UP Board Solution of Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Full Chapter Hindi Anuvad सुभाषितरत्नानि- UP Board Sanskrit Digdarshika Subhasitratnaani
सुभाषितरत्नानि| UP Board Sanskrit Digdarshika Subhasitratnaani Chapter Anuvad- इस पोस्ट में यूपी बोर्ड हिंदी साहित्यिक /सामान्य हिंदी 12 हेतु पाठसुभाषितरत्नानि का हल दिया जा रहा है, बोर्ड परीक्षा की दृष्टि को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। In this post, UP Board Hindi Literary & General Hindi lesson for class 12 सुभाषितरत्नानि|
Subject / विषय | General & Sahityik Hindi / सामान्य & साहित्यिक हिंदी |
Class / कक्षा | 12th |
Chapter( Lesson) / पाठ | Chpter -9 |
Topic / टॉपिक | Ramdhari Singh Dinkar ka jivan parichay || रामधारीसिंह दिनकर जीवन एवं साहित्यिक परिचय |
Full Video Lectures Link | Click Here For Video Lecture |
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रम | सामान्य हिंदी |
सुभाषितरत्नानि
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के संस्कृत-भाग के ‘सुभाषितरत्नानि’ नामक शीर्षक से अवतरित है।
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
समस्त भाषाओं में मुख्य, मधुर और दिव्य देववाणी (संस्कृतभाषा) है।
तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्।।1
निश्चित रूप से उसका काव्य मधुर है और उससे भी अधिक (मधुर है उसके) सुन्दर वचन हैं।
सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुख चाहनेवाले (व्यक्ति) को विद्या कहाँ और विद्या प्राप्त करनेवाले को सुख कहाँ?
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।2
सुख की इच्छा करनेवाले को विद्या त्याग देनी चाहिए और विद्यार्थी को सुख त्याग देना चाहिए।
जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
जल की बूंद-बूंद गिरने से घड़ा भर जाता है।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।3
यही समस्त विद्याओं, धर्म और धन का कारण है
(अर्थात् थोड़ा-थोड़ा करके हो विद्या, धर्म और धन का संचय होता है।)
काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
बुद्धिमान् व्यक्तियों का समय काव्य और शास्त्र की चर्चारूपी मनोरंजन में व्यतीत होता है।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।4
और मूर्ख व्यक्तियों का (समय) बुरी आदतों, सोने अथवा लड़ाई-झगड़े मे (व्यतीत होता है)।
न चौरहार्यं न च राजहार्य, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
ऐसा विद्या-धन न चोर द्वारा चुराया जा सकता है, न राजा द्वारा छीना जा सकता है, न भाई द्वारा बाँटा जा सकता है और न हो भारकारक है तथा
व्यये कृते वर्द्धत एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।5
व्यय करने से नित्य बढ़ता है, जो सब धनों में प्रधान है।
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
पीठ-पोछे कार्य को नष्ट करनेवाले और सामने प्रिय बोलनेवाले
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।6
मित्र को वैसे ही त्याग देना चाहिए, जिस प्रकार मुख में या ऊपरी हिस्से में दूधवाले (किन्तु अन्दर) विष के घड़े को (त्याग देते हैं)।
उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च।
सूर्य उदय के समय लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।।7
महान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति अर्थात् सुख-दुःख में एक-जैसे होते हैं।
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
दुष्ट की विद्या विवाद के लिए, धन अहंकार के लिए और शक्ति दूसरो की पीड़ा पहुँचाने के लिए होती है।
खलस्य साधोः विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।8
इसके विपरीत सज्जन की विद्या ज्ञान के लिए, धन दान के लिए और शक्ति दूसरो की रक्षा के लिए होती है।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
बिना विचारकर कार्य को नहीं करना चाहिए। अज्ञान परम आपत्तियों का स्थान है।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः।।
सोच-विचारकर कार्य करनेवाले व्यक्ति का गुणों की लोभी सम्पत्तियाँ (लक्ष्मी) स्वयं ही वरण करती हैं।
वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।।
वज्र से भी कठोर और पुष्प से भी कोमल
लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति।।
असाधारण व्यक्तियों के चित्त को कौन जान सकता है?
प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं सः पुत्रो
जो पिता को अच्छे आचरण से प्रसन्न करता है वह पुत्र,
यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम्।
जो पति का ही हित चाहती है वह स्त्री
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्
जो सुख और दुःख में समान व्यवहारवाला है वह मित्र
एतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते।।
इन तीनों को संसार में पुण्यशाली लोग ही पाते हैं।
कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी
जो समस्त इच्छाओं को पूर्ण करती है, दरिद्रता को दूर करती है,
कीर्तिं सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।
जो कीर्ति में वृद्धि करती है और पापों को नष्ट करती है।
शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां
शुद्ध, शान्त और सम्पूर्ण कल्याणों की जननी है।
धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः।।
धैर्यवानों (ज्ञानियों) ने सत्य एवं प्रिय वाणी को ऐसी गाय कहा है।
व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः
पदार्थों को मिलाने वाला कोई आन्तरिक कारण ही होता है।
न खलु बहिरुपाधीन् प्रीतयः संश्रयन्ते।
निश्चय ही प्रीति (प्रेम) बाह्य कारणों पर निर्भर नहीं करतीः
विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं
जैसे-कमल सूर्य के उदय होने पर ही खिलता है
द्रवति च हिमरश्मावुद्गतेः चन्द्रकान्तः।।
और चन्द्रकान्त-मणि चन्द्रमा के उदय होने पर ही द्रवित होती (पिघलती) है।
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु
नीति में निपुण लोग निन्दा करे या स्तुति (प्रशंसा) करें,
लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
लक्ष्मी आए या अपनी इच्छानुसार चली जाए।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा।
चाहे आज ही मृत्यु हो अथवा युगों के बाद हो।
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।
धैर्यशाली पुरुष न्यायोचित मार्ग से पग भर भी नहीं डोलते हैं, अर्थात् विचलित नहीं होते हैं।
ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।
ऋषियों ने उन्मत्त और अहंकारी (व्यक्तियों) की वाणी को राक्षसी वाणी कहा है।
सा योनिः सर्ववैराणां सा हि लोकस्य निऋतिः।।
वह समस्त वैरो को उत्पन्न करनेवाली और संसार की विपत्ति (का कारण) होती है।