UP Board Class 10 Dhanush Bhang(धनुष भंग) तुलसीदास

UP Board Class 10 Dhanush Bhang vyakhya (धनुष भंग) तुलसीदास

UP Board Class 10 Dhanush Bhang(धनुष भंग) तुलसीदास: Here – UP Board Class 10th Hindi Chapter- 2 तुलसीदास (काव्य-खण्ड) for UPBoard Exam Hindi Syllabus .

UP Board Class 10 Dhanush Bhang(धनुष भंग) तुलसीदास

 

 

यहाँ पर प्रस्तुत है – UP Board Class 10  Hindi. यहाँ पर UP Board  Class 10 हेतु  Hindi Chapter 2 तुलसीदास (काव्य-खण्ड) के धनुष भंग की व्याख्या प्रस्तुत की  जा रही है |

सन्दर्भ –

प्रस्तुत पद्य पंक्तियाँ तुलसीदास जी द्वारा रचित महाकाव्य रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड से अवतरित है| जो हमारी पाठ्य पुस्तक में  धनुष भंग नमक शीर्षक से संकलित हैं|

प्रसंग –

प्रस्तुत पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी …………….का वर्णन करते हुए कहते हैं-

काव्यगत सौन्दर्य – 

रस – श्रृंगार , वीर |  छंद – दोहा एवं चौपाई , अलंकार – रूपक ,उपमा ,अनुप्रास , मानवीकरण , उत्प्रेक्षा  | शब्द शक्ति – अभिधा , लक्षणा |  गुण – प्रसाद, माधुर्य, ओज| भाषा – साहित्यिक अवधी |

व्याख्या भाग  -1 

 

दो ० – उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग ।
         बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥
व्याख्या- गोस्वामी तुलसीदास जी धनुष भंग के दृश्य का  वर्णन करते हुए कहते हैं- मञ्चरूपी उदयाचल पर रामचंद्र जी  रूपी बालसूर्य के उदय होते ही सब संतरूपी कमल खिल उठे और नेत्ररूपी भौरे हर्षित हो गये ॥

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी । बचन नखत अवली न प्रकासी ॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने । कपटी भूप उलूक लुकाने ॥
व्याख्या- राजाओंकी आशारूपी रात्रि नष्ट हो गयी । उनके वचनरूपी तारोंके समूहका चमकना बंद हो गया अर्थात  वे मौन हो गये । अभिमानी राजारूपी कुमुद संकुचित हो गये और कपटी राजारूपी उल्लू छिप गये ॥

भए बिसोक कोक मुनि देवा । बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा । राम मुनिन्ह सन आयसु मागा ॥
व्याख्या- मुनि और देवतारूपी चकवे शोकरहित हो गये । वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं । प्रेमसहित गुरुके चरणोंकी वन्दना करके श्रीरामचन्द्रजीने मुनियोंसे आज्ञा माँगी ॥

सहजहिं चले सकल जग स्वामी । मत्त मंजु बर कुंजर गामी ॥
चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक पूरि तन भए सुखारी ॥

व्याख्या- समस्त जगत्के स्वामी श्रीरामजी सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ हाथीकी – सी चालसे स्वाभाविक ही चले । श्रीरामचन्द्रजीके चलते ही नगरभरके सब स्त्री – पुरुष सुखी हो गये और उनके शरीर रोमाञ्चसे भर गये ॥

बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे । जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं । तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं ।
व्याख्या- उन्होंने पितर और देवताओंकी वन्दना करके अपने पुण्योंका स्मरण किया । यदि हमारे पुण्योंका कुछ भी प्रभाव हो , तो हे गणेश गोसाईं ! रामचन्द्रजी शिवजीके धनुषको कमलकी डंडीकी भाँति तोड़ डालें

दो०- रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ ॥
व्याख्या- श्रीरामचन्द्रजी को  प्रेमके साथ देखकर और सखियोंको समीप बुलाकर सीताजीकी माता स्नेहवश विलाप करती हुई – सी ये वचन बोलीं- ॥

व्याख्या भाग  -2 

सखि सब कौतुकु देखनिहारे । जेउ कहावत हितू हमारे ॥

कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं ।ए बालक असि हठ भलि नाहीं ॥ 
व्याख्या- हे सखी ! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं , वे भी सब तमाशा देखनेवाले हैं । कोई भी गुरु विश्वामित्रजीको समझाकर नहीं कहता कि ये  बालक हैं , इनके लिये ऐसा हठ अच्छा नहीं ।

रावन बान छुआ नहिं चापा । हारे सकल भूप करि दापा ॥
सो धनु राजकुऔर कर देहीं । बाल मराल कि मंदर लेहीं ॥
व्याख्या- रावण और बाणासुरने जिस धनुषको छुआतक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गये , वही धनुष इस सुकुमार राजकुमारके हाथमें दे रहे हैं । हंसके बच्चे भी कहीं मन्दराचल पहाड़ उठा सकते हैं ?

भूप सयानप सकल सिरानी । सखि बिधिगति कछु जाति नजानी ॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी । तेजवंत लघु गनिअ न रानी ॥
व्याख्या-  राजा का भी सारा सयानापन (चतुरता ) समाप्त हो गया । हे सखी ! विधाताकी गति कुछ जाननेमें नहीं आती  । तब एक चतुर  सखी कोमल वाणीसे बोली – हे रानी ! तेजवान्को छोटा नहीं गिनना चाहिये ॥

कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा । सोघेउ सुजसु सकल संसारा ॥
रबि मंडल देखत लघु लागा । उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥
व्याख्या- कहाँ घड़ेसे उत्पन्न होनेवाले  मुनि अगस्त्य और कहाँ अपार समुद्र ? किन्तु उन्होंने उसे सोख लिया , जिसका सुयश सारे संसारमें छाया हुआ है । सूर्यमण्डल देखनमें छोटा लगता है , पर उसके उदय होते ही तीनों लोकोंका अन्धकार भाग जाता है ।

दो ० – मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्व ।
          महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब ।।
व्याख्या- जिसके बशमें ब्रह्मा , विष्णु , शिव और सभी देवता वह मन्त्र अत्यन्त छोटा होता है । महान् मतवाले गजराजको छोटा – सा अंकुश व कर लेता है ।।

व्याख्या भाग  -3

 

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी । भंजब धनुषु राम सुनु रानी ॥
व्याख्या- कामदेव ने फूलों का ही धनुष – बाण लंकर समस्त लोकोंको अपने वश कर रखा है । हे देवी ! ऐसा जानकर सन्देह त्याग दीजिये । हे रानी ! सुनिये , रामचन्द्रजी धनुषको अवश्य ही तोड़ेंगे ॥

सखी वचन सुनि भै परतीती । मिटा विषादु बढ़ी अति प्रीती ॥
तब रामहि विलोकि बैदेही । सभय हृदय विनवति जेहि तेही ॥
व्याख्या- सखी के वचन सुनकर रानी को विश्वास हो गया । उनकी उदासी मिट गयी और श्रीराम के प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया । उस समय श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सीताजी भयभीत हृदयसे जिस – तिस  से विनती कर रही हैं ॥

मनहीं मन मनाव अकुलानी । होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥
करहु सफल आपनि सेवकाई । करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥
वे व्याकुल होकर मन – ही – मन मना रही हैं – हे महेश – भवानी ! मुझपर प्रसन्न होइये , मैंने आपकी यो सेवा की है , उसे सुफल कीजिये और मुझपर स्नेह करके धनुषके भारीपनको हर लीदिये ॥

गननायक बरदायक देवा । आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ॥
बार बार विनती सुनि मोरी । करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥
व्याख्या- गणों के नायक , वर देनेवाले देवता गणेशजी ! मैंने आजहीके लिये तुम्हारी सेवा की थी । बार – बार मेरी विनती सुनकर धनुषका भारीपन बहुत ही कम कर दीजिये ॥

दो०- देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर ।
       भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥

व्याख्या- श्रीरघुनाथीकी और देख – देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओंको मना रही हैं । उनके या प्रेमक आँसू भरे हैं और शरीरमें रोमाञ्च हो रहा है ॥

व्याख्या भाग  -4

 

नीकें निरखि नयन भरि सोभा । पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥
अहह तात दारूनि हठ ठानी । समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ।।

व्याख्या- जो अच्छी तरह नेत्र भरकर श्रीरामजीकी शोभा देखकर , फिर पिताके प्रणका स्मरण करके सीताजीका मन क्षुब्ध हो उठा । [ वे मन – ही – मन कहने लगीं- ] अहो ! पिताजीने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है , वे लाभ – हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं ॥

सचिव सभय सिख देइ न कोई । बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ॥
व्याख्या- मन्त्री डर रहे हैं ; इसलिये कोई उन्हें सीख भी नहीं देता , पण्डितोंकी सभामें यह बड़ा अनुचित हो रहा है । कहाँ तो वज्रसे भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ ये कोमलशरीर किशोर श्यामसुन्दर !

बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा । सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥
सकल सभा कै मति भै भोरी । अब मोहि संभुचाप गति तोरी ॥
व्याख्या- हे विधाता ! मैं हृदय में किस तरह धीरज धरूँ , सिरसके फूलके कणसे कहीं हीरा छेदा जाता है । सारी सभाकी बुद्धि भोली ( बावली ) हो गयी है , अतः हे शिवजीके धनुष ! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है ॥

निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी ॥
अति परिताप सीय मन माहीं । लव निमेष जुग सय सम जाहीं ॥
व्याख्या- तुम अपनी जड़ता लोगोंपर डालकर , श्रीरघुनाथजी को देखकर हलके हो जाओ । इस प्रकार सीताजीके मनमें बड़ा ही सन्ताप हो रहा है । निमेषका एक अंश  भी सौ युगोंके समान बीत रहा है ॥

व्याख्या भाग  -4-1 

दो०- प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल ।
        खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल ।।
व्याख्या- प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको देखकर फिर पृथ्वीकी ओर देखती हुई सीताजीके चञ्चल नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं , मानो चन्द्रमण्डलरूपी डोलमें कामदेवकी दो मछलियाँ खेल रही हों ॥

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी । प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥
लोचन जलु रह लोचन कोना । जैसें परम कृपन कर सोना ॥
व्याख्या- सीताजीकी वाणीरूपी भ्रमरीको उनके मुखरूपी कमलने रोक रखा है । लाजरूपी रात्रिको देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है । नेत्रोंका जल नेत्रोंके कोने  में ही रह जाता है । जैसे बड़े भारी कंजूसका सोना कोनेमें ही गड़ा रह जाता है ॥

सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी । धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ॥
तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥
व्याख्या- अपनी बढ़ी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गयीं और धीरज धरकर हृदयमें विश्वास ले आयीं कि यदि तन , मन और वचनसे मेरा प्रण सच्चा है और श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें मेरा चित्त वास्तवमें अनुरक्त है ॥

तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहि मोहि रघुबर कै दासी ॥
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥
व्याख्या- तो सबके हृदयमें निवास करनेवाले भगवान् मुझे रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीकी दासी अवश्य बनायेंगे । जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है , वह उसे मिलता ही है , इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना । कृपानिधान राम सबु जाना ॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें । चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें ॥
व्याख्या- प्रभुकी ओर देखकर सीताजीने शरीरके द्वारा प्रेम ठान लिया अर्थात् यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हींका होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं | कृपानिधान श्रीरामजी सब जान गये । उन्होंने सीताजीको देखकर धनुषकी ओर कैसे ताका , जैसे गरुड़जी छोटे – से साँपकी ओर देखते हैं ॥

दो०- लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु ।
       पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु ॥
व्याख्या- इधर जब लक्ष्मणजीने देखा कि रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजीने शिवजीके धनुषकी ओर ताका है , तो वे शरीरसे पुलकित हो ब्रह्माण्डको चरणोंसे दबाकर निम्नलिखित वचन बोले-

दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥
रामु चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥
व्याख्या- हे दिग्गजो ! हे कच्छप, शेष, वाराह ! धीरज धरकर पृथ्वीको थामे रहो , जिसमें यह हिलने न पावे । श्रीरामचन्द्रजी शिवजीके धनुषको तोड़ना चाहते हैं । मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ ॥

व्याख्या भाग  -5-1 

चाप समीप रामु जब आए । नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥
व्याख्या- श्रीरामचन्द्रजी जब धनुषके समीप आये , तब सब स्त्री – पुरुषोंने देवताओं और पुण्योंको मनाया । सबका सन्देह और अज्ञान , नीच राजाओंका अभिमान।

भृगुपति केरि गरब गरुआई । सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा । रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥
व्याख्या- परशुरामजीके गर्वकी गुरुता , देवता और श्रेष्ठ मुनियोंकी कातरता ( भय ) , सीताजीका सोच , जनकका पश्चात्ताप और रानियोंके दारुण दुःखका दावानल ,

संभुचाप बड़ बोहितु पाई । चढ़े जाइ सब संगु बनाई ।
राम बाहुबल सिंधु अपारू । चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू ॥
व्याख्या- ये सब शिवजीके धनुषरूपी बड़े जहाजको पाकर , समाज बनाकर उसपर जा चढ़े । ये श्रीरामचन्द्रजीको भुजाओंके बलरूपी अपार समुद्रके पार जाना चाहते हैं , परन्तु कोई केवट नहीं है ॥

दो०- राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि ।

         चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥

व्याख्या- श्रीरामजीने सब लोगोंकी ओर देखा और उन्हें चित्रमें लिखे हुए – से देखकर फिर कृपाधाम श्रीरामजीने सीताजीकी ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना।

व्याख्या भाग  -5

 

देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ॥
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा । मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥
व्याख्या- उन्होंने जानकीजीको बहुत ही विकल देखा । उनका एक – एक क्षण कल्पके समान बीत रहा था । यदि प्यासा आदमी पानीके बिना शरीर छोड़ दे , तो उसके मर जानेपर अमृतका तालाब भी क्या करेगा ? ॥

का बरषा सब कृषी सुखाने । समय चुकें पुनि का पछितानें ॥
अस जियँ जानि जानकी देखी । प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ।
व्याख्या- सारी खेतीके सूख जानेपर वर्षा किस कामकी ? समय बीत जानेपर फिर पछतानेसे क्या लाभ ? जीमें ऐसा समझकर श्रीरामजीने जानकीजीकी ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गये ॥

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा । अति लाघवं उठाइ धनु लीन्हा ॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लय । पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ॥
व्याख्या- मन – ही – मन उन्होंने गुरुको प्रणाम किया और बड़ी फुर्तीसे धनुषको उठा लिया । जब उसे [ हाथमें ] लिया , तब वह धनुष बिजलीकी तरह चमका और फिर आकाशमें मण्डल – जैसा ( मण्डलाकार ) हो गया ॥

लेत चढ़ावत बँचत गाढ़ें । काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा । भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥
व्याख्या- लेते , चढ़ाते और जोरसे खींचते हुए किसीने नहीं लखा अर्थात् ये तीनों काम इतनी फुर्तीसे हुए कि धनुषको कब उठाया , कब चढ़ाया और कब खींचा , इसका किसीको पता नहीं लगा, सबने श्रीराम जी को खड़े देखा । उसी क्षण श्रीरामजीने धनुषको बीचसे तोड़ डाला । भयङ्कर कठोर ध्वनिसे [ सब ] लोक भर गये ॥

छं ० – भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले ।
          चिक्करहिं दिग्गज डोल महिअहि कोल कूरुम कलमले ॥
          सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं ।
          कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं ॥
व्याख्या- घोर , कठोर शब्दसे सब लोक भर गये , सूर्यके घोड़े मार्ग छोड़कर चलने लगे । दिग्गज चिग्घाड़ने लगे , धरती डोलने लगी , शेष , वाराह और कच्छप कलमला उठे । देवता , राक्षस और मुनि कानोंपर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे । तुलसीदासजी कहते हैं , जब सबको निश्चय हो गया कि  श्रीरामजी ने धनुषको तोड़ डाला , तब सब ‘ श्रीरामचन्द्रजी की जय ‘ बोलने लगे ।

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तुलसीदास का जीवन परिचय (Biography of  Goswami Tulsidas)

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