Class 12 Hindi Khandkavy खण्डकाव्य Chapter 2 सत्य की जीत Satya ki jeet – Saransh Charitra Chitran kathavastu.
UP Board solution of Class 12 Samanya & sahitya Hindi खण्डकाव्य Chapter 2 “सत्य की जीत” (द्वारिका प्रसाद महेश्वरी) is new syllabus of UP Board exam Class 12 Samanya Hindi.
Class | 12 Intermediate |
Subject | Hindi || General Hindi |
Board | UP Board-UPMSP |
Chapter | सत्य की जीत(saty ki jit) -Khandkavy |
सत्य की जीत (द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी)
देहरादून, बिजनौर, लखनऊ, रामपुर, पीलीभीत, इटावा, झाँसी, बलिया, बदायूँ तथा प्रतापगढ़ जनपदों के लिए.
प्रश्न १ -‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य का कथानक अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा ‘सत्य की जीत’ में शस्त्र तथा शास्त्र सम्बन्धी जो विचार व्यक्त किए गए हैं, उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए।
अथवा ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा ‘ ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथा महाभारत की द्रौपदी चीरहरण की संक्षिप्त, किन्तु मार्मिक – घटना पर आधारित है । ” इसे सिद्ध कीजिए ।
अथवा ‘सत्य की जीत’ में धृतराष्ट्र ने लोकमंगल की जिस नीति की घोषणा की है, उसका संक्षेप में सार लिखिए।
उत्तर—कवि द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरीकृत ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य का कथानक ‘महाभारत’ के ‘सभापर्व’ से लिया गया है। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में इस प्रकार है—
दुर्योधन पाण्डवों को द्यूतक्रीड़ा का निमन्त्रण देता है। पाण्डव उसके निमन्त्रण को स्वीकार कर लेते हैं और
जुआ खेलते हैं। युधिष्ठिर जुए में निरन्तर हारते रहते हैं। अन्त में युधिष्ठिर द्रौपदी को भी दाँव पर लगा देते हैं और हार जाते हैं। प्रतिशोध की अग्नि में जलता हुआ दुर्योधन द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित करना चाहता है, अत: वह दुःशासन को भरी सभा में द्रौपदी को वस्त्रहीन करने का आदेश देता है।
इस घटना को भीष्म पितामह; द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र एवं विदुर जैसे ज्ञानीजन भी मूकदर्शक बने देखते रहते हैं। केश पकड़कर द्रौपदी को सभा में लाया जाता है। इस अपमान से क्षुब्ध होकर वह एक सिंहनी के समान गर्जना करती हुई दुःशासन को ललकारती है। सभी सभासद उसकी ललकार सुनकर स्तब्ध रह जाते हैं। द्रौपदी कहती है
अरे ओ ! दुःशासन निर्लज्ज ! देख तू नारी का भी क्रोध ।
किसे कहते उसका अपमान, कराऊँगी मैं इसका बोध ||
द्रौपदी द्वारा नारी जाति पर पुरुषों के अत्याचार का विरोध किया जाता है। दुःशासन नारी को अबला, तुच्छ, महत्त्वहीन एवं पुरुष की आश्रिता बताता है, परन्तु द्रौपदी उसे नारी क्रोध से दूर रहने को कहती है । द्रौपदी कहती है। कि संसार के कल्याण के लिए नारी को महत्त्व दिया जाना आवश्यक है। द्रौपदी और दुःशासन दोनों धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, सत्य-असत्य पर तर्क-वितर्क करते हैं।
द्रौपदी उपस्थित सभासदों से तथा नीतिज्ञ, विद्वान् और प्रतापी व्यक्तियों से पूछती है कि जुए में हारे हुए युधिष्ठिर को मुझे दाँव पर लगा देने का अधिकार कैसे हो सकता है। यदि युधिष्ठिर को उसे दाँव पर लगाने का अधिकार नहीं है तो उसे विजित कैसे माना गया और उसे भरी सभा में अपमानित करने का किसी को क्या अधिकार है। द्रौपदी के इस कथन के प्रति सभी अपनी सहमति व्यक्त करते हैं। भीष्म पितामह इसका निर्णय युधिष्ठिर पर छोड़ते हैं।
द्रौपदी भीष्म पितामह के वचन सुनकर कहती है कि दुर्योधन ने छल-प्रपंच करके सरल हृदयवाले युधिष्ठिर को अपने जाल में फँसा लिया है; अतः धर्म एवं नीति के ज्ञाता स्वयं निर्णय लें कि उन्हें छल-कपट एवं असत्य की विजय स्वीकार है अथवा धर्म, सत्य एवं सरलता की। द्रौपदी की बात सुनकर दुःशासन कहता है कि कौरवों को अपने शस्त्र बल पर भरोसा है न कि शास्त्र बल पर कर्ण, शकुनि और दुर्योधन, दुःशासन के इस कथन का पूर्ण समर्थन करते हैं। सभा में उपस्थित एक सभासद विकर्ण को यह बात बुरी लगती है।
वह कहता है कि यदि शास्त्र – बल से शस्त्र बल ऊँचा और महत्त्वपूर्ण है तो मानवता का विकास सम्भव नहीं है; क्योंकि शस्त्र बल मानवता को पशुता में बदल देता है। वह कहता है कि सभी विद्वान् एवं धर्मशास्त्रों के ज्ञाताओं को द्रौपदी के कथन का उत्तर अवश्य देना चाहिए, नहीं तो बड़ा अनर्थ होगा। विकर्ण द्रौपदी को विजित नहीं मानता।
विकर्ण की घोषणा सुनकर सभी सभासद दुर्योधन, दुःशासन आदि की निन्दा करने लगते हैं, परन्तु कर्ण उत्तेजित होकर कौरवों का पूर्ण समर्थन करता है और द्रौपदी को निर्वस्त्र करने के लिए दुःशासन को आज्ञा देता है। सभा स्तब्ध रह जाती है। पाँचों पाण्डव अपने वस्त्र अलंकार उतार देते हैं। दुःशासन अट्टहास करता है और द्रौपदी के वस्त्र खींचने के लिए हाथ बढ़ाता है।
द्रौपदी गरज उठती है और अपने पूर्ण बल के साथ उसे रोककर कहती है कि वह किसी भी तरह विजित नहीं है तथा दुःशासन उसके प्राण रहते उसका चीर हरण नहीं कर सकता। यह सुनकर मदान्ध दुःशासन द्रौपदी के वस्त्रों की ओर पुनः हाथ बढ़ाता है। द्रौपदी दुर्गा का रूप धारण कर लेती है, जिसे देखकर दुःशासन सहम जाता है तथा अपने आपको चीर-हरण में असमर्थ अनुभव करता है।
द्रौपदी दुःशासन को चीर हरण के लिए ललकारती है, परन्तु वह दुर्योधन की चेतावनी पर भी द्रौपदी के रौद्र रूप से आतंकित बना रहता है। सभी कौरव द्रौपदी के सत्य-बल, तेज और सतीत्व के आगे कान्तिहीन हो जाते हैं।
कौरवों को अनीति की राह पर चलता देखकर सभी सभासद उनकी निन्दा करने लगते हैं। राजमदान्ध दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण आदि को द्रौपदी फिर ललकारती हुई घोषणा करती है—
और तुमने देखा यह स्वयं, कि होते जिधर सत्य औ’ न्याय ।
जीत होती उनकी ही सदा, समय चाहे जितना लग जाय ॥
सभी सभासद कौरवों की निन्दा करते हैं; क्योंकि वे यह अनुभव करते हैं कि यदि पाण्डवों के प्रति होते हुए इस अन्याय को नहीं रोका गया तो प्रलय हो जाएगी। अन्त में धृतराष्ट्र उठते हैं और सभा को शान्त करते हैं। वे अपने पुत्र दुर्योधन की भूल को स्वीकार करते हैं। धृतराष्ट्र पाण्डवों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि उन्होंने सत्य, धर्म एवं न्याय का मार्ग नहीं छोड़ा।
वे दुर्योधन को आदेश देते हैं कि पाण्डवों का राज्य लौटा दिया जाए तथा उन्हें मुक्त कर दिया जाए। वे भरी सभा में ‘जियो और जीने दो’ की नीति की घोषणा करते हैं
नीति समझो मेरी यह स्पष्ट, जिएँ हम और जिएँ सब लोग ।
धृतराष्ट्र द्रौपदी के विचारों को उचित ठहराते हैं । वे उसके प्रति किए गए दुर्व्यवहार के लिए उससे क्षमा माँगते हैं तथा पाण्डवों के गौरवपूर्ण व सुखद भविष्य की कामना करते हुए कहते हैं
जहाँ है सत्य, जहाँ है धर्म, जहाँ है न्याय, वहाँ है जीत ।
तुम्हारे यश-गौरव के दिग्-दिगन्त में गूंजेंगे स्वर, गीत ॥
इस प्रकार ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथा द्रौपदी चीरहरण की अत्यन्त संक्षिप्त, किन्तु मार्मिक घटना पर आधारित है। कवि ने इस कथा को अत्यधिक प्रभावी और युगानुकूल बनाकर नारी के सम्मान की रक्षा करने का अपना संकल्प दुहराया है।
चरित्र-चित्रण
प्र. 1. ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर नायिका (द्रौपदी) का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर – द्रौपदी ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की नायिका है । सम्पूर्ण कथा उसके चारों ओर घूमती है। ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं
- आत्मविश्वासी- ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में अत्यधिक विकट समय होते हुए भी द्रौपदी बड़े आत्मविश्वास से दुःशासन को अपना परिचय देती हुई कहती है
जनता नहीं कि मैं हूँ कौन? द्रौपदी धृष्टद्युम्न की बहन ।
पाण्डु कुलवधू भीष्म धृतराष्ट्र विदुर को कब रे यह सहन!!
- स्वाभिमानिनी सबला – द्रौपदी स्वाभिमानिनी है। वह अपना अपमान नारी जाति का अपमान समझती है और वह इसे सहन नहीं करती। ‘सत्य की जीत’ की द्रौपदी महाभारत की द्रौपदी की भाँति असहाय, अबला और संकोची नारी नहीं है यह द्रौपदी तो अन्यायी, अधर्मी पुरुषों से जमकर संघर्ष करने वाली है।
- विवेकशीला — द्रौपदी पुरुष के पीछे-पीछे आँख बन्द कर चलने वाली नारी नहीं, वरन् विवेक से कार्य करने वाली नारी है। वह भरी सभा में यह सिद्ध कर देती है कि छूत में स्वयं को हारने वाले युधिष्ठिर को मुझे दाँव पर लगाने का कोई अधिकार नहीं था
प्रथम महाराज युधिष्ठिर मुझे या, कि थे गये स्वयं को हार
स्वयं को यदि तो उनको मुझे, हारने का था क्या अधिकार ॥
- साध्वी – द्रौपदी में शक्ति, ओज, तेज, स्वाभिमान और बुद्धि के साथ-साथ सत्य, शील और धर्म का पालन करने की शक्ति भी है। द्रौपदी के चरित्र की श्रेष्ठता से प्रभावित धृतराष्ट्र उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं— द्रौपदी धर्मनिष्ठ है सती, साध्वी न्याय सत्य साकार
इसी से आज सभी से प्राप्त, उसे बल सहानुभूति अपार ॥
- ओजस्विनी – सत्य की जीत’ की नायिका द्रौपदी ओजस्विनी है। अपना अपमान होने पर वह सिंहनी की भाँति दहाड़ती दुःशासन द्वारा केश खींचने के बाद वह रौद्र रूप धारण कर लेती है।
- सत्य, न्याय और धर्म की एकनिष्ठ साधिका – द्रौपदी सत्य और न्याय की अजेय शक्ति और असत्य तथा अधर्म की मिथ्या शक्ति का विवेचन बहुत संयत शब्दों में करती हुई कहती है
सत्य का पक्ष, धर्म का पक्ष, न्याय का पक्ष लिये मैं साथ ।
अरे, वह कौन विश्व में शक्ति, उठा सकती जो मुझ पर हाथ ||
- नारी जाति की पक्षधर – सत्य की जीत की द्रौपदी आदर्श भारतीय नारी है। उसमें अपार शक्ति, समार्थ्य, बुद्धि, आत्मसम्मान, सत्य, धर्म, व्यवहारकुशलता, वाक्पटुता, सदाचार आदि गुण विद्यमान है। अपने सम्मान को ठेस लगने पर वह सभा में गरज उठती है— मौन हो जा मैं यह सकती न कभी भी नारी का अपमान ।
दिखा दूँगी तुझको अभी, गरजती आँखों का तूफान ।।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि द्रौपदी पाण्डव कुलवधू, वीरांगना, स्वाभिमानी, आत्मगौरव सम्पन्न, सत्य और न्याय की पक्षधर, सती-साध्वी, नारीत्व के स्वाभिमान से मण्डित एवं नारी जाति का आदर्श है।
प्र. 2. ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर दुर्योधन का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर. ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में दुर्योधन का चरित्र एक तुच्छ शासक का चरित्र है। वह असत्य, अन्याय तथा अनैतिकता का आचरण करता है। वह छल विद्या में निपुण अपने मामा शकुनि की सहायता से पाण्डवों की द्यूतक्रीड़ा के लिए आमन्त्रित करता है और उनका सारा राज्य जीत लेता है। दुर्योधन चाहता है कि पाण्डव द्रौपदी सहित उसके दास-दासी बनकर रहे। वह द्रौपदी को सभा के बीच में वस्त्रहीन करके अपमानित करना चाहता है। उसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं—
- शस्त्रबल का पुजारी – दुर्योधन सत्य, धर्म और न्याय में विश्वास नहीं रखता। वह शारीरिक तथा तलवार के बल में आस्था रखता है। आध्यात्मिक एवं आत्मिक बल की उपेक्षा करता है। दुःशासन के मुख से शस्त्रबल की प्रशंसा और शास्त्रबल की निन्दा सुनकर वह प्रसन्नता से खिल उठता है।
- अनैतिकता का अनुयायी – दुर्योधन न्याय और नीति को छोड़कर अनीति का अनुसरण करता है। भले-बुरे का विवेक वह बिल्कुल नहीं। करता। अपने अनुयायियों को भी अनीति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना हो उसकी नीति है। जब दुःशासन द्रौपदी का चीरहरण करने में असमर्थ हो जाता है तो दुःशासन की इस असमर्थता को वह सहन नहीं कर पाता हैं और अभिमान में गरज कर कहता है
कर रहा क्या, यह व्यर्थ प्रलाप, भय वश था दुःशासन वीर।
कहा दुर्योधन ने उठ गरज, खींच क्या नहीं खिंचेगी चीर।।
- मातृद्वेषी – दुर्योधन बाह्य रूप में पाण्डवों को अपना भाई बताता है किन्तु आन्तरिक रूप से उनकी जड़ें काटता है। वह पाण्डवों का सर्वस्व हरण करके उन्हें अपमानित और दर-दर का भिखारी बनाना चाहता है। के शब्दों में –
किन्तु भीतर-भीतर चुपचाप, छिपाये तुमने अनगिन पाश ।
फँसाने को पाण्डव निष्कपट, चाहते थे तुम उनका नाश ।।
- असहिष्णुता – दुर्योधन स्वभाव से बड़ा ईर्ष्यालु है। पाण्डवों का बढ़ता हुआ यश तथा सुख-शान्तिपूर्ण जीवन उसकी ईर्ष्या का कारण बन जाता है। वह रात-दिन पाण्डवों के विनाश की ही योजना बनाता रहता है। उसके वह रात-दिन पाण्डवों के विनाश की ही योजना बनाता रहता है। उसके द्रौपदी ईर्ष्यालु स्वभाव का चित्रण देखिए
ईर्ष्या तुम को हुई अवश्य, देख जग में उनका सम्मान।
विश्व को दिखलाना चाहते रहे तुम अपनी शक्ति महान् ॥
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि दुर्योधन का चरित्र एक साम्राज्यवादी शासक का चरित्र है।
प्र.3. ‘सत्य की जीत के आधार पर दुःशासन का चरित्र चित्रण (चरित्रांकन ) कीजिए।
उत्तर.प्रस्तुत खण्डकाव्य में दुःशासन एक प्रमुख पात्र है जो दुर्योधन का छोटा भाई तथा धृतराष्ट्र का पुत्र है उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं—
- अहंकारी एवं बुद्धिहीन – दुःशासन को अपने बल पर बहुत अधिक घमण्ड है। विवेक से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और महत्वपूर्ण मानता है तथा पाण्डवों का भरी सभा में अपमान करता है। सत्य, प्रेम और अहिंसा की अपेक्षा वह पाशविक शक्तियों को ही सब कुछ मानता है
शस्त्र जो कहे वही है सत्य, शस्त्र जो करे वही है कर्म ।
शस्त्र जो लिखे वही है शास्त्र, शस्त्र बल पर आधारित धर्म ॥
इसीलिए परिवारजन और सभासदों के बीच द्रौपदी को निर्वस्त्र करने में वह तनिक भी लज्जा नहीं मानता है।
- नारी का अपमान करने वाला – द्रौपदी के साथ हुए तर्क-वितर्क में – दुःशासन का नारी के प्रति पुरातन और रूढ़िवादी दृष्टिकोण प्रकट हुआ है। दुःशासन नारी को पुरुष की दासी और भोग्या तथा पुरुष से दुर्बल मानता है। नारी की दुर्बलता का उपहास उड़ाते हुए वह कहता है
कहाँ नारी ने ले तलवार, किया है पुरुषों से संग्राम | जानती है वह केवल पुरुष, भुजदण्डों में करना विश्राम ॥
- शस्त्र बल विश्वासी – दुःशासन शस्त्र बल को सब कुछ समझता है। उसे धर्म शास्त्र और धर्मज्ञों में कोई विश्वास नहीं है। इन्हें तो वह शस्त्र के आगे हारने वाले मानता है
धर्म क्या है और क्या है सत्य, मुझे क्षणभर चिन्ता इसकी ना
शास्त्र की चर्चा होती वहाँ, जहाँ नर होता शस्त्र – विहीन ॥
- दुराचारी– दुःशासन हमारे समक्ष एक दुराचारी व्यक्ति के रूप में आता है। वह मानवोचित व्यवहार भी नहीं जानता। वह अपने बड़ों व गुरुजनों के सामने भी अभद्र व्यवहार करने में संकोच नहीं करता। वह शस्त्रज्ञों, धर्मज्ञों व नीतिज्ञों पर कटाक्ष करता है और उन्हें दुर्बल बताता है
लिया दुर्बल मानव ने ढूँढ़, आत्मरक्षा का सरल उपाय ।
किन्तु जब होता सम्मुख शस्त्र, शास्त्र हो जाता निरुपाय ॥
- धर्म और सत्य का विरोधी – धर्म और सत्य का शत्रु दुःशासन आध्यात्मिक शक्ति का विरोधी एवं भौतिक शक्ति का पुजारी है। वह सत्य, धर्म, न्याय, अहिंसा जैसे उदार आदर्शों की उपेक्षा करता है।
- सत्य व सतीत्व से पराजित – दुःशासन की चीर-हरण में असमर्थता इस तथ्य की पुष्टि करती है कि सत्य की ही जीत होती है। वह शक्ति से मदान्ध होकर तथा सत्य, धर्म एवं न्याय की दुहाई देने को दुर्बलता का चिह्न बताता हुआ जैसे ही द्रौपदी का चीर खींचने के लिए हाथ आगे बढ़ाता है, वैसे ही द्रौपदी के शरीर से प्रकट होने वाले सतीत्व की ज्वाला . से पराजित हो जाता है।
दुःशासन के चरित्र की दुर्बलताओं या विशेषताओं का उद्घाटन करते हुए डॉ० ओंकार प्रसाद माहेश्वरी लिखते हैं कि, “लोकतन्त्रीय चेतना के जागरण के इस युग में अब भी कुछ ऐसे साम्राज्यवादी प्रकृति के दुःशासन हैं, जो दूसरों के बढ़ते मान-सम्मान को नहीं देख सकते तथा दूसरों की भूमि और सम्पत्ति को हड़पने के लिए प्रतिक्षण घात लगाये हुए बैठे रहते हैं। इस काव्य में दुःशासन उन्हीं का प्रतीक हैं! “
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