Surdas ke pad vyakhya UP Board Hindi Kavya Class 10th

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Surdas ke pad vyakhya UP Board Hindi Kavya Class 10th- UP Board Class 10 Hindi Chapter 1 सूरदास (काव्य-खण्ड). Up Board Hindi Kavyakhand Chapter 1 – सूरदास के पद व्याख्या काव्यगत सौंदर्य के साथ – Surdas ke pad vyakhya UP Board Hindi Kavya Class 10th Up Board 10th Syllabus-

Surdas ke pad vyakhya UP Board Hindi Kavya Class 10th

पद्यांश

Surdas ke pad vyakhya UP Board Hindi Kavya Class 10th

अबिगत – गति कछु कहत न आवै ।
ज्यौं गूंगै मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै ।
मन बानी कौं अगम अगोचर , सो जानै जो पावै ।।
रूप-रेख-गुन जाति -जुगति – बिनु निरालंब कित धावै ।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातै सूर सगुन – पद गावै ।।

शब्दार्थ –
अबिगत – अज्ञात और निराकार ; गति – स्थिति , दशा ; अंतरगत – हृदय में ; परम स्वाद – अलौकिक आनन्द ; अमित – अत्यधिक ; तोष – सन्तोष ; अगम- जहाँ पहुँचना कठिन हो ; अगोचर – इन्द्रियों की गति से परे ; निरालंब – बिना किसी आधार के धावै – दौड़े ; तातै इसलिए ; सगुन – सगुण ब्रह्म ।

प्रसंग:-

प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने श्रीकृष्ण के कमल – रूपी सगुण रूप के प्रति अपनी भक्ति का निरूपण किया है ।
व्याख्या – सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण अथवा निराकार ब्रह्म की स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता । वह अवर्णनीय है , अनिर्वचनीय है । निर्गुण ब्रह्म की उपासना के आनन्द का वर्णन कोई व्यक्ति नहीं कर सकता । जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ही अनुभव करता है , वह उसका शाब्दिक वर्णन नहीं कर सकता । उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का केवल अनुभव किया जा सकता है , उसे मौखिक रूप से ( बोलकर ) प्रकट नहीं किया जा सकता । यद्यपि निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति से निरन्तर अत्यधिक आनन्द प्राप्त होता है और उपासक को उससे असीम सन्तोष भी प्राप्त होता है ।

मन और वाणी द्वारा उस ईश्वर तक पहुँचा नहीं जा सकता , जो इन्द्रियों से परे है , इसलिए उसे अगम एवं अगोचर कहा गया है । उसे जो प्राप्त कर लेता है , वही उसे जानता है । उस निर्गुण ईश्वर का न कोई रूप है न आकृति , न ही हमें उसके गुणों का ज्ञान है , जिससे हम उसे प्राप्त कर सकें । बिना किसी आधार के न जाने उसे कैसे पाया जा सकता है ? ऐसी स्थिति में भक्त का मन बिना किसी आधार के न जाने कहाँ – कहाँ भटकता रहेगा , क्योंकि निर्गुण ब्रह्म तक पहुँचना असम्भव है । इसी कारण सभी प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद का गान अधिक उचित समझा है ।

काव्य सौन्दर्य –
भाषा – साहित्यिक ब्रज, गुण – प्रसाद, रस- भक्ति और शान्त, छन्द- गीतात्मक , शब्द – शक्ति- लक्षणा, अलंकार- अनुप्रास अलंकार ‘ अगम – अगोचर ‘ और ‘ मन – बानी ‘ में क्रमशः ‘ अ ‘ , ‘ ग ‘ और ‘ न ‘ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
दृष्टान्त अलंकार ‘ ज्यों गूंगै मीठे फल ‘ में उदाहरण अर्थात् मीठे फल के माध्यम से मानव हृदय के भाव को प्रकट किया गया है,
इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है ।

पद्यांश

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन ,बिम्ब पकरिब धावत ।।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ , पुनि – पुनि तिहिं अवगाहत ।।
कनक – भूमि पर कर – पग छाया , यह उपमा इक राजति ।
करि – करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा , कमल बैठकी साजति ।।
बाल – दसा – सुख निरखि जसोदा , पुनि – पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि , सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ।।

शब्दार्थ :-
मनिमय – मणि से युक्त ; कनक – सोना ; बिम्ब – परछाई ; पकरिबैं पकड़ना ; किलकि – खिलखिलाना ; राजत – सुशोभित ; दतियाँ – छोटे – छोटे दाँत ; पुनि – पुनि – बार – बार ; अवगाहत – दिखलाना ; राजति – सजाना ; निरखि निहारना ; अँचरा – आँचल ; तर – नीचे ।

प्रसंग :-

प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने मणियुक्त आँगन में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन किया है ।
व्याख्या :- कवि सूरदास जी श्रीकृष्ण की बाल – मनोवृत्तियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बालक कृष्ण किलकारी मारते हुए घुटनों के बल चल रहे हैं । नन्द द्वारा बनाए मणियों से युक्त आँगन में श्रीकृष्ण अपनी परछाईं देख उसे पकड़ने के लिए दौड़ने लगते हैं । कभी तो अपनी परछाईं देखकर हँसने लगते हैं और कभी उसे पकड़ना चाहते हैं , जब श्रीकृष्ण किलकारी मारते हुए हँसते हैं|

तो उनके आगे के दो दाँत बार – बार दिखाई देने लगते हैं , जो अत्यन्त सुशोभित लग रहे हैं ।
श्रीकृष्ण के हाथ – पैरों की छाया उस पृथ्वी रूपी सोने के फर्श पर ऐसी प्रतीत हो रही है , मानो प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल का आसन सजा दिया हो अथवा प्रत्येक मणि पर उनके कमल जैसे हाथ – पैरों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर कमल के फूलों का आसन बिछ रहा हो ।

श्रीकृष्ण की बाल – लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी बहुत आनन्दित होती हैं और बाबा नन्द को बार – बार वहाँ बुलाती है । उसके पश्चात् माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालक श्रीकृष्ण को अपने आँचल से ढककर दूध पिलाने लगती हैं ।

काव्य सौन्दर्य :
बाल – क्रीड़ाओं का अत्यन्त मनोहारी चित्रण किया गया है ।
भाषा – शैली- मुक्तक , गुण- प्रसाद और माधुर्य
रस – वात्सल्य, गीतात्मक
शब्द – शक्ति – लक्षणा, अलंकार – अनुप्रास अलंकार ‘ किलकत कान्ह ‘ और ‘ प्रतिपद प्रतिमनि ‘ में क्रमशः ‘ क ‘ , ‘ प ‘ तथा ‘ त ‘ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ‘ पुनि – पुनि ‘ और ‘ करि – करि ‘ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है ।
उपमा अलंकार ‘ कनक – भूमि ‘ और ‘ कमल बैठकी ‘ अर्थात् स्वर्ण रूपी फर्श और कमल जैसा आसन में उपमेय – उपमान की समानता प्रकट की गई है , इसलिए उपमा अलंकार है ।

पद्यांश

मैं अपनी सब गाइ चरैहौं । प्रात होत बल कै संग जैहौं , तेरे कहै न रैहौं ।।
ग्वाल बाल गाइनि के भीतर , नैंकहुँ डर नहिं लागत । आजु न सोवौं नंद – दुहाई , रैनि रहौंगौ जागत ।।
और ग्वाल सब गाइ चरैहैं , मैं घर बैठो रैहौं ।
सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब , प्रात जान मैं दैहौं ।।

शब्दार्थ – गाइ – गाय ; चरैहौं – चराना ; प्रात – सुबह ; बल – बलराम ; जैहौं – जाना ; नैंकहुँ – तनिक भी ; दुहाइ – शपथ ; रैनि – रात ; दैहौं – दूंगी ।

प्रसंग:-
प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण के स्वाभाविक बालहठ का चित्रण किया है ,

व्याख्या:-

बालक कृष्ण अपनी माता यशोदा से हठ करते हुए कहते हैं कि हे माता ! मैं भी अपनी गायों को चराने वन जाऊँगा । प्रात : काल होते ही मैं भैया बलराम के साथ वन में जाऊँगा और तुम्हारे कहने पर भी घर में न रुकूँगा , क्योंकि वन में ग्वाल सखाओं के साथ रहते हुए मुझे तनिक भी डर नहीं लगता ।

आज मैं नन्द बाबा की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं रातभर नहीं सोऊंगा , जागता रहूँगा । हे माता ! अब ऐसा नहीं होगा कि सब ग्वाल बाल गाय चराने जाएँ और मैं घर में बैठा रहूँ । ये सुनकर माता यशोदा ने कृष्ण को विश्वास दिलाया हे पुत्र ! अब तुम सो जाओ , सुबह होने पर मैं तुम्हें गायें चराने के लिए अवश्य भेज दूंगी ।

पद्यांश

मैया हौं …………………ताहि रिंगाइ ॥

[ सिगरे = सम्पूर्ण । पिराइँ = दुखते हैं । पत्याहि = विश्वास हो । सौंह = सौगन्ध । रिसाइ पठवति = भेजती हूँ । रिंगाइ % घुमाकर । ]

प्रसंग – श्रीकृष्ण ने गायों को चराने की हठ की । माता ने उन्हें बालकों के साथ भेज दिया ; किन्तु वन में बालकों ने उन्हें परेशान किया । इस पद में श्रीकृष्ण ने माँ यशोदा से ग्वालों की शिकायत की है ।

व्याख्या – श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं गाय चराने नहीं जाऊँगा । सभी ग्वाले मुझसे गायों को घिरवाते हैं , जिससे मेरे पैर दुखने लगते हैं । हे माता ! यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो अपनी सौगन्ध दिलाकर बलराम भैया से पूछ लो । श्रीकृष्ण द्वारा ऐसा कहने पर माता यशोदा क्रोधित होकर ग्वालों को गाली देती हैं|

कहती हैं कि मैं अपने पुत्र को वन में इसलिए भेजती हूँ कि वह अपना मन बहलाकर आ जाए । मेरा श्रीकृष्ण अभी छोटा – सा बालक है । ये ग्वाले उसे घुमा – घुमाकर मार डालेंगे ।

काव्यगत सौन्दर्य- ( १ ) प्रस्तुत पद में बालक के स्वभाव का और माता के मनोविज्ञान का हृदयस्पर्शी वर्णन हुआ है । ( २ ) सरल और स्वाभाविक ब्रजभाषा का सौन्दर्य द्रष्टव्य है । ( ३ ) रसवात्सल्य । ( ४ ) गुण – माधुर्य । ( ५ ) अलंकार – अनुप्रास । ( ६ ) छन्द – गेय पद।

पद्यांश

 सखी री ………………..राग की डोरि ॥

[ चोरि = चुरा लें । तोरि = तोड़कर | छिन इक = क्षणभर । निसि – बासर = रात – दिन । छोरि = छोड़ते हैं । कर = हाथ । अधरनि = होठ । कटि = कमर । मोहिनी = जादू । भोरि = भुलावा । राग = प्रेम । ]

प्रसंग – प्रस्तुत पद में वंशी के प्रति गोपियों की ईर्ष्या का वर्णन हुआ है । व्याख्या – गोपियाँ परस्पर वार्तालापं करती हुई कहती हैं कि हे सखी ! इस मुरली को तो चुरा लेना चाहिए । इस मुरली ने अन्य सभी के प्रेम – सम्बन्धों को समाप्त करके श्रीकृष्ण को अपने अधिकार में कर लिया है । यह मुरली कृष्ण को इतनी प्यारी लगती है कि वे इसे रात – दिन अर्थात किसी भी समय अपने से अलग नहीं करते , यहाँ तक कि वे मुरली को क्षणभर के लिए भी घर अथवा बाहर नहीं छोड़ते हैं और इसे हर समय अपने साथ रखते हैं । वे इसे कभी हाथ में ले लेते हैं , कभी होठों पर रखते हैं और कभी अपने फेंटे में लगा लेते हैं । शायद इस मुरली ने श्रीकृष्ण पर जादू करके उनके एक – एक अंग को भुलावे में डाल रखा है । हे सखी ! इस वंशी ने श्रीकृष्ण का मन प्रेम की डोरी से बाँधा हुआ है ।

काव्यगत सौन्दर्य ( १ ) प्रस्तुत पद में महाकवि सूरदास ने गोपियों की ईर्ष्या का बड़ा सजीव और स्वाभाविक वर्णन किया है । ( २ ) गोपियों को ऐसा प्रतीत होता है मानो मुरली उनकी सौत हो , क्योंकि वह कृष्ण को उनसे ज्यादा प्रिय है । ( ३ ) भाषा – ब्रज । ( ४ ) रस – शृंगार । ( ५ ) गुण – माधुर्य । ( ६ ) अलंकार – श्लेष , पुनरुक्तिप्रकाश और अनुप्रास । ( ७ ) छन्द – गेय – पद ।

7. सँदेसौ देवकी सौं……………… करत सँकोच ।।

[ धाइ = धाय ; माँ के समान बच्चे का पालन करनेवाली स्त्री । टेव = आदत । ल ते = लाड़ले । तातो = गर्म । उर = हृदय । सोच = चिन्ता । अलक लडैतो = प्यारे – दुलारे ।

प्रसंग प्रस्तुत पद में स्नेह की साक्षात प्रतिमा यशोदा के दुःखी हृदय की पुकार व्यक्त हुई है । उनका पुत्र श्रीकृष्ण , देवकी के पास मथुरा चला गया है । यशोदा ने उद्धव के द्वारा देवकी को सन्देश भेजा है ।

व्याख्या – यशोदा उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम मेरा यह सन्देश देवकी से कहना । उनसे कहना कि मैं तो तुम्हारे पुत्र की धाय हूँ ; अतः मुझ पर कृपा करती रहना । यद्यपि आप श्रीकृष्ण की आदत जानती हैं , तथापि मैं भी कुछ कहना चाहती हूँ । सवेरा होते ही मेरे लाड़ले कृष्ण को माखन – रोटी अच्छी लगती हैं । उबटन , तेल और गर्म पानी को देखते ही श्रीकृष्ण भाग जाते थे । वे जो – कुछ माँगते , मैं वही देती थी । इस प्रकार वे धीरे – धीरे स्नान करते थे । यशोदा की मनःस्थिति का वर्णन करते हुए सूरदास कहते हैं कि यशोदा को रात – दिन यही चिन्ता सताती रहती है कि वहाँ मेरे लाड़ले श्रीकृष्ण संकोच करते होंगे ।

काव्यगत सौन्दर्य- ( १ ) यहाँ श्रीकृष्ण के प्रति माता यशोदा के वात्सल्य एवं चिन्ता की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति हुई है । ( २ ) यशोदा के मुँह से श्रीकृष्ण की बाल प्रकृति की सजीव भावात्मक अनुभूति स्पष्ट हुई है । ( ३ ) भाषा – ब्रज । ( ४ ) रसवात्सल्य । ( ५ ) गुण – माधुर्य । ( ६ ) अलंकार – अनुप्रास एवं पुनरुक्तिप्रकाश । ( ७ ) छन्द – गेय – पद ।

ऊधौ मन………….. जगदीस ॥ १२ ॥

[ हुतौ = था । अवराधै = आराधना । सिथिल = शक्तिहीन । केसव = श्रीकृष्ण । देही = शरीर । बरीस = वर्ष । जोग = योग ; संयोग । ]

प्रसंग – यह भ्रमरगीत प्रसंग का एक सरस अंश है । श्रीकृष्ण मथुरा चले गए हैं । उनके वियोग में गोपियाँ अत्यधिक व्याकुल हैं । उद्धव जी ; श्रीकृष्ण का सन्देश लेकर ब्रज में आए हैं । गोपियाँ उनसे अपने मन की व्यथा कहती हैं कि वे श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी अन्य की आराधना नहीं कर सकतीं ।

व्याख्या – गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे पास दस – बीस मन नहीं हैं । हमारे पास तो एक ही मन था , वह भी श्रीकृष्ण के साथ चला गया । अब हम किस मन से तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की आराधना करें ? श्रीकृष्ण के बिना हमारी इन्द्रियाँ उसी प्रकार शिथिल अर्थात शक्तिहीन और निर्बल हो गई हैं जैसे बिना सिरवाला , धड़ शिथिल और बेकार हो जाता है ।

श्रीकृष्ण के लौटने की आशा में ही हमारे शरीर में श्वास चल रही है और इसी आशा में हम करोड़ों वर्षों तकं जीवित रह सकती हैं । हे उद्धव ! आप तो परम सुन्दर श्रीकृष्ण के मित्र हो और सभी प्रकार के योग ( संयोग ; मिलन ) के स्वामी हो , अर्थात आप ही श्रीकृष्ण से हमारा मिलन करा सकते हैं । सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों ने उद्धव को स्पष्ट रूप से बता दिया कि नन्द जी के पुत्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त हमारा कोई और ईश्वर नहीं है , अर्थात श्रीकृष्ण ही हमारे एकमात्र आराध्य हैं ।

काव्यगत सौन्दर्य– ( १ ) यहाँ गोपियों के कृष्ण – प्रेम की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति करते हुए सूरदास ने सगुण भक्ति की श्रेष्ठता स्थापित की है । ( २ ) गोपियों की भक्ति – भावना में स्वाभाविक मानसिक उद्वेगों का चित्रण हुआ है ( ३ ) भाषा – ब्रज । ( ४ ) रस – वियोग शृंगार । ( ५ ) गुण – माधुर्य । ( ६ ) अलंकार – उपमा , श्लेष तथा अनुप्रास । ( ७ ) छन्दोय – पद । ।

9. ऊधों जाहु………………….. मुसकाने ।।

[ ह्याँ = यहाँ । पठयौ = भेजा है । लजाने = लज्जित होते हो । अयाने = अज्ञानी । सयाने = चतुर । मष्ट करौ = चुप रहो । सौं = सौगन्ध । निदाने = अन्त में । नैकहूँ = तनिक ।

प्रसंग -इस पद में गोपियों ने बड़ी तर्कपूर्ण पद्धति से उद्धव को पराजित किया है और उनसे परिहास भी किया है । व्याख्या – गोपियाँ कहती हैं हे उद्धव ! हम तुम्हें अच्छी प्रकार से जानती हैं , अधिक बातें न बनाओ । हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीकृष्ण ने तुम्हें यहाँ नहीं भेजा है , तुम तो बीच रास्ते में भटककर यहाँ आ गए हो । तुम ब्रज की नारियों ( ब्रजबालाओं ) से योग की बातें कर रहे हो । ऐसी बातें करते हुए तुम्हें लज्जा का अनुभव नहीं हो रहा है वैसे तो तुम बड़े ( सयाने ) आदमी हो , किन्तु तुम इतने अज्ञानी हो कि विवेक की बात ही नहीं करते ।

तुमने हमसे जो भी कुछ कहा है वह तो हमने सहन कर लिया ; किन्तु तुम अपने मन में अच्छी प्रकार विचार करके देखो कि कहाँ तो महिलाएँ और कहाँ योग की दिगम्बर ( वस्त्रहीन ) दशा , इसलिए अब तो यही अच्छा है कि तुम चुप रहो । गोपियाँ उद्धव से कहती हैं, कि हम अन्त में अपनी शपथ देकर आपसे पूछती हैं कि आप सच – सच बताइए कि जब श्रीकृष्ण ने आपको यहाँ भेजा था तो क्या वे थोड़ा – सा मुस्कराए भी थे ?

काव्यगत सौन्दर्य-  उनकी तर्कशीलता विशेष रूप से द्रष्टव्य है । ( ३ ) भाषा – ब्रज । ( ४ ) रस – वियोग श्रृंगार । ( ५ ) गुण – माधुर्य । ( ६ ) अलंकार – अनुप्रास । ( ७ ) छन्द – गेय – पद । मति नासी ॥ १५ ॥ ( १ ९९ ३ , ९ ७ , २०००,०२ ) [ सौंह = शपथ । साँच = = सत्य । हाँसी = हँसी करना । अभिलाषी = इच्छुक । गाँसी = छल ; कपट ।

10. निर्गुण कौन देस को………………गाँसी।।
प्रसंग – ब्रज में पहुँचकर उद्धव गोपियों को निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देते हैं । गोपियाँ साकार ब्रह्म की उपासक हैं । वे उनकी बात को गम्भीरता से नहीं सुनतीं और उद्धव द्वारा बताए गए निर्गुण ब्रह्म का उपहास भ्रमर के माध्यम से करती हैं ।

व्याख्या – गोपियाँ कहती हैं — हे भ्रमर ! निर्गुण ब्रह्म किस देश का निवासी है ? हम शपथ देकर सच – सच पूछ रही हैं , हँसी नहीं करतीं । हमें यह बात पूरी तरह समझाकर बताओ । उसका पिता कौन है , माता कौन है , स्त्री और दासी कौन है ? उसका रंग और वेश कैसा है ? उसे किस रंग से अधिक लगाव है ?

यदि तुम कपट करोगे तो उसका फल स्वयं पाओगे । सूरदास कहते हैं कि गोपियों के ऐसे तर्कपूर्ण प्रश्न सुनकर उद्धव किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए और उनका विवेक समाप्त हो गया ।

काव्यगत सौन्दर्य-  गोपियाँ यहाँ भ्रमर के माध्यम से उद्धव से व्यंग्यात्मक परिहास करती हैं , जिसमें कल्पना- -शक्ति की उत्कृष्टता विद्यमान है । ( ३ ) भाषा – चज । ( ४ ) रस – वियोग शृंगार । ( ५ ) गुण – माधुर्य । ( ६ ) अलंकार – वक्रोक्ति , अन्योक्ति तथा मानवीकरण । ( ७ ) छन्द – गेय – पद ।

11. ऊधौ मोहि…………………. जदु – तात ॥

[ बिसरत = विस्मृत । सघन = गहन । सिरात = बीत जाना । जदु – तात = श्रीकृष्ण । ]

प्रसंग – गोपियों के मन में ज्ञान और योग की स्थापना करने में उद्धव असफल हो गए । इतना ही नहीं , वे स्वयं प्रेम और भक्ति के रंग में रंगकर मथुरा पहुँचे । उद्धव ने श्रीकृष्ण को ब्रज की सम्पूर्ण स्थिति समझाई और माता यशोदा का समाचार दिया । इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि हे उद्धव ! ब्रज की याद मुझसे भुलाई नहीं जाती ।

व्याख्या – श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव ! मैं अनेक प्रकार से ब्रज को भुलाने का प्रयास करता हूँ ; किन्तु भूल नहीं पाता । वृन्दावन और गोकुल के वन , उपवन तथा कुंजों की घनी छाँव भी मुझसे भुलाए नहीं भूलती । प्रात : काल यशोदा माता और नन्द जी मुझे देखकर अत्यधिक आनन्दित होते थे । माता यशोदा दही , मक्खन और रोटी को अत्यधिक प्रेम के साथ मुझे खिलाती थीं । हम गोपियों और ग्वालों के साथ विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ करते थे , हर दिन हँसते और सन्तोष पाते थे । सूरदास जी कहते हैं कि वे ब्रजवासी धन्य हैं , जिन्हें श्रीकृष्ण जैसे हितैषी और प्रेमी मिले हैं ।

काव्यगत सौन्दर्य-  स्मृति संचारी भाव की मार्मिक प्रस्तुति हुई है । ( ४ ) यहाँ प्रेमा – भक्ति का निरूपण हुआ है । ( ५ ) भाषा ब्रज । ( ६ ) रस वियोग श्रृंगार । ( ७ ) अलंकार – स्मरण , विरोधाभास तथा अनुप्रास । ( ८ ) छन्द – गेय – पद ।

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