UP Board Class 10 Sanskrit Solution of Chapter 2 उद्भिज्ज-परिषद् – Udbhijj Parishad Hindi Anuvad

Chapter 2 उद्भिज्ज परिषद् (संस्कृत गद्य-भारती)  UP Board Class 10 Sanskrit Solution of Chapter 2 उद्भिज्ज-परिषद् – Udbhijj Parishad Hindi Anuvad प्रश्नोत्तर

UP Board Solution of Class 10 Sanskrit Chapter 2 Hindi Anuvad – उद्भिज्ज-परिषद् – Udbhijj Parishad (संस्कृत गद्य भारती)

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Class 10 Sanskrit Chapter

Subject / विषयसंस्कृत (Sanskrit)
Class / कक्षा10th
Chapter( Lesson) / पाठChpter 1
Topic / टॉपिकउद्भिज्ज-परिषद् –
Chapter NameUdbhijj Parishad
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रमकम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन

अथ सर्वविधविटपिनां मध्ये स्थितः सुमहान् अश्वत्थदेवः वदति भो भो वनस्पतिकुलप्रदीपा महापादपाः, कुसुमकोमलदन्तरुचः लताकुलललनाश्च। सावहिताः शृण्वन्तु भवन्तः । अद्य मानववार्तव अस्माकं समालोच्यविषयः। सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतमा मानवा सृष्टिः, जीवसृष्टिप्रवाहेषु मानवा इव परप्रतारकाः, स्वार्थसाधनपरा, मायाविनः, कपटव्यवहारकुशला, हिंसानिरता जीवा न विद्यन्ते। भवन्तो नित्यमेवारण्यचारिणः सिंहव्याघ्रप्रमुखान् हिंस्रत्वभावनया प्रसिद्धान् श्वापदान् अवलोकयन्ति प्रत्यक्षम्।

हिंदी अनुवाद- इसके बाद सभी प्रकार के वृक्षों के मध्य में स्थित अत्यन्त विशाल पीपल देवता कहता है कि हे वनस्पतियों के कुल के दीपकस्वरूप बड़े वृक्षो! फूलों के समान कोमल दाँतों की कान्ति वाली लतारूपी कुलांगनाओ! आप सावधान होकर सुनें। आज मानवों की बात ही हमारी आलोचना का विषय है। सृष्टि की सम्पूर्ण धाराओं में मानवों की सृष्टि सर्वाधिक निकृष्ट है। जीवों के सृष्टि प्रवाह में मानवों के समान दूसरों को धोखा देने वाले, स्वार्थ की पूर्ति में लगे हुए, मायाचारी, कपट-व्यवहार में चतुर और हिंसा में लीन जीव नहीं हैं। आप सदैव ही जंगल में घूमने वाले सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक भावना से प्रसिद्ध हिंसक जीवों को प्रत्यक्ष देखते हैं। 

ततो भवन्त एव सानुनयं पृच्छ्यन्ते, कथयन्तु भवन्तो यथातथ्येन किमेते हिंसादिक्रियासु मनुष्येभ्यो भृशं गरिष्ठाः? श्वापदानां हिंसाकर्म जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजनकम्। प्रशान्ते तु जठरानले, सकृद् उपजातायां स्वोदरपूर्ती, न हि ते करतलगतानपि हरिणशशकादीन् उपघ्नन्ति। न वा तथाविधदुर्बलजीवघातार्थम् अटवीतोऽटवीं परिभ्रमन्ति।

हिंदी अनुवाद- सलिए आपसे ही विनयपूर्वक पूछते हैं कि वास्तविक रूप में आप ही बताएँ, क्या हिंसा आदि कार्यों में ये मनुष्यों से अधिक कठोर हैं? हिंसक जीवों का हिंसा-कर्म पेट की भूख मिटानेमात्र के प्रयोजन वाला है। पेट की क्षुधाग्नि के शान्त हो जाने पर, एक बार अपने पेट के भर जाने पर, वे हाथ में आये हुए हिरन व खरगोश आदि को भी नहीं मारते हैं और न ही उस प्रकार के कमजोर जीवों को मारने के लिए एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमते रहते हैं।

Solution of Chapter 2 उद्भिज्ज-परिषद्

 मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः निरवसाना च। यतोयत आत्मनोऽपकर्षः समाशङ्क्यते तत्र तत्रैव मानवानां हिंसावृत्तिः प्रवर्तते। स्वार्थसिद्धये मानवाः दारान्, मित्रं, प्रभु, भृत्यं, स्वजनं, स्वपक्षं, चावलीलायै उपघ्नन्ति। पशुहत्या तु तेषामाक्रीडनं, केवलं चित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छं निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति।

हिंदी अनुवाद- मनुष्यों की हिंसावृत्ति तो सीमारहित और समाप्त न होने वाली है। मनुष्य जिस-जिससे अपने पतन की आशंका करता है, वहीं-वहीं मनुष्यों की हिंसावृत्ति प्रारम्भ हो जाती है। स्वार्थ पूरा करने के लिए मनुष्य स्त्री, मित्र, स्वामी, सेवक, अपने सम्बन्धी और अपने पक्ष वाले को अत्यधिक सरलता से मार देता है। पशुओं की हिंसा तो उनका खेल है। केवल मनोरंजन के लिए बड़े जंगल में जाकर वे इच्छानुसार निर्दयता से पशुओं को मारते हैं। 

तेषां पशुप्रहारव्यापारम् आलोक्य जडानामपि अस्माकं विदीर्यते हृदयम्, अन्यच्च पशूनां भक्ष्यवस्तूनि प्रकृत्या नियमितान्येव। न हि पशवो भोजनव्यापारे प्रकृतिनियममुल्लङ्घयन्ति। तेषु ये मांसभुजः ते मांसमपहाय नान्यत् आकाङ्क्षन्ति। ये पुनः फलमूलाशिनस्ते तैरेव जीवन्ति। मानवानां न दृश्यते तादृशः कश्चिन्निर्दिष्टो नियमः।

हिंदी अनुवाद- उनके पशुओं को मारने के कार्य को देखकर हम जड़ पदार्थों का भी हृदय फट जाता है। दूसरे, पशुओं की खाद्य वस्तुएँ स्वभाव (प्रकृति) से नियमित ही हैं। निश्चय ही पशु भोजन के कार्य में प्रकृति के नियम का उल्लंघन नहीं करते हैं। उनमें जो मांसभोजी हैं, वे मांस को छोड़कर दूसरी वस्तु नहीं चाहते हैं। और जो फल-मूल खाने वाले हैं, वे उन्हीं से जीवित रहते हैं। मनुष्यों का उस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं दिखाई पड़ता है।

Solution of Chapter 2 उद्भिज्ज-परिषद्

स्वावस्थायां संतोषमलभमाना मनुजन्मानः प्रतिक्षणं स्वार्थसाधनाय सर्वात्मना प्रवर्तन्ते, न धर्ममनुधावन्ति, न सत्यमनुबध्नन्ति, तृणवदुपेक्षन्ते स्नेहम्, अहितमिव परित्यजन्ति आर्जवं, न किंञ्चिदपिलज्जन्ते अनृतव्यवहारात्, न स्वल्पमपि विभ्यति पापाचारेभ्यः, न हि क्षणमपि विरमन्ति परपीडनात्। यथा यथैव स्वार्थसिद्धिर्घटते परिवर्धते विषयपिपासा। निर्धनः शतं कामयते, शती दशशतान्यभिलषति, सहस्राधिपो लक्षमाकाङ्क्षति, इत्थं क्रमशः एव मनुष्याणामाशा वर्धते। विचार्यतां तावत्, ये खलु स्वप्नेऽपि तृप्तिसुखं नाधिगच्छन्ति, सर्वदैव नवनवाशाचित्तवृत्तयो भवन्ति, सम्भाव्यते तेषु कदाचिदपि स्वल्पमात्रं शान्तिसुखम् ?

हिंदी अनुवाद- अपनी अवस्था में सन्तोष को न प्राप्त करने वाले मनुष्य प्रति क्षण स्वार्थसिद्धि के लिए पूरी तरह से लगे रहते हैं, धर्म के पीछे नहीं दौड़ते हैं, सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, स्नेह की तृण के समान उपेक्षा करते हैं, सरलता को अहित के समान त्याग देते हैं, झूठे व्यवहार से कुछ भी लज्जित नहीं होते हैं, पापाचारों से थोड़ा भी नहीं डरते हैं, दूसरों को पीड़ित करने से क्षणभर भी नहीं रुकते हैं। जैसे-जैसे स्वार्थसिद्धि पूर्ण होती जाती है, विषयों की प्यास बढ़ती जाती है। धनहीन सौ रुपये की इच्छा करता है, सौ रुपये वाला हजार रुपये चाहता है, हजार रुपये का स्वामी लाख रुपये चाहता है, इस प्रकार क्रमशः मनुष्य की इच्छा बढ़ती जाती है। विचार तो कीजिए, जो निश्चित रूप से स्वप्न में भी तृप्ति के सुख को प्राप्त नहीं करते हैं, सदा ही नयी-नयी इच्छा से जिनका मन भरा रहता है, क्या उनमें कभी भी थोड़ी भी शान्ति के सुख की सम्भावना होती है? 

येषु क्षणमपि शान्तिसुखं नाविर्भवति ते खलु दुःखदुःखेनैव समयमतिवाहयन्ति इत्यपि किं वक्तव्यम् ? कथं वा निजनिजावस्थायामेव तृप्तिमनुभवद्भ्यः पशुभ्यस्तेषां श्रेष्ठत्वम्? यद्धि विगर्हितं कर्म सम्पादयितुं पशवोऽपि लज्जन्ते तत्तु मानवानामीषत्करम्। नास्तीह किमपि अतिघोररूपं महापापकर्म यत्कामोपहतचित्तवृत्तिभिः मनुष्यैः नानुष्ठीयते। निपुणतरम् अवलोकयन्नपि अहं न तेषां पशुभ्यः कमपि उत्कर्ष परमतिनिकृष्टत्वमेव अवलोकयामि।

हिंदी अनुवाद-  जिनमें क्षणभर भी शान्ति के सुख का उदय नहीं होता है, वे निश्चय ही महान् दु:खों में अपना समय बिताते हैं। इस विषय में भी क्या कहना चाहिए? अपनी-अपनी अवस्था में ही तृप्ति का अनुभव करने वाले पशुओं से उनकी श्रेष्ठता कैसे हो सकती है? जिस निन्दित कार्य को करने के लिए पशु भी लज्जित होते हैं, वह मनुष्यों के लिए तुच्छ काम है। इस संसार में अत्यन्त भयानक ऐसा कोई बड़ा पापकर्म नहीं है, जो लालसा से दूषित चित्तवृत्ति वाले मनुष्यों के द्वारा न किया जाता हो। अच्छी तरह देखता हुआ भी मैं पशुओं से उनके किसी उत्कर्ष को नहीं, अपितु अत्यन्त नीचता को ही देखता हूँ।

Solution of Chapter 2 उद्भिज्ज-परिषद्

न केवलमेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्सारा एव। तृणानि खलु वात्यया सह स्वशक्तितः अभियुध्य वीरपुरुषा इव शक्तिक्षये क्षितितले पतन्ति, न तु कदाचित् कापुरुषा इव स्वस्थानम् अपहाय प्रपलायन्ते। मनुष्याः पुनः स्वचेतसाग्रत एव भविष्यत्काले संघटिष्यमाणं कमपि विपत्पातम् आकलय्य दुःखेन समयमतिवाहयन्ति, परिकल्पयन्ति च पर्याकुला बहुविधान् प्रतीकारोपायान्, येन मनुष्यजीवने शान्तिसुखं मनोरथपथादपि क्रान्तमेव।

हिंदी अनुवाद-  ये केवल पशुओं से ही निकृष्ट नहीं हैं, तृणों से भी सारहीन हैं। तिनके निश्चय ही आँधी के साथ अपनी शक्ति से युद्ध करके वीर पुरुषों की तरह शक्ति के नष्ट हो जाने पर ही पृथ्वी पर गिरते हैं, कभी भी कायर पुरुषों की तरह अपने स्थान को छोड़कर नहीं भागते हैं। मनुष्य अपने चित्त में पहले ही भविष्यकाल में घटित होने वाली किसी विपत्ति के आने (पड़ने) का विचार करके कष्ट से समय बिताते हैं और व्याकुल होकर अनेक प्रकार के उपायों को सोचते हैं, जिससे मनुष्य जीवन में शान्ति और सुख मनोरथ के रास्ते से भी हट जाता है। 

अथ ये तृणेभ्योऽप्यसाराः पशुभ्योऽपि निकृष्टतराश्च, तथा च तृणादि सृष्टेरनन्तरं तथाविधं जीवनिर्माणं विश्वविधातुः कीदृशं बुद्धिप्रकर्ष प्रकटयति । इत्येवं हेतुप्रमाणपुरस्सरं सुचिरं बहुविधं विशदं च व्याख्याय सभापतिरश्वत्थदेव उ‌द्भिज्ज-परिषदं विसर्जयामास ।

हिंदी अनुवाद-  इस प्रकार जो तृणों से भी सारहीन हैं और पशुओं से भी नीच हैं तथा तृणादि की सृष्टि के बाद उस प्रकार के जीव का निर्माण करना, संसार के निर्माता की किस प्रकार की बुद्धि की श्रेष्ठता को प्रकट करता है? इस प्रकार हेतु और प्रमाण देकर बहुत देर तक अनेक प्रकार से विशद् व्याख्या करके सभापति पीपल ने वृक्षों की सभा को विसर्जित (समाप्त) कर दिया।

उद्भिज्ज-परिषद् [ पाठ का सारांश ]

सब प्रकार के वृक्षों के बीच में स्थित विशाल वटवृक्ष ने सभी पेड़-पौधों और वनस्पतियों को सम्बोधित करते हुए कहा- आज हमारी बात का विषय मानव-समाज की समालोचना है। वस्तुतः समस्त सृष्टि में मानव सृष्टि निकृष्टतम् है, समस्त प्राणियों में मनुष्य के समान धोखा देने वाला, स्वार्थी, मायावी, छल- कपट करनेवाला हिंसक कोई भी जीव नहीं है। यह सिंह आदि हिंसक पशुओं से भी नीच है, क्योंकि वे तो केवल भूख मिटाने के लिए हिंसा करते हैं।

मानव की हिंसा-भावना तो असीमित है। यह अपने स्वार्थ के लिए स्त्री, पुत्र, मित्र, स्वामी, सेवक यहाँ तक कि अपने (माता-पिता) स्वजनों को मार डालता है। पशु हिंसा तो वह मनोरंजन के लिए भी किया करता है। यह लोभी मानव स्वार्थ के साधन के लिए सत्य, धर्म, प्रेम सब कुछ त्याग देता है और पापाचरण में लिप्त हो जाता है। पशु भी अपने नियमों के अनुसार आचरण करते हैं किन्तु यह मानव तो उससे भी गिरा हुआ है।

साथ ही यह तिनके से भी कमजोर होता है। तिनके मिलकर आने वाली विपत्ति का सामना करते हैं, किन्तु यह विपत्ति की आशंका से ही अनेक दुष्कर्म करने लगता है, अतः इसके जीवन से शान्ति, सुख लुप्त हो गया है। वास्तव में सृष्टि में इस निकृष्ट प्राणी का निर्माण कर विधाता ने बुद्धिमानी नहीं की। इतना सप्रमाण विशद् व्याख्यान देकर सभापति अश्वत्थदेव ने सभा विसर्जित कर दी।

Solution of Chapter 2 उद्भिज्ज-परिषद्-  प्रश्न उत्तर – (बहुविकल्पीय)

नोट : प्रश्न-संख्या । एवं 2 गद्यांश पर आधारित प्रश्न हैं। गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और उत्तर का चयन करें।

मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः निरवसाना च। यतोयत आत्मनोऽपकर्षः समाशङ्क्रयते तत्र तत्रैव मानवानां हिंसावृत्तिः प्रवर्तते। स्वार्थसिद्धये मानवाः दारान्, मित्र, प्रभु, भृत्थे, स्वजने, स्वपक्षं, चावलीलायै उपप्नन्ति। पशुहत्या तु तेषामाक्रीडनं, केवलं चित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छ निर्देयं च पशुघातं कुवीन्त।

1. उक्त गद्यांश का शीर्षक है-

(क) उ‌भिज्ज-परिषद्

(ख) लोकमान्यः तिलकः

(ग) नैतिकमूल्यानि

(घ) कविकुलगुरुः कालिदासः

उत्तर-(क) उद्भिज्ज-परिषद्

2. पशुहत्या केषाम् आक्रीडनम् आसीत् ?

(क) गन्धर्वानाम्

(ख) यक्षानाम्

(ग) मनुष्याणाम्

(घ) देवानाम्

उत्तर-(ग) मनुष्याणाम्

3. अश्वत्थदेवः केषां मध्ये स्थितः अस्ति?

(क) बालकानाम्

(ख) जनानाम्

(ग) सर्वविधविटपिनाम्

(घ) गङ्गानाम्

उत्तर-(ग) सर्वविधविटपिनाम्

4. उद्भिज्ज परिषदस्य सभापतिः कः आसीत् ?

(क) विष्णुदेवः

(ख) वरुणदेवः

(ग) इन्द्रदेवः

(घ) अश्वत्थदेवः

उत्तर-(घ) अश्वत्थदेवः

5. मानवाः केभ्यः निकृष्टतराः अस्ति?

(क) पशुभ्यः

(ख) तृणेभ्यः

(ग) मानवेभ्यः

(घ) सर्वेभ्य सृष्टिः

उत्तर- (क) पशुभ्यः

6. मानवाः कस्मात् स्वल्पमपि न विभ्यति ?

(क) सदाचारात्

(ख) पापाचारात्

(ग) धर्मात्

(घ) न किमपि

उत्तर-(ख) पापाचारात्

7. ‘उ‌द्भिज्ज परिषद्’ इत्यस्य कः अर्थः ?

(क) मनुष्याणां सभायाः

(ख) वृक्षाणां सभायाः

(ग) वानराणां सभायाः

(घ) न किमपि

उत्तर-(ख) वृक्षाणां सभायाः

8. मानवाः कस्मात् किञ्चिदपि न लज्जन्ते ?

(क) अनृतव्यवहारात्

(ख) सत्यव्यवहारात्

(ग) मूर्खात्

(घ) धर्मात्

उत्तर- (क) अनृतव्यवहारात्

9. कः उ‌द्भिज्जपरिषदं विसर्जयामास ?

(क) अश्वत्थदेवः

(ख) देवर्षिः

(ग) कपिलमुनिः

(घ) जैमिनिः

उत्तर-(क) अश्वत्थदेवः

 

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