साखी की व्याख्या कबीरदास क्लास 10 (हिंदी ब )
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Subject- Hindi B Class- 10th (Highschool)cbse board Teacher- Arunesh Sir (Lecturer Hindi) Book Name- Sparsh Bhag 2 Chapter- 10 Chapter Name- Sakhi Kabir Writer- Kabeer
- CBSE HINDI (A) CLASS 10 |KSHITIJ BHAG 2|NCERT HINDI HIGHSCHOOL| हिंदी क्षितिज भाग 2 कक्षा 10 हिंदी सीबीएसई बोर्ड कक्षा 10 हिंदी CBSE board class 10th Hindi
- CBSE HINDI(Cours B)10th Sparsh Bhag 2|NCERT HINDI हिंदी स्पर्श संचयन भाग 2 कक्षा 10 हिंदी सीबीएसई बोर्ड कक्षा 10 हिंदी ब CBSE board class10th Hindi
साखियों का सार –
1.
ऐसी बाँणी बोलिए , मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै , औरन कौं सुख होइ ।।
व्याख्या/भावार्थ- प्रस्तुत साखी में संत कबीरदास अहंकार और कटु वचन त्यागने का संदेश देते हुए कहते हैं कि लोगों को अपने मन का अहंकार त्यागकर ऐसे मीठे वचन बोलने चाहिए , जिससे उनका अपना शरीर शीतल अर्थात् शांत और प्रसन्न हो जाए और साथ ही सुनने वालों को भी उससे सुख मिले । अतः हमें आपस में मीठे बोल बोलकर मधुर व्यवहार करना चाहिए ।
काव्यगत सौंदर्य –
- ‘बाणी बोलिए’ में अनुप्रास अलंकार है ।
- सधुक्कड़ी भाषा अर्थात् उपदेश देने वाली साधुओं की पंचमेल खिचड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है|
2.
कस्तूरी कुंडलि बसै , मृग ढूँढ बन माँहि ।
ऐसैं घटि – घटि रॉम हैं , दुनियाँ देखै नाहिं ।।
व्याख्या/भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि जिस प्रकार कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की अपनी नाभि में ही होता है , किंतु वह उसकी सुगंध महसूस करके उसे पाने के लिए वन – वन में परेशान होकर भटकता रहता है , ठीक उसी प्रकार ईश्वर ( राम ) भी सृष्टि के कण – कण में तथा सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं , किंतु संर में रहने वाले लोग अज्ञानतावश उसे देख नहीं पाते और परेशान होकर इधर – उधर ढूंढते रहते हैं । इसीलिए हमें ईश्वर को बाहर न खोजकर अपने भीतर ही खोजना चाहिए ।
काव्यगत सौंदर्य –
- बिंब और प्रतीक के माध्यम से सामान्य भाषा में गूढ रहस्य अर्थात् ईश्वर के निवास को समझाने का प्रयास किया गया है ।
- ‘ कस्तूरी कुंडलि ‘ तथा ‘ दुनियाँ देखे में अनुप्रास अलंकार है, घटि – घटि ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है ।
3.
जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नहि ।
सब अँधियारा मिटि गया , जब दीपक देख्या महि ।
व्याख्या/भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि जिस समय मेरे अंदर ‘ मैं ‘ अर्थात् अहंकार भरा हुआ था , उस समय मुझे ईश्वर नहीं मिल पा रहे थे । अब जब मुझे ईश्वर के दर्शन हो गए हैं , तो मेरे भीतर का ‘ मैं ‘ अर्थात अहंकार समाप्त हो गया है । जैसे ही मैंने उस ज्योतिस्वरूप ज्ञान रूपी दीपक को मन में देखा , तो मेरा सारा अज्ञान रूपी अंधकार समाप्त हो गया तथा मुझे इस सत्य का दर्शन हो गया है कि अहंकार ही ईश्वर का शत्रु और
काव्यगत सौंदर्य –
- ‘ मैं ‘ शब्द अहंभाव के लिए प्रयुक्त हुआ है ।
- ‘ अँधियारा ‘ अज्ञान का और ‘ दीपक ‘ ज्ञान का प्रतीक है ।
- ‘ हरि है ‘ तथा ‘ दीपक देख्या ‘ में अनुपास अलंकार है ।
4.
सुखिया सब संसार है , खायै अरु सोवै ।
दुखिया दास कबीर है , जागै अरु रोवै ।।
व्याख्या/भावार्थ- कबीरदास मौज – मस्ती में डूबे रहने वाले लोगों की तुलना चिंतनशील व्यक्तियों से करते हुए कहते हैं कि इस संसार में ऐसे व्यक्ति , जो केवल खाने – पीने और सोने का कार्य करते हैं , अपने जीवन को सबसे सुखी मानकर खुश रहते हैं । कबीरदास कहते हैं कि वह दुःखी हैं , क्योंकि वह जाग रहे हैं , उन्हें संसार की नश्वरता का ज्ञान है , इसलिए वे संसार की नश्वरता को देखकर रोते हैं ।
काव्यगत सौंदर्य –
- सरल एवं सहज रूप में सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है ।
- ‘ सुखिया सब संसार ‘ तथा ‘ दुखिया दास ‘ में अनुप्रास अलंकार है
5.
बिरह भुवंगम तन बसै , मंत्र न लागै कोइ ।
राम बियोगी ना जिवै , जिवै तो बौरा होइ ।।
व्याख्या/भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि जिन व्यक्तियों के शरीर में परमात्मा ( राम ) का विरह ( वियोग ) रूपी साँप बस जाता है , उनके बचने की कोई आशा , कोई उपाय शेष नहीं रहता । वह राम के वियोग के बिना जीवित नहीं रह पाता और यदि किसी कारण से वह जीवित रह भी जाता है , तो परमात्मा को पाने के लिए वह पागलों की भाँति ही जीवन व्यतीत करता है । परमात्मा से मिलन ही इसका एकमात्र उपाय है ।
काव्यगत सौंदर्य –
- बिरह भुवंगम ‘ में रूपक अलंकार विद्यमान है ।
- सर्प को विरह का प्रतीक बताया गया है ।
- सरल , सहज एवं सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है ।
6.
निंदक नेड़ा राखिये , आँगणि कुटी बँधाइ ।
बिन साबण पाँणी बिना , निरमल करै सुभाइ ।।
व्याख्या/भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि जो व्यक्ति हमारी निंदा करता है , हमें उस व्यक्ति को सदा अपने पास में ही रखना चाहिए । यदि संभव हो त उसके लिए अपने घर के आँगन में ही एक कुटिया बनवाकर दे देनी चाहिए , जिससे वह हमारे करीब ही रहे । वह हमारे बुरे कार्य की निंदा करके , बिना साबुन और पानी के ही हमारे स्वभाव को अत्यंत स्वच्छ एवं पवित्र बना देता है ।
काव्यगत सौंदर्य –
- सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है ।
- ‘निंदक नेड़ा ‘ में अनुप्रास अलंकार है ।
7.
पोथी पढ़ि – पढ़ि जग मुवा , पंडित भया न कोइ ।
ऐकै अपिर पीव का , पढ़े सु पंडित होइ ।।
व्याख्या/भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि इस संसार में लोग धार्मिक पुस्तकें पढ़ – पढ़कर मर गए , किंतु कोई भी ज्ञानी नहीं बन सका । इसके विपरीत जो मनुष्य प्रियतम यानी परमात्मा या ब्रह्म के प्रेम से संबंधित एक भी अक्षर पढ़ या जान लेता है , वह सच्चा ज्ञानी अर्थात् पंडित हो जाता है । भाव यह है कि जिसने परमात्मा को जान लिया , वही सच्चा ज्ञानी हो जाता है ।
काव्यगत सौंदर्य –
- ‘ पोथी पढ़ि – पढ़ि ‘ में अनुप्रास अलंकार विद्यमान है ।
- भाषा सरल , सहज एवं सधुक्कड़ी है , जो भावाभिव्यक्ति में सक्षम है ।
8.
हम घर जाल्या आपणाँ , लिया मुराड़ा हाथि ।
अब घर जालौं तास का , जे चले हमारे साथि ।।
व्याख्या/भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि मैंने विरह और ईश्वर भक्ति से जलती हुई मशाल को हाथ में लेकर अपने घर को जला लिया है अर्थात् मैंने भक्ति में भरकर अपनी सांसारिक विषय – वासनाओं को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है । अब जो – जो भक्त मेरे साथ भक्ति के मार्ग पर जाने को तैयार हों , मैं उनका सांसारिक विषय – वासनाओं का घर भी जला डालूँगा और उनके हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम की भावना जगा दूंगा ।
काव्यगत सौंदर्य –
- प्रस्तुत साखी की शैली प्रतीकात्मक है । ‘ घर ‘ एवं ‘ मशाल ‘ क्रमश : सांसारिकता एवं ज्ञान के प्रतीक हैं ।
- सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है ।