Essay on Sahitya Semaj ka Darpan || साहित्य समाज का दर्पण ,साहित्य और समाज

साहित्य और समाज ||Literature And Society

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साहित्य और समाज  gyan sindhu classes

रूपरेखा –

  •  साहित्य का अर्थ ,
  • साहित्यकार की महत्ता
  • साहित्य की उपयोगिता ,
  • साहित्य और समाज का सम्बन्ध 
  • सामाजिक परिवर्तन और साहित्य ,
  • साहित्य की शक्ति ,
  • समाज को प्रभावित करने की क्षमता
  • उपसंहार

साहित्य का अर्थ –

साहित्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है ” हितेन सहितम् ” अर्थात् जो हित साधन करता है , वह साहित्य है | साहित्य उस रचना को कहते हैं जो लोकमंगल का विधान करती है । मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार ‘ साहित्य जीवन की आलोचना ‘ है । इस सूक्ति से यह स्पष्ट है कि साहित्य का जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है । साहित्य में जीवन की अभिव्यक्ति किसी – न – किसी रूप में अवश्य होती है , वह नितान्त जीवन निरपेक्ष नहीं हो सकता , इतना अवश्य है कि उसका कुछ अंश यथार्थ होता है , तो कुछ काल्पनिक होता है ।

भारतीय चिन्तक एवं कवि साहित्य के उपयोगितावादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं । कविवर मैथिलीशरण गुप्त के अनुसार किन्तु होना चाहिए क्या कुछ कहाँ ? मानते हैं जो कला को बस कला के अर्थ ही । स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही || कला केवल सौन्दर्य का ही विधान नहीं करती अपितु वह सत्यम् शिवम् , सुन्दरम् से युक्त होकर लोकमंगल . का विधान भी करती है । कला हमारी मार्गदर्शिका है , साहित्य हमारा प्रेरक है और संस्कृति हमारी पहचान है । इसी की अभिव्यक्ति निम्न पंक्तियों में हुई है— व्यक्त करती है इसी को तो कला ॥

साहित्यकार की महत्ता –

किसी देश , जाति या समाज की पहचान उसके साहित्य से होती है । साहि हमारी संस्कृति की जलती हुई मशाल है और वही हमारे राष्ट्रीय गौरव एवं गर्व की वस्तु है । भारत की वास्तविक पहचान वे कालजयी कवि और लेखक हैं जिनकी रचनाएँ हमारा सम्बल हैं । तुलसी , कबीर , प्रसाद , पन्त , निराला , रबीन्द्रनाथ टैगोर , प्रेमचन्द , शरतचन्द्र , दिनकर , सुब्रमण्यम भारती , विमलराय , आचार्य रामचन्द्र शुक्ल , हजारी प्रंसाद द्विवेदी , कालिदास , बाणभट्ट , जैसे साहित्यकारों से ही भारत की आत्मा को पहचाना जाता है । इनकी कालजयी कृतियों ने विश्व – साहित्य में भारत का गौरव बढ़ाया है ।

साहित्य की उपयोगिता –

साहित्य व्यक्ति का संस्कार करता है । उसके भीतर छिपे देवता को जगाता है . तथा पाशविकता का शमन करता है । तुलसीदास जी ने स्वीकार किया है कि कविता लोकमंगल का विधान करती है तथा वह गंगा के समान सबका हित करने वाली होती है

कीरति भनिति भूति भल सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥”

साहित्य और समाज का सम्बन्ध –

साहित्य और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । समाज का पूरा प्रतिबिम्ब हमें तत्कालीन साहित्य में दिखाई पड़ता है । समाज में व्याप्त आशा – निराशा , सुख – दुःख , उत्साह – हताशा ,जैसे भाव साहित्य को प्रभावित करते हैं तथा इन्हीं से साहित्य के स्वरूप का निर्धारण होता है । समाज में यदि निराशा व्याप्त है तो साहित्य में भी निराशा झलकती है तथा समाज में यदि युद्ध का खतरा व्याप्त है तो साहित्यकार भी ओज भरी वाणी में दुश्मन पर टूट पड़ने का आह्वान करता दिखाई देता है । इसीलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण है । दर्पण में वही प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है जो उसके सामने रख दिया जाता है , ठीक उसी प्रकार साहित्य में तत्कालीन समाज ही प्रतिविम्बित होता है ।

प्रेमचन्द के गोदान में ग्रामीण किसान होरी की व्यथा – कथा को पढ़कर हमें यह अनुमान हो जाता है कि तत्कालीन जमींदारी प्रथा में किसानों का शोषण किस तरह होता था । साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है । जनता की अनेक आकांक्षाएं ; चिन्तन – मनन , विचार – तर्क , सब कुछ साहित्य में देखे जा सकते हैं । साहित्य की आवश्यकता हर समाज में रही है । कहा गया है :

“अन्धकार है वहां जहां आदित्य नहीं है । मुर्दा है वह देश जहां साहित्य नहीं है ||”

सामाजिक परिवर्तन और साहित्य –

साहित्य में किसी प्रवृत्ति का उदय तत्कालीन परिस्थितियों के कारण होता है । परिस्थितियां जनता की चित्तवृत्ति को बदलती हैं और जनता की चित्तवृत्ति बदलने से साहित्य के स्वरूप में परिवर्तन होता है । वीरगाथा काल में वीरता की प्रवृत्ति प्रधान थी इसीलिए उस काल में पृथ्वीराजरासो , परमालरासो जैसे वीर रस प्रधान ग्रन्थ लिखे गए , जबकि भक्तिकाल में भक्ति भावना की प्रधानता के कारण सूर , तुलसी , कबीर जैसे कवियों ने भक्ति की मशाल प्रज्वलित की रीतिकाल में समाज में विलास वृत्ति प्रधान हो गई थी ; जनता में प्रेम , सौन्दर्य एवं शृंगार के प्रति अभिरुचि बढ़ गई थी , इसीलिए इस काल की कविता में शृंगार रस की प्रधानता परिलक्षित होती है । रीतिकाल में रचित ‘ बिहारी सतसई ‘ शृंगार रस प्रधान रचना है ।

साहित्य की शक्ति –

साहित्य में व्यक्ति और समाज को प्रभावित करने की अपार क्षमता होती है । कहा जाता है कि विलासरत राजा जयसिंह अपने राजकाज को छोड़कर नवोढ़ा रानी के प्रेम में ऐसा डूबा था कि उसे अपना भी होशोहवास न था । किसी का साहस न था कि महाराजा को कर्तव्य बोध करावे । तब बिहारी ने एक दोहा लिखकर भेज दिया –

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल ।

अली कली ही सौं बंध्यौ आगे कौन हवाल ||

हे भ्रमर ! तू इस कली में इतना अनुरक्त है – अभी इसमें न तो पंराग की रंगत है ,

न मधुर मकरन्द है और न ही यह अभी पूर्ण विकसित ही है ,

आगे जब यह पूर्ण विकसित पुष्प बनेगी तब तेरी क्या दशा होगी ?

इस दोहे में छिपे अन्योक्तिपरक अर्थ को राजा ने भलीभांति समझ लिया और महल से बाहर आकर राजकाज में संलग्न हो गया । यह घटना इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि साहित्य में असीमित शक्ति होती है । ‘ साहित्य ‘ के द्वारा ही व्यक्ति और समाज का निर्माण किया जाता है । सत्साहित्य आचरण को गढ़ता है , मनोविकारों पर अंकुश लगाता है , सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है । साहित्य की शक्ति तोप से कहीं . अधिक है । तोप का मुकाबला अखबार ही कर सकता है । कलम का सिपाही कभी हारता नहीं , उसकी ताकत असीमित होती है । वह सीधे दिल पर प्रहार करता है । उसकी चोट बाहर घाव न पहुंचाकर अन्दर प्रभाव डालती है ।

समाज को प्रभावित करने की क्षमता –

साहित्य जनता को प्रेरित करने की अपार क्षमता से सम्पन्न होता है । स्वतन्त्रता संग्राम के अवसर पर लिखी गई यह कविता जो एक ‘ पुष्प की अभिलाषा ‘ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी , अनेक लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई थी : मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना तुम फेंका । मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक |

उपसंहार –

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि किसी भी समाज की वास्तविक पहचान उसके साहित्य से होती है । साहित्य ही समाज का प्रेरक , निर्धारक एवं भाग्य नियन्ता है । दूसरी ओर समाज की चित्तवृत्ति के अनुरूप ही साहित्य का निर्माण होता है । साहित्य में समाज की आशा , अपेक्षा , आकांक्षा , हताशा , उत्साह , अवसाद , हर्ष , विषाद के भाव व्याप्त रहते हैं ।

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