन्द्रः : ( किमपि विचिन्त्य ) अलं तव गीतया ।

सिकन्दर –( कुछ सोचकर) , अपनी गीता को रहने दो ।

  • पुरुराज ! त्वम् अस्माकं बन्दी वर्तसे ।
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पुरुराज, तुम हमारे बन्दी हो ।

  • ब्रूहि कथं त्वयि वर्तितव्यम् ।

बोलो , तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए ?

  • पुरुराजः : यथैकेन वीरेण वीरं प्रति ।

पुरुराज जैसा एक वीर , ( दूसरे ) वीर के प्रति करता है ।

  • अलक्षेन्द्रः : ( पुरोः वीरभावेन हर्षितः )

सिकन्दर- ( पुरु के वीर – भाव से प्रसन्न होकर )

  • साधु वीर ! साधु ! नूनं वीर असि ।

वीर ! ठीक है ! तुम निश्चय ही वीर हो ।

  • धन्यः त्वं , धन्या ते मातृभूमिः ।

तुम धन्य हो , तुम्हारी मातृभूमि धन्य है ।

  • ( सेनापतिम् उद्दिश्य ) सेनापते !

( सेनापति को लक्ष्य करके ) सेनापति !

  • सेनापतिः : सम्राट !

सेनापति – सम्राट् !

  • अलक्षेन्द्रः :: वीरस्य पुरुराजस्य बन्धनानि मोचय ।

सिकन्दर – वीर पुरुराज के बन्धन खोल दो

  • सेनापतिः : यत् सम्राट् आज्ञापयति ।

सेनापति – सम्राट की जो आज्ञा ।

  • अलक्षेन्द्रः : ( एकेन हस्तेन पुरोः द्वितीयेन च आम्भीकस्य हस्तं गृहीत्वा )

सिकन्दर- ( एक हाथ से पुरु के और दूसरे हाथ से आम्भीक के हाथ को पकड़कर )

  • वीर पुरुराज ! सखे आम्भीक ! इतः परं वयं सर्वे समानमित्राणि ,

वीर पुरुराज ! मित्र आम्भीक ! अब से हम सब समान मित्र हैं ।

  • इदानीं मैत्रीमहोत्सवं सम्पादयामः ।

अब हम मैत्री – महोत्सव मनाते हैं ।

  • ( सर्वे निर्गच्छन्ति )

( सब निकल जाते हैं ।) 

 

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