Class 12  Hindi Khandkavy खण्डकाव्य Chapter 6 श्रवण कुमार Shravan kumar- Saransh Charitra Chitran kathavastu.

Class 12  Hindi Khandkavy खण्डकाव्य Chapter 6 श्रवण कुमार Shravan kumar- Saransh Charitra Chitran kathavastu.

Muktiyagy khandkavyUP Board solution of Class 12  & sahitya Hindi खण्डकाव्य Chapter 6 “श्रवण कुमार” (शिवबालक शुक्ल) is new syllabus of UP Board exam Class 12  Hindi.

Class12 Intermediate
SubjectHindi || General Hindi
BoardUP Board-UPMSP
Chapterश्रवण कुमार sravan kumar -Khandkavy

श्रवण कुमार (डॉ० शिवबालक शुक्ल)

मेरठ, आजमगढ़, बस्ती, रायबरेली, बाँदा, हरदोई, बहराइच, हमीरपुर, गौतमबुद्ध नगर, गाजियाबाद, तथा सिद्धार्थनगर मऊ जनपदों के लिए।

                     कथावस्तु

प्रश्न १–’ श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक ) संक्षेप में लिखिए।

अथवा ‘ श्रवण कुमार’ के ‘अभिशाप’ सर्ग का सारांश लिखिए।

अथवा ‘श्रवण कुमार’ के सर्गों का नामोल्लेख करते हुए ‘निर्वाण’ सर्ग का सारांश लिखिए।

अथवा ‘ श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य के ‘ आखेट’ खण्ड की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा ‘ श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य के आधार पर ‘सन्देश’ सर्ग को समझाइए ।

अथवा ‘ श्रवण कुमार’ की कथावस्तु के परिप्रेक्ष्य में अयोध्या के परिवेश पर प्रकाश डालिए।

अथवा ‘श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य की कथा का सार संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए ।

उत्तर— डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित ‘श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य की सर्गानुसार संक्षिप्त कथावस्तु इस

प्रकार है

प्रथम सर्ग : अयोध्या (सारांश)

अयोध्या का गौरवशाली इतिहास अपने भीतर अनेक महान् राजाओं की गौरव गाथा छिपाए हुए है। पृथु, इक्ष्वाकु, ध्रुव, सगर, दिलीप, रघु आदि राजाओं ने अयोध्या के नाम को प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुँचाया। इसी अयोध्या में सत्यवादी हरिश्चन्द्र और गंगा को भूतल पर लानेवाले राजा भगीरथ ने शासन किया। राजा रघु के नाम पर ही इस कुल का नाम रघुवंश पड़ा। महाराजा दशरथ राजा अज के पुत्र थे।

राजा दशरथ अयोध्या के प्रतापी शासक थे। उनके राज्य में सर्वत्र शान्ति थी। वहाँ कोई भी दुष्ट, पापी व नीच नहीं था। अयोध्या नगरी में चारों ओर कला-कौशल, उपासना संयम तथा धर्म-साधना का साम्राज्य था । श्रमिकों को उचित वेतन मिलता था। सभी वर्ग सन्तुष्ट थे। महाराज दशरथ स्वयं एक महान् धनुर्धर थे। वे शब्दभेदी बाण चलाने में सिद्धहस्त थे।

द्वितीय सर्ग : आश्रम (सारांश)

सरयू नदी के तट पर एक आश्रम था। उस आश्रम में श्रवण कुमार अपने वृद्ध एवं अन्धे माता-पिता के साथ सुख-शान्तिपूर्वक निवास करता था। आश्रम में रहनेवाले अन्धे मुनि और उनकी पत्नी श्रवण जैसा आज्ञाकारी और मातृ-पितृभक्त पुत्र पाकर अपने को धन्य मानते थे। उनकी तपस्या के प्रभाव से हिंसक पशु भी अपनी हिंसा भूल गए

तृतीय सर्ग : आखेट (सारांश)

एक दिन गोधूलि वेला में महाराज दशरथ भोजन करने के बाद विश्राम कर रहे थे कि उनके मन में आखेट की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने अपने सारथि को बुला भेजा और रात्रि के चतुर्थ पहर में आखेट हेतु प्रस्थान करने की इच्छा प्रकट की। रात्रि में सोते समय राजा ने स्वप्न में देखा था कि एक हिरन का बच्चा उनके बाण से मर गया है और हिरनी खड़ी हुई आँसू बहा रही है।

राजा दशरथ सूर्योदय से बहुत पहले ही रथ पर सवार होकर शिकार के लिए चल दिए। वे शीघ्र ही अपने इच्छित स्थान पर पहुँच गए। रथ से उतरकर वे घने वन में एक अन्धकारमय स्थान पर छिपकर बैठ गए और धनुष-बाण सँभाले हुए किसी वन्य पशु की प्रतीक्षा करने लगे।

इधर श्रवण कुमार के माता-पिता को प्यास लगी। उन्होंने श्रवण कुमार से जल लाने को कहा। श्रवण जल लेने के लिए सरयू नदी के तट पर गया और जल भरने के लिए कलश को नदी के जल में डुबोया। घड़े के शब्द को राजा दशरथ ने किसी वन्य पशु की आवाज समझा। उन्होंने तुरन्त शब्दभेदी बाण चला दिया। बाण श्रवण कुमार को लगा। श्रवण कुमार चीत्कार करता हुआ धरती पर गिर पड़ा। मानव-स्वर सुनकर राजा दशरथ चिन्तित हो उठे और ‘प्रभु कल्याण कर’ कहते हुए नदी के किनारे पर पहुँचे।

चतुर्थ सर्ग : श्रवण (सारांश)

राजा दशरथ के बाण से घायल हुआ श्रवण कुमार नदी के तट पर पड़ा था। वह अपने माता-पिता की चिन्ता में व्याकुल था और बिलख-बिलखकर कह रहा था कि अब मेरे असहाय अन्धे माता-पिता का भविष्य क्या होगा।

श्रवण ने दुःखी मन से राजा से कहा कि उन्होंने श्रवण को ही नहीं मारा है. अपितु उसके माता-पिता की भी हत्या कर दी है। उसके माता-पिता अन्धे हैं और वे उसके बिना जीवित नहीं रह सकते। उसने राजा से आग्रह किया कि वे उसके माता-पिता को जल पिला आएँ । राजा अपनी भूल के कारण आत्मग्लानि से भर उठे। माता-पिता को जल पिलाकर आने का आग्रह करके श्रवण के प्राण-पखेरू उड़ गए। राजा दशरथ बहुत दुःखी हुए। उन्होंने अपने सारथि को तो श्रवण के पास छोड़ा और स्वयं जल लेकर श्रवण के माता-पिता के पास आश्रम की ओर चले पड़े।

पंचम सर्ग: दशरथ (सारांश)

दशरथ दुःखी एवं चिन्तित भाव में सिर झुकाए आश्रम की ओर जा रहे थे और सोच रहे थे कि इस घटना के कारण हृदय पर लगे घाव का प्रायश्चित्त वे किस प्रकार करें। इस सम्पूर्ण सर्ग में दशरथ के आन्तरिक द्वन्द्व का चित्रण हुआ है। पश्चात्ताप, आशंका, भय, करुणा आदि से भरे हुए वे आश्रम में पहुँचते हैं।

षष्ठ सर्ग : सन्देश (सारांश)

आश्रम में श्रवण के प्यासे माता-पिता श्रवण के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका मन बार-बार शंका से भर जाता था कि इतनी देर होने पर भी श्रवण अभी तक लौटकर क्यों नहीं आया। उसी समय दशरथ ने आश्रम में प्रवेश किया। दशरथ के पैरों की आहट पाकर श्रवण के पिता कह उठे

‘कहाँ पुत्र थे? मेरी लकुटी, वाहन मेरे, मेरी आँख ?”

वे दोनों राजा दशरथ को ही श्रवण समझ रहे थे। जब दशरथ ने कहा, “कृपया जल लीजिए” तो उनका भ्रम दूर हुआ। उन्होंने दशरथ का स्वागत किया और उनका परिचय पूछा। दशरथ ने अपना परिचय ‘अजनन्दन’ बताकर दिया। उसके उपरान्त दशरथ ने अपने द्वारा बाण चलाए जाने, श्रवण के स्वर्गवासी हो जाने और स्वयं जल लेकर आने की बात बताई। श्रवण की मृत्यु का समाचार सुनकर श्रवण के वृद्ध माता-पिता व्याकुल हो उठे। श्रवण कुमार के पास पहुँचने की इच्छा व्यक्त करते हुए वे विलाप करने लगे।

सप्तम सर्ग : अभिशाप (सारांश)

श्रवण के माता-पिता पुत्र-शोक से व्याकुल थे। वे करुण विलाप करते हुए, आँसू बहाते हुए, दशरथ के साथ सरयू नदी पर पहुँचे। पुत्र के शरीर को छूकर दोनों मूच्छित हो गए। चेतना आने पर वे तरह-तरह से विलाप करने लगे। राजा दशरथ को सम्बोधित करते हुए श्रवण के पिता ने कहा कि हे राजन् ! यदि तुम जान-बूझकर यह कृत्य करते तो पूरा रघुकुल ही दण्ड भोगता, परन्तु यह सबकुछ तुमसे अनजाने में ही हुआ है; अतः केवल तुम अकेले ही इसका दण्ड भोगोगे। उन्होंने दशरथ को शाप दिया कि जिस प्रकार पुत्र शोक में मैं प्राण त्याग रहा हूँ, इसी प्रकार हे दशरथ! एक दिन तुम भी पुत्र-वियोग में तड़प-तड़पकर अपने प्राण त्यागोगे। दशरथ इस शाप को सुनकर काँप उठे।

अष्टम सर्ग : निर्वाण (सारांश)

श्रवण के पिता द्वारा दिए गए शाप से दशरथ व्याकुल हो उठे। श्रवण के माता-पिता भी अत्यधिक अधीर थे। वे रो-धोकर कुछ शान्त से हुए, तब श्रवण कुमार के पिता का ध्यान दशरथ की ओर गया तो उन्हें शाप देने का दुःख हुआ। उन्होंने शाप लौटाना चाहा, परन्तु अब यह सम्भव नहीं था। तभी श्रवण कुमार अपने दिव्य रूप में प्रकट हुआ और उसने अपने माता-पिता को सान्त्वना दी। उसने सांसारिक आवागमन से मुक्त होने तथा पहुँचने का समाचार उन्हें दिया। इस समाचार को सुनकर श्रवण के माता-पिता ने भी अपने प्राण त्याग दिए ।

नवम सर्ग : उपसंहार (सारांश)

राजा दशरथ दुःखी मन से अयोध्या लौट आए। लोक-निन्दा के कारण उन्होंने इस घटना का जिक्र किसी से नहीं किया। अपने यौवनकाल में वे इसे भूल गए; परन्तु जब राम वन को जाने लगे तो उन्हें वह शाप याद आया और तब उन्होंने इस घटना तथा शाप की बात अपनी रानियों को बताई।

चरित्र चित्रण

प्र.9 ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के नायक श्रवणकुमार का चरित्र-चित्रण कीजिए ।

उत्तर.श्रवणकुमार प्रस्तुत खण्डकाव्य का प्रमुख पात्र है। ‘श्रवणकुमार’ की कथा आरम्भ से अन्त तक उसी से सम्बद्ध है; अतः इस खण्डकाव्य का नायक श्रवणकुमार है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—

  1. मातृ-पितृभक्त — श्रवणकुमार अपने माता-पिता का एकमात्र आदर्श पुत्र है। वह प्रात:काल से सायंकाल तक अपने वृद्ध एवं नेत्रहीन माता-पिता की सेवा में लगा रहता है । दशरथ के बाण से बिद्ध होकर भी श्रवणकुमार को अपने प्यासे माता-पिता की ही चिन्ता सता रही है –

मुझे बाण की पीड़ा सम्प्रति इतनी नहीं सताती है।

 पितरों के भविष्य की चिन्ता जितनी व्यथा बढ़ाती है ॥

  1. निश्छल एवं सत्यवादी – श्रवणकुमार के पिता वैश्य और माता शूद्र वर्ण की थीं। जब दशरथ ब्रह्म हत्या की सम्भावना व्यक्त करते हैं, तो श्रवणकुमार उन्हें सत्य बता देता है—

वैश्य पिता माता शूद्रा थी मैं यों प्रादुर्भूत हुआ ।

   संस्कार के सत्य भाव से मेरा जीवन पूत हुआ ॥ श्रवणकुमार स्पष्टवादी है। वह किसी से कुछ नहीं छिपाता । वह सत्यकाम जाबालि आदि के समान ही अपने कुल, गोत्र आदि का परिचय देता है।

  1. क्षमाशील एवं सरल स्वभाव वाला – श्रवणकुमार का स्वभाव बहुत ही सरल है। उसके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध एवं वैर नहीं है। दशरथ के बाण से बिद्ध होने पर भी वह अपने समीप आये सन्तप्त दशरथ का सम्मान ही करता है।
  2. भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी – श्रवणकुमार भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी है। धर्म के दस लक्षणों को वह अपने जीवन में धारण किये है –

दम अस्तेय अक्रोध सत्य धृति, विद्या क्षमा बुद्धि सुकुमार !

शौच तथा इन्द्रिय – निग्रह हैं, दस सदस्य मेरे परिवार ॥

  1. आत्मसन्तोषी — श्रवणकुमार को किसी वस्तु के प्रति लोभ-मोह नहीं है। उसे भोग एवं ऐश्वर्य की तनिक भी चाह नहीं है। वह तो सन्तोषी स्वभाव का है—

वल्कल वसन विटप देते हैं, हमको इच्छा के अनुकूल ।

नहीं कभी हमको छू पाती, भोग ऐश्वर्य वासन्न – धूल ॥

  1. संस्कार को महत्त्व देने वाला – श्रवणकुमार समदर्शी है। वह कर्म, शील एवं संस्कारों को महत्त्व देता है। उसके जीवन में पवित्रता संस्कारों के प्रभाव के कारण ही है

विप्र द्विजेतर के शोणित में अन्तर नहीं रहे यह ध्यान ।

नहीं जन्म के संस्कार से, मानव को मिलता सम्मान ॥

इस प्रकार श्रवणकुमार उदार, परोपकारी, सर्वगुणसम्पन्न तथा खण्डकाव्य का नायक है।

प्र. 11. श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के मार्मिक स्थलों का सोदाहरण निदर्शन कीजिए।

उत्तर . डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ की कथा वाल्मीकि-रामायण के ‘अयोध्याकाण्ड’ के श्रवणकुमार – प्रसंग पर आधारित है । कवि ने इस कथा को युगानुरूप परिवर्तित कर सर्वथा नये रूप में प्रस्तुत किया है। ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की कथा नौ सर्गों में विभक्त है, जिनमें अन्तिम छः सर्गों में करुण रस की पवित्र धारा प्रवाहित हुई है। बाण लगने पर श्रवण का मार्मिक क्रन्दन, दशरथ की आत्मग्लानि, श्रवण के माता-पिता का करुण – विलाप, उनका दशरथ को शाप देना, श्रवण के माता-पिता का पुत्र – शोक में प्राण त्यागना और दशरथ का दुःखी मन से अयोध्या लौटना ऐसे कारुणिक प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर किसी भी सहृदय पाठक का मन करुणा से आप्लावित हो उठता है। इस कारुणिकता का ही यह प्रभाव है कि यह कथानक भारतीय जनमानस की स्मृति में अमिट हो गया है और श्रवणकुमार का नाम मातृ-पितृभक्ति का पर्याय बन गया है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य है और इसीलिए यह पाठकों को सबसे अधिक प्रभावित भी करता है ।

‘अभिशाप’ इस खण्डकाव्य का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सर्ग है, जिसमें वात्सल्य की गंगा और करुण रस की यमुना का सुन्दर संगम हुआ है। इसमें करुण रस के सभी अंगों की सहज अभिव्यक्ति हुई है । यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य भी है। श्रवण का शव, उसके माता-पिता के मनोभावों, पूर्व स्मृतियों एवं शव – स्पर्श,

शीश-पटकना, रोना आदि में आलम्बन, उद्दीपन एवं अनुभाव के दर्शन होते हैं। प्रलाप, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन और अभिलाषा आदि वृत्तियों की सहायता से शोक की करुण रस में परिणति इस सर्ग में द्रष्टव्य है। इसके साथ ही कथावस्तु का सबसे महत्वपूर्ण अंश भी इसी सर्ग में है। इसके अतिरिक्त इस सर्ग में श्रवण के पिता का चरित्र देवत्व और मनुष्यत्व के बीच संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है । ऋषि होकर भी वे क्रोध को रोक न सके और पुत्र- वध से उत्पन्न रोष के कारण, दशरथ को शाप दे दिया

पुत्र-शोक में कलप रहा हूँ, जिस प्रकार मैं अज-नन्दन ।

सुत-वियोग में प्राण तजोगे, इसी भाँति करके क्रन्दन ॥

श्रवण की माता के विलाप में भी करुण रस का स्रोत निम्नवत् फूट जाता है

मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन-सा पटक रही थी, शीश

अन्धी आज बनाकर मुझको, किया न्याय तुमने जगदीश ?

तो उधर वात्सल्य रस की गंगा भी प्रवाहित होती दिखाई देती है

धरा स्वर्ग में रहो कहीं भी ‘माँ’ मैं रहूँ सदा अय प्यार

रहो पुत्र तुम, ठुकराओ मत मुझ दीना का किन्तु दुलार ॥

यह सर्ग जहाँ काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से विशिष्ट है, वहीं यह अपने उदात्त विचारों एवं विश्लेषण के कारण भी विशिष्ट है । श्रवणकुमार के पिता पुत्र- वध के कारण दशरथ के प्रति रोष में हैं, किन्तु उनके द्वारा अपराध की स्वीकृति कर लेने के कारण वे उनके प्रति सहानुभूति भी रखते हैं।

इस सर्ग के अन्त में ऋषि दम्पत्ति में मानवीय दुर्बलता भी दिखाई गयी है। भले ही उन्होंने क्रोधवश दशरथ को शाप दे दिया, किन्तु दशरथ की निरपराध पत्नी के प्रति सहानुभूति भी दिखाई गयी है कि बेचारी नारी गेहूँ के साथ घुन की भाँति पिसेगी। अपने पुत्रहन्ता और उसकी पत्नी के प्रति यह संवेदनात्मक भाव, वह भी उस समय जब पुत्र का शव सामने हो, मानवादर्श की चरम सीमा को दर्शाता है। इस सर्ग में दशरथ की आन्तरिक अनुभूति एवं उनके अन्तर्मन का द्वन्द्व भी अपनी विशिष्टता रखता है। पश्चाताप और अपराध-बोध से दबा हुआ एक राजेश्वर ; श्रवण के माता-पिता के सामने उनके पुत्र के शव के साथ जिस मन:स्थिति में खड़ा है, वह कवि की कल्पना-शक्ति की अनुभवात्मक संवेदना का परिचय देता है और उसकी उस स्थिति की अभिव्यक्ति में रसों का जो अद्भुत समन्वय हुआ है, वह सराहनीय है।

error: Content is protected !!