UP Board Solution of Class 10 Sanskrit – Chapter- 7 संस्कृतभाषायाः गौरवम् (sanksrit Bhashaya gauravam) ‘संस्कृत गद्य भारती’
Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 10 संस्कृत – UP Board Solution of Class 10 Sanskrit Chapter -7 संस्कृतभाषायाः गौरवम् (sanksrit Bhashaya gauravam) गद्य – भारती in Hindi translation – हाईस्कूल परीक्षा हेतु उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम।
Subject / विषय | संस्कृत (Sanskrit) |
Class / कक्षा | 10th |
Chapter( Lesson) / पाठ | Chpter 7 |
Topic / टॉपिक | संस्कृतभाषायाः गौरवम् |
Chapter Name | sanksritbhashaya gauravam |
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रम | कम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन |
संस्कृतभाषा विश्वस्य सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा विपुलज्ञानविज्ञानसम्पन्ना सरला सुमधुरा हृद्या चेति सर्वैरपि प्राच्यपाश्चात्याविद्वद्भिरेकस्वरेणोररीक्रियते। भारतीयविद्याविशारदैस्तु ‘संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः’ इति संस्कृतभाषा हि गीर्वाणवाणीति नाम्ना सश्रद्धं समाम्नाता।
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य भारती’ के ‘संस्कृतभाषायाः गौरवम् नामक पाठ से लिया गया है।
हिंदी अनुवाद – संस्कृत भाषा विश्व की सभी भाषाओं में सबसे अधिक प्राचीन, ज्ञान-विज्ञान के विशाल भण्डार से सम्पन्न, सरल, सरस और हृदय को अच्छी लगनेवाली है, ऐसां भारतीय एवं पाश्चात्य सभी विद्वानों के द्वारा एक स्वर में स्वीकार किया गया है। भारतीय विद्याविशारद विद्वान् “संस्कृत को दैवी वाणी महर्षियों के द्वारा कहा गया है” मानकर संस्कृत भाषा को ही देवभाषा के नाम से बड़ी श्रद्धा के साथ पुकारते हैं।
ग्रीकलैटिनादिप्राचीनासु भाषासु संस्कृतभाषैव प्राचीनतमा प्रचुरसाहित्यसम्पन्ना चेति। श्रीसरविलियमजोन्सनाम्ना पाश्चात्यसमीक्षकेणापि शतद्वयवर्षेभ्यः प्रागेव समुद्घोषितमिति सर्वत्र विश्रुतम्।
हिंदी अनुवाद – ग्रीक, लैटिन आदि प्राचीन भाषाओं में संस्कृत भाषा ही सबसे प्राचीन और प्रचुर साहित्य से सम्पन्न है। सर विलियम जोन्स नाम के पाश्चात्य समीक्षक ने भी दो सौ वर्ष पहले ही यह घोषित कर दिया था, यह सर्विख्यात है।
संस्कृतभाषा पुराकाले सर्वसाधारणजनानां वाग्व्यवहारभाषा चासीत्। तत्रेदं श्रूयते यत् पुरा कोऽपि नरः काष्ठभारं स्वशिरसि निधाय काष्ठं विक्रेतुमापणं गच्छति स्म। मागें नृपः तेनामिलदपृच्छच्च, भो! भारं बाधति ? काष्ठभारवाहको नृपं तत्प्रश्नोत्तरस्य प्रसङ्गेऽवदत्, भारं न बाधते राजन्! यथा बाधति बाधते । अनेनेदं सुतरामायाति यत्प्राचीनकाले भारतवर्षे संस्कृतभाषा साधारणजनानां भाषा आसीदिति। रामायणे यदा भगवतो रामस्य प्रियसेवको हनूमान् कनकमयीं मुद्रामादाय सीतायै दातुमिच्छति तदा विचारयति स्म-
वाचं चोदाहरिष्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ।।
शब्दार्थ – वाग्व्यवहारभाषा -बोलचाल व्यवहार की भाषा। काष्ठभारं- लकड़ी का बोझ । निधाय – रखकर । काष्ठभारक = लकड़हारा । उदाहरिष्यामि = बोलूँगा। द्विजातिरिव -ब्राह्मण की तरह। भीता = डरी हुई।
हिंदी अनुवाद – प्राचीन काल में संस्कृत भाषा जनसाधारण की बोलचाल की भाषा थी। यह सुना जाता है कि पहले (पुराने समय में) कोई आदमी लकड़ी का बोझ अपने सिर पर रखकर लकड़ी बेचने के लिए बाजार जा रहा था। रास्ते में उससे राजा मिला और पूछा- अरे क्या बोझ कष्ट दे रहा है? लकड़ी ढोनेवाला उस प्रश्न के उत्तर के प्रसंग में रांजा से बोला- राजन् ! बोझ कष्ट नहीं दे रहा है, जितना आपका अशुद्ध शब्द (बाधति) कष्ट दे रहा है। इससे अच्छी तरह मालूम होता है कि प्राचीन काल में भारतवर्ष में संस्कृत भाषा साधारण लोगों की भाषा थी। रामायण में जब भगवान् राम के प्रिय सेवक हनुमान् अँगूठी लेकर सीता को देना चाहते हैं। तब विचार करते हैं-
श्लोक का अर्थ – यदि मैं ब्राह्मण की तरह संस्कृत भाषा में वचन कहूँगा, तो सीता मुझे रावण समझती हुई भयभीत हो जायँगी।
एतेनापि संस्कृतस्य लोकव्यवहारप्रयोज्यता अवगम्यते। अस्याः भाषायाः साहित्यं सर्वथा सुविशालं विद्यते। तत्र संस्कृतसाहित्यं गद्य-पद्य-चम्पूप्रकारैः त्रिधा विभज्यते। संस्कृतसाहित्यं नितान्तमुदात्तभावबोधसामर्थ्यसम्पन्नमसाधारणं श्रुतिमधुरञ्चेति निर्विवादम्। वस्तुतः साहित्यं खलु निखिलस्यापि समाजस्य प्रत्यक्षं प्रतिबिम्बं प्रस्तौति । अस्मिन् साहित्ये विश्वप्राचीनतमा ऋग्यजुः सामाथर्वनामधेयाश्चत्वारो वेदाः, शिक्षा-कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दो ज्योतिषमित्येतानि वेदानां षडङ्गानि, न्याय-वैशेषिक-सांख्य-योग-मीमांसा-वेदान्तेति आस्तिकदर्शनशास्त्राणि; चार्वाक्-जैन-बौद्धेति नास्तिकदर्शनशास्त्राणि; उपनिषदः, स्मृतयः, सूत्राणि, धर्मशास्त्राणि, पुराणानि, रामायणं, महाभारतमित्यादयः ग्रन्थाः संस्कृतसाहित्यस्य ज्ञानरत्नप्राचुर्य समुद्घोषयन्ति।
शब्दार्थ – त्रिधा = तीन प्रकार से। निर्विवादम् = विवाद से रहित। प्रस्तौति प्रस्तुत करता है। प्राचुर्यम् – अधिकता को। अल्पप्रयोजना थोड़े प्रयोजनवाले ।
हिंदी अनुवाद- इस भाषा का साहित्य सब प्रकार से अत्यन्त बड़ा है। वहाँ संस्कृत-साहित्य गद्य, पद्य और चम्पू के भेद से तीन प्रकार से विभाजित किया जाता है। संस्कृत-साहित्य अत्यन्त उच्च भावों के ज्ञान की योग्यता से युक्त, असाधारण, सुनने में मधुर है- यह बात विवादरहित है। वास्तव में साहित्य (संस्कृत) निश्चय ही सम्पूर्ण समाज का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता हैं। इस साहित्य में विश्व के सबसे प्राचीन ऋक्, यजु, साम और अथर्व नाम के चार वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष – ये वेदों के छह अङ्ग; न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त-ये आस्तिक दर्शनशास्त्र; चार्वाक, जैन, बौद्ध-ये नास्तिक दर्शनशास्त्र; उपनिषद् स्मृतियाँ, सूत्र, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ संस्कृत-साहित्य घोषित के ज्ञान-रत्न की अधिकता को करते हैं।
वाल्मीकि-व्यास-भवभूति-दण्डि-सुबन्धु-बाण-कालिदास-अश्वघोष-भारवि- जयदेव-माघ-श्रीहर्षप्रभृतयः कवयः लेखकाश्चास्याः गौरवं वर्धयन्ति। अहो ! संस्कृतभाषायाः भण्डारस्य निःसीमता, यस्याः शब्दपारायणस्य विषये महाभाष्ये लिखितं वर्तते यद् दिव्यं वर्षसहस्त्रं बृहस्पतिः इन्द्राय शब्दपारायणमिति कोष-प्रक्रिया आसीत्। संस्कृतव्याकरणेन एवंविधा शैली प्रकटिता पाणिनिना, यथा शब्दकोशाः अल्पप्रयोजना एव जाता। तस्य व्याकरणं विश्वप्रसिद्धम् एव न अपितु अद्वितीयमपि मन्यते।
हिंदी अनुवाद- वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाण, कालिदास, अश्वघोष, भारवि, जयदेव, माघ, * श्रीहर्ष आदि कवि और लेखक इसके गौरव को बढ़ाते हैं। संस्कृत भाषा के भण्डार का सीमारहित होना आश्चर्यकारी है, जिसके शब्दों के पारायण (व्याख्यान) के विषय में महाभाष्य में लिखा है कि बृहस्पति ने दिव्य हजार वर्ष तक इन्द्र के शब्द का व्याख्यान किया। यह कोष की प्रक्रिया थी। महर्षि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के द्वारा ऐसी शैली प्रकट की, जिससे शब्दकोश कम प्रयोजनवाले ही हो गये। उनका व्याकरण विश्वप्रसिद्ध ही नहीं, अपितु अद्वितीय भी माना जाता है।
अन्यासु भाषासु वाक्ययोजने प्रथमं कर्तुः प्रयोगः पुनः अन्येषां कारकाणां विन्यासः, पश्चात् क्रियायाः उक्तिः। कस्याञ्चित् भाषायां क्रियायाः विशेषणानां कारकाणाञ्च पश्चात् प्रयोगः, किन्तु संस्कृतव्याकरणे नास्ति एतादृशाः केऽपि नियमाः। यथा-आसीत् पुरा दशरथो नाम राजा अयोध्यायाम्। अस्यैव वाक्यस्य विन्यासः एवमपि भवति-पुरा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा आसीत्, अयोध्यायां दशरथो नाम राजा पुरा आसीत्, इति वा। कस्यापि पदस्य कुत्रापि स्थानं भवेत् न कापि क्षतिः।
हिंदी अनुवाद-अन्य भाषाओं में वाक्य-योजना में पहले कर्त्ता का प्रयोग, फिर दूसरे कारकों का प्रयोग, बाद में क्रिया का कथन होता है। किसी भाषा में क्रिया का प्रयोग विशेषणों और कारकों के बाद होता है, किन्तु संस्कृत व्याकरण में इस प्रकार के कोई नियम नहीं हैं; जैसे-आसीत् पुरा दशरथो नाम राजा अयोध्यायां (प्राचीनकाल में अयोध्या में दशरथ नाम का राजा था) इसी वाक्य की रचना ऐसी भी होती है- पुरा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा आसीत्, अयोध्यायां दशरथो नाम राजा पुरा आसीत् किसी भी पद का कहीं भी स्थान हो, कोई हानि नहीं है।
सन्धीनां विधानेन वाक्यस्य विन्यासे सौकर्य जायते। एकस्यां पङ्क्तौ समासेन बहूनां शब्दानां योजना भवितुं शक्या यथा-कविकुलगुरुकालिदासः। एकस्याः क्रियायाः विभिन्नार्थद्योतनाय दशलकारा वर्णिताः। लकाराणां प्रयोगज्ञानेन इत्थं ज्ञायते इयं घटना कियत्कालिकी, किंकालिकी, यथा-हरिश्चन्द्रो राजा बभूव। रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह वनं जगाम । अत्र लिट्प्रयोगेण ज्ञायते इयं घटना पुरा कालिकी सहस्त्रवर्षात्मिका लक्षात्मिका वा स्यात्। गन्तास्मि वाराणसीं कथनेनैव ज्ञायते श्वः गन्तास्मि सामान्यभविष्यत्काले तृटः प्रयोगो भवति, एवं भूतकालेऽपि अद्यतनस्य अनद्यतनस्य च भूतकालस्य कृते पृथक् पृथक् लकारस्य प्रयोगोऽस्ति।
शब्दार्थ – विधानेन = करने से। सौकर्यं सरलता। द्योतनाय सूचित करने के लिए। गन्तास्मि = जाऊँगा। क्रोडीकृत्य – गोदी में लेकर, अपने में समाकर। वाति बहती है (हवा का चलना)। अव्युत्पन्ना = रूढ़ जिनमें व्याकरणानुसार प्रकृति प्रत्यय का योग प्रतीत नहीं होता। अनणीयसी स्थूल। गरीयसी = भारी । महीयसी = महत्त्वपूर्ण । भूयसी अधिकतावाली। वरीयसी बहुत अच्छी । सुधातोऽपि = अमृत से भी। स्वादीयसी = अधिक स्वादिष्ट । सुधाशनानाम् = देवताओं। व्यरीरचन् बहुत अधिक रचना की अथवा बार- – बार रचना की। विपश्वधगः = विरोध ।
हिंदी अनुवाद- लेखक संस्कृत की महत्ता बताते हुए कहता है कि संस्कृत में सन्धियाँ करने से वाक्य की रचना में सरलता हो जाती है। एक ही पंक्ति में समास के द्वारा बहुत-से शब्दों की योजना हो सकती है। जैसे—कविकुलगुरु कालिदास। एक क्रिया के भिन्न-भिन्न अर्थों की प्रतीति कराने के लिए दस लकारों का वर्णन है। लकारों के प्रयोग से यह ज्ञात हो जाता है कि यह घटना कितने समय की और किस प्रकार की है। जैसे- ‘हरिश्चन्द्र राजा था’ (हरिश्चन्द्रो राजा बभूव.) । राम, लक्ष्मण और सीता के साथ वन गया (रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह वनं जगाम) इन वाक्यों से ज्ञात होता है कि यह घटना प्राचीन काल की है, हजारों लाखों वर्ष पुरानी हो सकती है। (गन्तास्मि वाराणसीम्) ‘मैं वाराणसी जाऊँगा’ – इस वाक्य के कहने से ही ज्ञात हो जाता है कि कल जाऊँगा। क्योंकि सामान्य भविष्यत् काल में लृट् लकार का प्रयोग होता है।इसी प्रकार भूतकाल में भी आज और आज से भिन्न भूत के लिए अलग-अलग लकारों का प्रयोग होता है।
संस्कृते अर्थान् गुणांश्च क्रोडीकृत्य शब्दानां निष्पत्तिः, यथा पुत्रः, कस्मात् पुत्रः? पुम् नरकात् त्रायतेऽसौ पुत्रः, आत्मजः कस्मादात्मजः ? आत्मनो जायतेऽसौ आत्मजः, सूर्यः कस्मात् सूर्यः ? सुवति कर्मणि लोकं प्रेरयति अतः सूर्यः। सूर्यः यदा नभोमण्डलमारोहति प्रेरयति लोकं, कस्मात् शेषे? उत्तिष्ठ, वाति वातः, स्वास्थ्यप्रदायकं प्राणवायुं गृहाण, नैत्यिकानि कर्माणि कुरु, इत्थं प्रेरयन् आकाशमागच्छति, अतः सूर्यः इति। खगः कस्मात् ? खे (आकाशे) गच्छति अस्मात् खगः। एवमर्थज्ञानाय व्यवस्थान्यासु भाषासु नास्ति ।
हिंदी अनुवाद-संस्कृत में अर्थों और गुणों को अपने में समाकर शब्दों की निष्पत्ति होती है। जैसे पुत्र को पुत्र क्यों कहते हैं? वह पुम् नामक नरक से रक्षा करता है, इसलिए पुत्र है। आत्मज को आत्मज क्यों कहते हैं? जो आत्मा से उत्पन्न होता है, वह आत्मज होता है। सूर्य को सूर्य क्यों कहा जाता है? वह लोक को कर्म में सुतं अर्थात् प्रेरित करता है, इसलिए सूर्य है। सूर्य जब आकाशमण्डल में चढ़ता है तब लोक को प्रेरित करता है, क्यों सो रहे हो? उठो, हवा चल रही है, स्वास्थ्यदायक प्राणवायु को ग्रहण करो। नित्यप्रति के काम करो। इस प्रकार की प्रेरणा देता हुआ वह आकाश में आता है, इसलिए वह सूर्य है। खग को खग क्यों कहते हैं? क्योंकि वह खग (आकाश) में गमन करता है। अन्य भाषाओं में अर्थज्ञान के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं है।
अव्युत्पन्नाः शब्दाः तेषामपि निरुक्तिः अर्थानुसन्धानिकी भवत्येव इति नैरुक्ताः। सर्व नाम च धातुजमाह इति शाकटायनः, उणादिसूत्रेषु एषैव प्रक्रिया वर्तते। इयं वाणी गुणतोऽनणीयसी, अर्थतो गरीयसी, एकस्य श्लोकस्य षड्क्षडर्थाः प्रदर्शिताः नैषधै, वाङ्मयदृष्ट्या महीयसी, भावतो भूयसी, अलङ्कारतो वरीयसी, सुधातोऽपि स्वादीयसी, सुधाशनानामपि प्रेयसी, अत एव जातकलेखकाः बौद्धाः सर्वात्मना पालिं प्रयोक्तुं कृतप्रतिज्ञा अपि संस्कृतेऽपि स्वीयान् ग्रन्थान् व्यरीरचन्। एवं जैनाः कवयः दार्शनिका अपि संस्कृतभाषामपि स्वीकृतवन्तः । यद्यपि ते विचारेषु विपक्षधरा एव आसन्।
हिंदी अनुवाद- जो रूढ़ शब्द हैं, उनकी भी अर्थ को खोजनेवाली निरुक्ति होती है- यह निरुक्तकारों का मत है। सभी संज्ञाएँ धातु से उत्पन्न कही गयी हैं – यह शाकटायन का मत है। उणादि सूत्रों में यही प्रक्रिया है। यह वाणी (संस्कृत) गुणों में स्थूल (अधिक गुणोंवाली) अर्थ से गरिमामयी है। नैषध काव्य में एक-एक श्लोक के छह-छह अर्थ दिखाये गये हैं। साहित्य की दृष्टि से यह महिमामयी है, भावों की दृष्टि से बहुत भावपूर्ण है, अलंकारों की दृष्टि से बहुत अच्छी (सुन्दर) है, यह अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट है, देवताओं को भी प्रिय है। इसी कारण जातक कथाओं के लेखक बौद्धों ने भी, जिन्होंने पूर्ण रूप से पालि भाषा का ही प्रयोग करने की प्रतिज्ञा कर ली थी, संस्कृत में भी अपने ग्रन्थों की बहुत अधिक रचना की। इसी प्रकार जैन कवियों और दार्शनिकों ने भी संस्कृत भाषा को भी स्वीकार किया, यद्यपि वे विचारों में इसके विरोधी थे।
अस्याः काव्यभाषायाः शब्दगतमर्थगतञ्च ध्वनिमाधुर्य श्रावं श्रावं सुराङ्गनापदनूपुरध्वनिमाधुर्य धिक्कुर्वन्ति वाड्मयाध्वनीनाः, काव्यक्षेत्रे- शब्दगतानर्थगतांश्च विस्फुरतोऽलङ्कारान् विलोक्य पुनर्नावलोकयन्ति मणिमयानलङ्कारान्।
शब्दार्थ – सुराङ्गनापदनूपुरध्वनिमाधुर्यम् देवों की स्त्रियों के पैरों के नूपुर की आवाज से मधुर। विस्फुरतो – बिखेरते हुए।
हिंदी अनुवाद- इसकी काव्यभाषा के शब्दगत और अर्थगत ध्वनि की मधुरता सुनते-सुनते देवताआ की स्त्रियों के पैरों के घुँघरू की आवाज की मधुरता को साहित्य के अध्ययन करनेवाले लोग धिक्कारते हैं। काव्य के क्षेत्र में शब्दगत और अर्थगत अलंकारों को बिखरते देखकर मणिमय अलंकारों को (साहित्यिक) फिर नहीं देखते हैं।
भारतीयधर्म इव संस्कृतभाषापि भारतीयानां वरिष्ठः शेबधिः। इयमेव भाषा शाखाप्रशाखारूपेण प्रान्तीयासु तासु-तासु भाषासु तिरोहिता वर्तते। अद्य केचन धर्मान्धाः राजनीतिभावनाभाविताः भारतस्य खण्डनमभिलषन्ति । कारणं तेषां संस्कृतभाषायाः अज्ञानम्।
शब्दार्थ – शेबधिः – सम्पत्ति। तिरोहिता छिपी हुई। भाविताः प्रभावित। शुनि कुत्ते में। श्वपाके = चाण्डाल में भंगी में। मा नहीं। प्रोतम् पिरोया हुआ। निबध्येत बँध जाय।
हिंदी अनुवाद- भारतीय धर्म की तरह संस्कृत भाषा भी भारतीयों की सर्वश्रेष्ठ निधि है। यही भाषा शाखा- प्रशाखा के रूप में उन विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं में छिपी हुई है। आजकल कुछ धर्मान्ध राजनीति की भावना से प्रेरित होकर भारत का विभाजन (टुकड़ा-टुकड़ा) चाहते हैं। उनका संस्कृत भाषा का अज्ञान ही कारण है।
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”, “अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्”, “उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्”, “शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः”, “मा हिंस्यात्सर्वाभूतानि”, “मयि सर्वमिदं प्रातं सूत्रे मणिगणा इव’ इमे उपदेशाः यदि भारतीयानां समक्ष समीक्ष्यन्ताम् तदा सकलं भारतं स्वयमेव एकसूत्रे अखण्डतासूत्रे च निबध्येता “अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः”, “मानसं यान्ति हंसाः न पुरुषा एव?” इति सडिण्डिमं घोषयति इयं भाषा।
हिंदी अनुवाद- ‘माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ होती है, यह हमारा या दूसरे का है – ऐसी बात छोटे विचार के लोग करते हैं। उदार चरितवाले व्यक्तियों का तो सारा संसार ही कुटुम्ब है’, ‘ज्ञानी पुरुष कुत्ते और चाण्डाल में समान दृष्टि रखते हैं, अर्थात् दोनों को समान समझते हैं’, ‘सभी प्राणियों की (किसी की) हिंसा नहीं करनी चाहिए’, ‘धागे में मणियों के समान ये सब मुझमें पिरोये हुए हैं’ ये उपदेश यदि भारतीयों के सामने समझाये जायँ, तो समस्त भारत स्वयं एक सूत्र और अखण्डता के सूत्र में बंध जाय। ‘इसके उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा हिमालय नाम का पर्वतों का राजा है। ‘हंस मानसरोवर को जाते हैं पुरुष नहीं’, ये बातें यह भाषा डुगडुगी बजाकर कहती है।
संस्कृतं विना एकताया अखण्डतायाः पाठः निरर्थक एव प्रतीयते। नेहरूमहाभागेनापि स्वकीयायाम् आत्मकथायां लिखितम् यत् संस्कृतभाषा भारतस्य निधिस्तस्याः सुरक्षाया उत्तरदायित्वं स्वतन्त्रे भारते आपतितम्। अस्माकं पूर्वजानां विचाराः अनुसन्धानानि चास्यामेव भाषायां सन्ति। स्वसभ्यतायाः धर्मस्य राष्ट्रियेतिहासस्य, संस्कृतेश्च सम्यग्बोधाय संस्कृतस्य ज्ञानं परमावश्यकमस्ति । केनापि कविना मधुरमुक्तम्-
शब्दार्थ – निरर्थक = व्यर्थ। आपतितम् आ गयां है। सम्यग्बोधाय = अच्छी तरह जानने के लिए। यतनीयम् = प्रयत्न करना चाहिए।
हिंदी अनुवाद- संस्कृत के बिना एकता और अखण्डता का पाठ व्यर्थ ही प्रतीत होता है। महापुरुष नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि संस्कृत भाषा भारत की निधि है। उसकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वतन्त्र भारत पर आ पड़ा है।हमारे पूर्वजों के विचार एवं खोज इसी भाषा में हैं। अपनी सभ्यता, धर्म, राष्ट्रीय इतिहास एवं संस्कृति के अच्छे ज्ञान के लिए संस्कृत का ज्ञान परमावश्यक है। किसी कवि ने अच्छा (मधुर) कहा है-
भवति भारतसंस्कृतिरक्षणं प्रतिदिनं हि यया सुरभाषया।
सकलवाग्जननी भुवि सा श्रुता बुधजनैः सततं हि समादृता ।।
तथाभूतायाः अस्याः भाषायाः पुनरभ्युदयाय भारतीयैः पुनरपि सततं यतनीयम्।
हिंदी अनुवाद- “जिस देवभाषा (संस्कृत) से प्रतिदिन भारतीय संस्कृति की रक्षा होती है, वह समस्त भाषाओं की जननी रूप में पृथ्वी पर विख्यात है, और वह विद्वानों द्वारा हमेशा आदर की जाती है। ऐसी इस भाषा के पुनरुत्थान के लिए भारतीयों को फिर से सदा प्रयत्न करना चाहिए।”
संस्कृतभाषायाः गौरवम् [ पाठ का सारांश ]
संस्कृत भाषा संसार की सबसे प्राचीन भाषाओं में एक है। यह ज्ञान- विज्ञान से परिपूर्ण सरल, सुमधुर और प्रिय है।
प्राचीन काल में संस्कृत सर्वसाधारण की भाषा थी। इसका साहित्य अति विशाल है। यह गद्य, पद्य और चम्पू तीन भागों में विभक्त है। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ चारों वेद, वेदांग, षड्दर्शन, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि सभी ग्रन्थ एवं काव्यादि संस्कृत में ही लिखे गये हैं।
वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाण, कालिदास, अश्वघोष, भारवि, जयदेव, माघ, श्रीहर्ष इत्यादि कवि और लेखक इसका गौरव बढ़ाते हैं। संस्कृत भाषा का व्याकरण विश्व में प्रसिद्ध है। पाणिनि के व्याकरण की समता विश्व का कोई भी व्याकरण नहीं करता। इसमें संधि, समास, कारक एवं धातु, प्रत्यय तथा लकारों आदि का बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग किया गया है। इसके काव्य-भाषा की अलौकिक मधुरता अवर्णनीय है। यह भाषा हमारी संस्कृति और सभ्यता की संरक्षिका है।
संस्कृत भाषा ही देश को एकता और अखण्डता के सूत्र में बाँधे रहने में सक्षम है। इसके बिना एकता और अखण्डता की बात निरर्थक है, अतः हमें इसके उत्थान, संचार और प्रसार के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।
संस्कृतभाषायाः गौरवम् (MCQ)
नोट : प्रश्न-संख्या 1-2 गद्यांश पर आधारित प्रश्न हैं। गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और उत्तर का चयन करें।
संस्कृतभाषा विश्वस्य सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा विपुलज्ञानविज्ञान-सम्पन्ना सरला सुमधुरा हृद्या चेति सर्वैरपि प्राच्यपाश्चात्यविद्वद्भिरेकस्वरेणोररीक्रियते । भारतीयविद्याविशार-वैस्तु ‘संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः’ इति संस्कृत भाषा हि गीर्वाणवाणीति नाम्ना सश्रद्धं समाम्नाता।
1. उक्त गद्यांशः शीर्षकः अस्ति-
(क) आदिशंकराचार्यः
(ख) संस्कृतभाषायाः गौरवम्
(ग) मदनमोहन मालवीयः
(घ) कविकुलगुरुः कालिदासः
उत्तर-(ख) संस्कृतभाषायाः गौरवम्
2. सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा भाषा का अस्ति ?
(क) ग्रीक
(ख) लैटिन
(ग) हिन्दी
(घ) संस्कृत
उत्तर-(घ) संस्कृत
ग्रीकलैटिनादिप्राचीनासु भाषासु संस्कृतभाषैव प्राचीनतमा प्रचुरसाहित्यसम्पन्ना चेति । श्रीसरविलियमजोन्सनाम्ना पाश्चात्यसमीक्षकेणापि शतद्वयवर्षेभ्यः प्रागेव समुद्घोषितमिति सर्वत्र विश्रुतम्।
3. उक्त गद्यांश का शीर्षक है-
(क) संस्कृतभाषायाः गौरवम्
(ख) लोकमान्यतिलकः
(ग) मदनमोहनमालवीयः
(घ) आद्यशंकराचार्यः
उत्तर- (क) संस्कृतभाषायाः गौरवम्
4. पाश्चात्यसमीक्षकः कथितः ?
(क) श्री सरविलियम जोन्सः
(ख) श्री सरः
(ग) श्री आप्टे महोदयः
(घ) श्री शॉपेन हाबरः
उत्तर- (क) श्री सरविलियम जोन्सः
भारतीयधर्म इव संस्कृतभाषापि भारतीयानां वरिष्ठः शेबधिः। इयमेव भाषा शाखाप्रशाखारूपेण प्रान्तीयासु तासु-तासु भाषासु तिरोहिता वर्तते। अद्य केचन धर्मान्धाः राजनीतिभावनाभाविताः भारतस्य खण्डनमभिलषन्ति । कारणं तेषां संस्कृतभाषायाः अज्ञानम्। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”, “अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्”, “उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्”, “शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः”, “मा हिंस्यात्सर्वाभूतानि”, “मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’ इमे उपदेशाः यदि भारतीयानां समक्ष समीक्ष्यन्ताम् तदा सकलं भारतं स्वयमेव एकसूत्रे अखण्डतासूत्रे च निबध्येत। “अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः”, “मानसं यान्ति हंसाः न पुरुषा एव?” इति सडिण्डिमं घोषयति इयं भाषा। संस्कृतं विना एकताया अखण्डतायाः पाठः निरर्थक एव प्रतीयते । नेहरूमहाभागेनापि स्वकीयायाम् आत्मकथायां लिखितम् यत् संस्कृतभाषा भारतस्य निधिस्तस्याः सुरक्षाया उत्तरदायित्वं स्वतन्त्रे भारते आपतितम् ।
5. केचन धर्मान्धाः राजनीतिभावनाभाविताः भारतस्य ………अभिलषन्ति ।
(क) अभ्युदयम्
(ख) विभाजनम्
(ग) खण्डनम्
(घ) विनाशम्
उत्तर-(ग) खण्डनम्
6. जननी जन्मभूमिश्च गरीयसी।
(क) भूलोकादपि
(ख) पातालादपि
(ग) पर्वतादपि
(घ) स्वर्गादपि
उत्तर-(घ) स्वर्गादपि
7. संस्कृत विना एकतायाः अखण्डतायाः पाठः एव प्रतीयते।
(क) अनुपयुक्त
(ख) निरर्थकः
(ग) सार्थकः
(घ) समीचीनः
उत्तर-(ख) निरर्थकः
8. वेदानां कति अङ्गानि सन्ति ?
(क) त्रीणि
(ख) पञ्च
(ग) षड्
(घ) सप्त
उत्तर-(ग) षड्
9. चार्वाक् जैन-बौद्धति……..शास्त्राणि सन्ति।
(क) आस्तिकदर्शन
(ख) नास्तिकदर्शन
(ग) पाश्चात्यदर्शन
(घ) उक्तानि सर्वाणि
उत्तर-(ख) नास्तिकदर्शन
10. संस्कृतभाषा भारतस्य………….!
(क) निधिः
(ख) गरिमा
(ग) शोभा
(घ) सुषमा
उत्तर-(क) निधिः
11. पुरा दशरथो नाम ……अयोध्यायाम् आसीत्।
(क) द्वारपालः
(ख) सेवकः
(ग) राजा
(घ) पुरोहितः
उत्तर-(ग) राजा
12. श्रीहर्षप्रभृतयः कवयः लेखकाः च…..वर्धयन्ति।
(क) सम्मानम्
(ख) गौरवम्
(ग) प्रतिष्ठाम्
(घ) मर्यादाम्
उत्तर-(ख) गौरवम्