UP Board Solution of Class 10 Sankrit Chapter 6 Adishankarachay षष्ठ: पाठ: आदिशंकराचार्य: (Adishankarachary MCQ)
Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 10 संस्कृत – UP Board Solution of Class 10 Sanskrit Chapter -6 आदिशंकराचार्य: Adishankaracharya गद्य – भारती in Hindi translation – हाईस्कूल परीक्षा हेतु उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम।
Subject / विषय | संस्कृत (Sanskrit) |
Class / कक्षा | 10th |
Chapter( Lesson) / पाठ | Chpter 6 |
Topic / टॉपिक | आदिशंकराचार्य: |
Chapter Name | Adishankaracharya |
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रम | कम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन |
धन्येयं भारतभूमिर्यत्र साधुजनानां परित्राणाय दुष्कृताञ्च विनाशाय सृष्टिस्थितिलयकर्ता परमात्मा स्वयमेव कदाचित् रामः कदाचित् कृष्णश्च भूत्वा आविर्बभूव । त्रेतायुगे रामो धनुर्धृत्वा विपथगामिनां राक्षसां संहारं कृत्वा वर्णाश्रमव्यवस्थामरक्षत्। द्वापरे कृष्णो धर्मध्वंसिनः कुनृपतीन् उत्पाट्य धर्ममत्रायत। सैषा स्थितिः यदा कलौ समुत्पन्ना बभूव तदा नीललोहितः भगवान् शिवः शङ्कररूपेण पुनः प्रकटीबभूव । भगवतः शङ्करस्य जन्मकाले वैदिकधर्मस्य हासः अवैदिकस्य प्राबल्यञ्चासीत्।
शब्दार्थ – दुष्कृताम् = दुष्टों का। आविर्बभूव = प्रकट हुए। विपथगामिनां = कुमार्ग पर चलनेवालों का। धर्मध्वंसिनः = धर्म के नाशकों का। अन्धतमित्रायां = घोर अँधेरी रात में। शर्म = सुख, कल्याण । उज्झित्वा = छोड़कर, तोड़कर ।
सन्दर्भ – प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य भारती’ के ‘आदिशंकराचार्यः ‘ शीर्षक पाठ से उधृत है।
हिंदी अनुवाद – यह भारत भूमि धन्य है जहाँ सज्जनों की रक्षा के लिए और पापियों के विनाश के लिए सृष्टि, पालन और विनाश करनेवाले परमात्मा ने स्वयं ही कभी राम और कृष्ण होकर अवतार लिया है। त्रेता युग में राम ने धनुष धारण कर विपरीत मार्ग पर चलनेवाले राक्षसों का संहार कर वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा की। द्वापर युग में कृष्ण ने धर्म का विनाश करनेवाले दुष्ट राजाओं को उखाड़कर धर्म की रक्षा की। वही स्थिति जब कलियुग में उत्पन्न हुई, तब नील-रक्तवर्णवाले भगवान् शिव शंकर के रूप में फिर प्रकट हुए। भगवान् शंकर के जन्म-काल में वैदिक धर्म का हास (कमी) और अवैदिक धर्म की प्रबलता थी।
Chapter 6 Adishankarachay षष्ठ: पाठ: आदिशंकराचार्य:
अशोकादिनृपतीनां राजबलमाश्रित्य पण्डितम्मन्याः साम्प्रदायिकाः वेदमूलं धर्मं तिरश्चक्रुः। लोकजीवनमन्धतमिस्रायां तस्यां मुहुर्मुहुर्मुह्यमानं क्षणमपि शर्म न लेभे । तस्यां विषमस्थितौ भगवान् शङ्करः प्रचण्डभास्कर इव उदियाय; देशव्यापिमोहमालिन्यमुज्झित्वा वैदिकधर्मस्य पुनः प्रतिष्ठां चकार।
हिंदी अनुवाद – अशोक आदि राजाओं के राजबल का सहारा लेकर अपने को पण्डित माननेवाले साम्प्रदायिक लोगों ने वेदमूलक धर्म का तिरस्कार किया। उस घोर अन्धकार में बार-बार डूबा हुआ मुग्ध लोक-जीवन क्षण भर भी सुख (कल्याण) नहीं पा सका। उस भयानक स्थिति में भगवान् शंकर तीव्र चमकनेवाले सूर्य की तरह उदित हुए और देश में व्याप्त मोह और मलिनता को छोड़कर वैदिक धर्म की फिर स्थापना की।
शङ्करः केरलप्रदेशे मालावारप्रान्ते पूर्णाख्यायाः नद्यास्तटे स्थिते शलकग्रामे अष्टाशीत्यधिके सप्तशततमे ईस्वीयाब्दे नम्बूद्रकुले जन्म लेभे । तस्य पितुर्नाम शिवगुरुरासीत् मातुश्च सुभद्रा । शैशवादेव शङ्करः अलौकिकप्रतिभासम्पन्न आसीत्। अष्टवर्षदेशीयः सन्नपि परममेधावी असौ वेदवेदाङ्गेषु प्रावीण्यमवाप।
शब्दार्थ – पूर्णाख्यायाः- पूर्ण नाम की। प्रावीण्य- निपुणता। आकलय्य -विचारकर । प्रव्रजितुम् = संन्यास लेने के लिए।
हिंदी अनुवाद – शंकर ने केरल प्रदेश में मालाबार प्रान्त में पूर्णा नामक नदी के किनारे स्थित शलक गाँव में सन् 780, ई० में नम्बूद्र कुल में जन्म लिया। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। बचपन से ही शंकर दिव्य प्रतिभा से युक्त थे। आठ वर्ष के होते हुए भी अत्यधिक बुद्धिमान् थे तथा इन्होंने वेद तथा वेदाङ्गों में निपुणता प्राप्त कर ली।
दुर्दैवात् बाल्यकाले एव तस्य पिता श्रीमान् शिवगुरुः पञ्चत्वमवाप । पितृवात्सल्यविरहितः मात्रैव लालितश्चासौ प्राक्तनसंस्कारवशात् जगतः मायामयत्वमाकलय्य तत्त्वसन्धाने मनश्चकार । प्ररूढवैराग्यप्रभावात् स प्रव्रजितुमियेष, परञ्च परमस्नेहनिर्भरा तदेकतनयाम्बा नानुज्ञां ददौ । लोकरीतिपरः शङ्करः मातुरनुज्ञां विना प्रव्रज्यामङ्गीकर्तुं न शशाक।
हिंदी अनुवाद – दुर्भाग्य से बचपन में ही उनके पिता श्रीमान् शिवगुरु स्वर्ग सिधार गये। पिता के प्रेम से रहित माता के द्वारा पाले गये उन्होंने पूर्वजन्म के संस्कार के कारण संसार के मायाजाल को छोड़कर तत्त्व की खोज में मन लगाया। उत्पन्न हुए वैराग्य के प्रभाव से उन्होंने संन्यास ग्रहण करने की इच्छा की, लेकिन अत्यन्त स्नेह से युक्त उस एक बेटे की माँ ने आज्ञा नहीं दी। संसार के रिवाज को माननेवाले शंकर माता की आज्ञा के बिना संन्यास न ग्रहण कर सके।
Chapter 6 Adishankarachay षष्ठ: पाठ: आदिशंकराचार्य:
एवं गच्छत्सु दिवसेषु एकदा शङ्करः पूर्णायां सरिति स्नातुं गतः । यावत् स सरितोऽन्तः प्रविष्टः तावदेव बलिना ग्राहेण गृहीतः। शङ्करः आसन्नं मृत्युमवेक्ष्य आर्तस्वरेण चुक्रोश। तस्य वत्सला जननी स्वपुत्रस्य स्वरं परिचीय भृशं विललाप। तस्याः तादृशीं विपन्नामवस्थामनुभूय स तस्यै न्यवेदयत्- अम्ब! यदि ते मम जीवितेऽनुरागः स्यात् तर्हि संन्यासाय मामनुजानीहि तेनैव मे ग्राहान्मुक्तिर्भविष्यति । अनन्यगतिः माता तथेत्युवाच।
शब्दार्थ – सरिति – नदी में। ग्राहेण मगरमच्छ ने। अवेक्ष्य आवाज से। चुक्रोश – रोया, चिल्लाया। वत्सला प्रेममयी। अम्ब – हे माता ! अनुजानीहि– अनुमति दे दो। अनन्यगतिः – देखकर। आर्तस्वरेण-दुःखभरी कोई तत्काल । यतिवेषधरः – ब्रह्मचारी का वेष धारण करनेवाला। को। प्रणीतवान = रचना की। पहचानकर। न्यवेदयत् – निवेदन और उपाय न होनेवाली। वनवीथिकासु = वन के मार्गों में। वाचम् = वाणी
हिंदी अनुवाद – दिन बीतते गये। एक दिन शंकर पूर्णा नदी में स्नान करने गया। जैसे ही वह नदी के अन्दर प्रविष्ट हुआ वैसे ही बलवान् मगरमच्छ ने उसे पकड़ लिया। शंकर मृत्यु को निकट देखकर दुःखभरी आवाज से रोया। उसकी प्रेममयी माता अपने पुत्र की आवाज को पहचानकर बहुत रोयी। उसकी इस प्रकार की दुःखी अवस्था का अनुभव करके उसने उससे निवेदन किया- हे माता ! यदि तुम्हें मेरे जीवन से अनुराग है तो मुझे संन्यास लेने के लिए अनुमति दे दो, उसी से मेरा ग्राह से छुटकारा होगा। कोई अन्य चारा न होने के कारण माता ने ‘ऐसा ही हो’ कह दिया।
सद्यस्तद्याहग्रहात् मुक्तः स संन्यासमालम्ब्य पुत्रविरहसन्तप्तां मातरं सान्त्वयित्वा तया बान्धवैश्चानुज्ञातः यतिवेषधरः स्वजन्मभूमिं त्यक्त्वा देशाटनितुं प्रवृत्तः । वनवीथिकासु परिभ्रमन् स क्वचित् गुहान्तर्वर्तिनं गौडपादशिष्यं गोविन्दपादान्तिकं जगाम । यतिवेषधारिणं तं गोविन्दपादः पप्रच्छ- ‘कोऽसि त्वम् भोः ?’ शङ्करः प्राह-
मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं श्रोत्रं न जिह्वा न च प्राणनेत्रम् ।
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्। ।
हिंदी अनुवाद – तत्काल ही वह उस मगरमच्छ के ग्रहण से मुक्त हो गया। उसने संन्यास ग्रहण करके पुत्र-विरह से संतप्त माता को सान्त्वना दी। उस (माता) तथा बान्धवों द्वारा अनुमति पाकर ब्रह्मचारी का वेष धारण करके वह अपनी जन्मभूमि को छोड़कर चला गया। उसने देश में भ्रमण करना आरम्भ कर दिया। वन के मार्गों में घूमता हुआ वह कहीं गुफा के अन्दर वर्तमान गौडपाद के शिष्य गोविन्दपाद के पास गया। यति का वेष धारण करनेवाले गोविन्दपाद ने उससे पूछा- ‘तुम कौन हो?’ शंकर ने कहा-
श्लोक का अर्थ – “मैं मन, बुद्धि, अहंकार या चित्त नहीं हूँ, न श्रोत्र हूँ, न जीभ हूँ, न प्राण हूँ, न नेत्र हूँ। न मैं आकाश हूँ न तेज (अग्नि) हूँ और न वायु हूँ। मैं तो चिदानन्द रूप शिव हूँ, शिव हूँ।”
Chapter 6 Adishankarachay षष्ठ: पाठ: आदिशंकराचार्य:
एतामलौकिकी वाचमुपश्रुत्य गोविन्दपादः तमसाधारणं जनं मत्वा तस्मै संन्यासदीक्षां ददौ। गुरोः गोविन्दपादादेव वेदान्ततत्त्वं विधिवदधीत्य स तत्वज्ञो बभूव । सृष्टिरहस्यमधिगम्य गुरोराज्ञया स वैदिकधमोंद्धरणार्थ दिग्विजयाय प्रस्थितः। ग्रामाद् ग्रामं नगरान्नगरमटन् विद्वद्भिश्च सह शास्त्रचर्चा कुर्वन् स काशीं प्राप्तः।काशीवासकाले स व्याससूत्राणामुपनिषदां श्रीमद्भगवद्गीतायाश्च भाष्याणि प्रणीतवान्।
इस अलौकिक वाणी को सुनकर गोविन्दपाद ने उसे असाधारण जन मानकर संन्यास की दीक्षा दे दी। गुरु गोविन्दपाद से ही वेदान्त तत्त्व को विधिवत् पढ़कर वह तत्त्वज्ञाता हो गया। सृष्टि के रहस्य को जानकर गुरु की आज्ञा से उसने वैदिक धर्म का उद्धार करने के लिए दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। एक गाँव से दूसरे गाँव को, एक नगर से दूसरे नगर को घूमते हुए और विद्वानों के साथ शास्त्र की चर्चा करते हुए वह काशी पहुँचा। काशीवास के समय उसने व्यास सूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की रचना की।
अथ कदाचित् काश्यां प्रथितयशसः विद्वद्धौरेयस्य मण्डनमिश्रस्य दर्शनलाभाय स मनश्चकार। तद्गृहमन्वेष्टुकामः काञ्चिद् धीवरीमपृच्छत् क्वास्ति मण्डनमिश्रस्य धामेति। सा धीवरी प्रत्यवदत्-
शब्दार्थ – प्रथितयशसः प्रसिद्ध यशवाले। विद्वद्धौरेयस्य महान् विद्वान्। गिरन्ति = बोलते हैं। नीडान्तरसन्निबद्धाः = घोंसले के अन्दर बन्द। अवेहि जानो । सुमेधासम्पन्ना = बुद्धिमती । प्रतिष्ठापिता = स्थापित की गयी। समुद्यता = तैयार ।
हिंदी अनुवाद – शंकराचार्य ने कभी काशी में प्रसिद्ध यशवाले महान् विद्वान् मण्डन मिश्र के दर्शन-लाभ का विचार किया। उनके घर का अन्वेषण करने की इच्छा से किसी धीवरी से पूछा कि मण्डन मिश्र का घर कहाँ है? उस धीवरी ने उत्तर दिया-
स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं कीराङ्गना यत्र गिरो गिरन्ति।
द्वारस्य नीडान्तरसन्निबद्धाः अवेहि तद्वाम हि मण्डनस्य ।।
श्लोक का अर्थ – “दरवाजे के घोंसले (पिंजरे) में बन्द शुकी (मादा तोते) जहाँ ‘स्वतः प्रमाण है या परतः प्रमाण है’ इस प्रकार की वाणी बोलते हैं, वही मण्डन मिश्र का घर समझिये।”
इति धीवरीवचनं श्रुत्वा शङ्करः मण्डनमिश्रस्य भवनं गतः। तयोर्मध्ये तत्र शास्त्रार्थोऽभवत्। निर्णायकपदे मण्डनमिश्रस्य सुमेधासम्पन्ना भार्या शारदा प्रतिष्ठापितासीत्। शास्त्रार्थे स्वस्वामिनः पराजयमसहमाना सा स्वयं तेन सह शास्त्रार्थ कर्तुं समुद्यताभवत्। सा शङ्करं कामशास्त्रीयान् प्रश्नान् पप्रच्छ। तान् दुरुत्तरान् प्रश्नान् श्रुत्वा स तूष्णीं बभूव । कियत्कालानन्तरं स परकायप्रवेशविद्यया कामशास्त्रज्ञो बभूव पुनश्च मण्डनपत्नीं शास्त्रार्थे पराजितवान्। जनश्रुतिरस्ति यत् स एव मण्डनमिश्रः आचार्यशङ्करस्य शिष्यत्वं स्वीचकार, सुरेश्वर इति नाम्ना प्रसिद्धिं च लेभे ।
हिंदी अनुवाद – इस प्रकार के धीवरी के वचन को सुनकर शंकर मण्डन मिश्र के घर गये। वहाँ उन दोनों में शास्त्रार्थ हुआ। निर्णायक के पद पर मण्डन मिश्र की अत्यन्त बुद्धिमती पत्नी शारदा को स्थापित किया गया। शास्त्रार्थ में अपने स्वामी की पराजय को सहन न करते हुए वह स्वयं उससे शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हो गयी। उसने शंकर से कामशास्त्र के प्रश्न पूछे। उन कठिन उत्तरवाले प्रश्नों को सुनकर वह चुप हो गया। कुछ काल के पश्चात् वह परकीय प्रवेश की विद्या से कामशास्त्रों का ज्ञाता हो गया। फिर उसने मण्डन मिश्र की पत्नी को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। जनश्रुति प्रसिद्ध है कि उसी मण्डन मिश्र ने आचार्य शंकर की शिष्यता स्वीकार की और सुरेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दिग्विजययात्राप्रसङ्गेनैव आचार्यप्रवरः प्रयागं प्राप्तः। तत्र वैदिकधमोंद्धरणाय सततं यतमानं कुमारिलभट्ट ददर्श। एकतः कुमारिलभट्टः वैदिकधर्मस्य कर्मकाण्डपक्षमाश्रित्य साम्प्रदायिकान् पराजितवान्, अपरतश्च श्रीमच्छङ्करः कर्मकाण्डस्य चित्तशुद्धिमात्रपर्यवसायिमाहात्म्यं स्वीकृत्यापि मोक्षे तस्य वैयर्थ्य प्रतिपादयामास। एवं कुमारिलसम्मतं मतमपि खण्डयित्वा स अज्ञाननिवृत्तये ज्ञानस्य महिमानं ख्यापयामास। तद् ज्ञानमेव मोक्षदायकं भवति इति ज्ञानकाण्डमेव वेदस्य निष्कृष्टार्थं इति शङ्करः अमन्यत।
शब्दार्थ – चित्तशुद्धिमात्रपर्यवसायि चित्त की शुद्धिमात्र उद्देश्यवाला। वैयर्थ्यम् = व्यर्थता । आसेतोः – सेतुबन्ध से लेकर। उत्पाटयामास उखाड़ फेंका। वैमत्यम्- मत भिन्नता।
हिंदी अनुवाद – दिग्विजय यात्रा के प्रसंग से ही आचार्य श्रेष्ठ (शंकर) प्रयाग गये। वहाँ वैदिक धर्म के उद्धार के लिए निरन्तर प्रयत्न करते हुए कुमारिल भट्ट को देखा। एक ओर कुमारिल भट्ट ने वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड के पक्ष का सहारा लेकर सम्प्रदायवादियों को पराजित किया, दूसरी ओर श्रीमान् शंकर ने कर्मकाण्ड के चित्त शुद्धिमात्र के उद्देश्य की महत्ता स्वीकार करके भी मोक्ष में उसकी व्यर्थता प्रतिपादित की। इस प्रकार कुमारिल के द्वारा मान्य मत का खण्डन करके भी उन्होंने अज्ञान को दूर करने के लिए ज्ञान की महिमा बतायी। ‘वह ज्ञान ही मोक्ष को देनेवाला होता है’ यह ज्ञानकाण्ड ही वेद का निष्कर्ष है, ऐसा शंकर मानते थे।
एवं शङ्करः आसेतोः कश्मीरपर्यन्तं समग्रदेशे परिवभ्राम, स्वकीययालौकिक्या बुद्ध्या च न केवलं विरोधिमतं समूलमुत्पाटयामास वरञ्च वैदिकधर्मानुयायिनां मध्ये तत्त्वस्वरूपमुद्दिश्य यद्वैमत्यमासीत् तस्यापि समन्वयः तेन समुपस्थापितः । अल्पीयस्येव वयसि महापुरुषोऽसौ चतुर्दिक्षु स्वकीर्तिकौमुदीं प्रसार्य द्वात्रिंशत्परमायुरन्ते केदारखण्डे स्वपार्थिवशरीरं त्यक्त्वा पुनः कैलासवासी बभूव।
हिंदी अनुवाद – इस प्रकार शंकर ने सेतुबन्ध से लेकर कश्मीर तक सम्पूर्ण देश में भ्रमण किया और अपनी असाधारण बुद्धि से केवल विरोधियों के मत को ही समूल नष्ट नहीं किया, वरन् वैदिक धर्म के माननेंवालों के मध्य में तत्त्वस्वरूप को लेकर जो मत की भिन्नता थी, उसका भी उन्होंने समन्वय स्थापित किया। थोड़ी-सी आयु में यह महापुरुष चारों दिशाओं में अपनी कीर्ति फैलाकर 32 वर्ष की आयु के अन्त में केदारखण्ड में अपने पार्थिव शरीर को छोड़कर पुनः कैलासवासी हो गये।
Chapter 6 Adishankarachay षष्ठ: पाठ: आदिशंकराचार्य:
शङ्कराविर्भावात् प्रागपि तत्रासन् व्यासवाल्मीकिप्रभृतयो बहवो मनीषिणः ये स्वप्रज्ञावैशारद्येन वैदिकधर्माभ्युदयाय प्रयतमाना आसन्। तेषु महर्षिव्यासप्रणीतानि ब्रह्मसूत्राण्यधिकृत्य श्रीमच्छङ्करेण शारीरकाख्यं भाष्यं प्रणीतम्। एवं व्यासमतमेवावलम्ब्य भाष्यकृता तेन वैदिकधर्मः पुनरुज्जीवितः। तस्य दार्शनिकमतमद्वैतमतमिति लोके प्रसिद्धमस्ति। स स्वयं प्रतिजानीते यत् वेदोपनिषत्सु सन्निहितं तत्वरूपमेव स निरूपयति नास्ति तत्र किञ्चित् तद्बुद्धिसमुद्भवम्।
शब्दार्थ – आविर्भावात् प्राक् = प्रकट होने से पहले। प्रभृतयः = इत्यादि । बोधव्यम् = जानना चाहिए। कार्पण्यम् = दीनता । विषीदति = दुःखी होती है। अनुसृत्य = अनुसरण कर। निर्धारयामास = निश्चित किया ।
हिंदी अनुवाद – शंकर की उत्पत्ति से पहले व्यास, वाल्मीकि इत्यादि बहुत-स मनाषा थ, जा अपना बुाद्ध की निपुणता से वैदिक धर्म के उत्थान के लिए प्रयत्नशील थे। उनमें महर्षि व्यास द्वारा रचित ब्रह्म सूत्रों को लेकर शंकर ने ‘शारीरिक’ नामक भाष्य की रचना की। इस प्रकार व्यास ने मत के आधार पर भाष्यकार वैदिक धर्म को फिर से जीवित किया। उनका दार्शनिक मत अद्वैत मत के नाम से संसार में प्रसिद्ध है। वह स्वयं प्रतिज्ञा करते हैं कि वेद और उपनिषदों में सन्निहित तत्त्वस्वरूप ही वह निरूपित करते हैं, उनमें कुछ भी उनकी बुद्धि की उपज नहीं है (बुद्धि से उत्पन्न नहीं है)।
तन्मतेन जगदतीतं सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्तदेव ब्रह्म इति बोद्धव्यम्। ब्रह्माधिष्ठाय मायाविकारः एव एष संसारः अस्ति। संसारसरणौ सुख-दुःखप्रवाहे उत्पीड्यमानो जीवो ब्रह्मैवास्ति। विभुर्भूत्वापि मायाजन्याज्ञानप्रभावात् सः आत्मनः कार्पण्यमनुभवति सन्ततं विषीदति च। एवं जीवब्रह्मक्यं प्रतिपाद्य स सकल जीवसाम्यं स्थापयामास । “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, नेह नानास्ति किञ्चन् यो वै भूमा तत्सुखम्” इति श्रुतीः अनुसृत्य शङ्करः वेदान्तत्तत्त्वस्वरूपं निर्धारयामास ।
हिंदी अनुवाद – उनके मत से संसार का अतीत सत्य ज्ञान जो अनन्त है, उसे ही ब्रह्म जानना चाहिए। ब्रह्म में अधिष्ठित माया विकार ही यह संसार है। संसार के मार्ग में सुख-दुःख के प्रवाह में उत्पीड़ित जीव-ब्रह्म ही है। ईश्वर होकर भी माया से उत्पन्न अज्ञान के प्रभाव से वह अपनी दीनता का अनुभव करता है और हमेशा दुःखी होता है। इस प्रकार जीव और ब्रह्म की एकता सिद्ध कर उन्होंने समस्त जीवों में समता स्थापित की। “एक होते हुए भी ब्राह्मण लोग उसे अनेक रूपवाला कहते हैं इस संसार में कुछ नहीं है, वही अनेक रूपों में व्याप्त है” इत्यादि श्रुतियों का अनुसरण कर शंकर ने वेदान्त तत्त्व के स्वरूप को निश्चित किया।
प्रतीयमानानेकरूपायाः सृष्टेः अधिष्ठानं ब्रह्म अद्वैतरूपमस्ति। एतदस्ति विश्वबन्धुत्वभावनायाः बीजम्।अस्याः भावनायाः पल्लवनेन न केवलं एकः राष्ट्रवृक्षः संवर्धते अपितु जातिक्षेत्रादिमूला उच्चावचभावरूपा संकीर्णता समूलोच्छिन्ना भवति। एतस्याः राष्ट्रियभावनायाः पुष्ट्यर्थं स स्वदेशस्य चतसृषु दिक्षु चतुर्णा वेदान्तपीठानां स्थापनाञ्चकार। मैसूरप्रदेशे शृङ्गेरीपीठं, पुर्या गोवर्धनपीठं, बदरिकाश्रमे ज्योतिष्पीठं, द्वारिकायाञ्च शारदापीठं साम्प्रतमपि राष्ट्रसमुन्नत्यै, लोकहितसाधनाय चाद्वैतमतस्य प्रचारे अहर्निशं प्रयतमानानि सन्ति।
शब्दार्थ – प्रतीयमाना = प्रतीत होनेवाली। अधिष्ठानम् = आधार या निवास-स्थान । ब्रह्म अद्वैत रूपम् = ब्रह्म अद्वैत रूप है अर्थात् एक रूप है। विश्ववन्धुत्वभावनायाः = विश्ववन्धुत्व की भावना का। बीजम् = मूल, जड़ । उच्चावचभावरूपा = ऊँच-नीच भाव रूपी । संकीर्णता = सीमितता । अहर्निशम् = दिन-रात । अनुक्षणम् = प्रतिक्षण । स्मारयन्ति – याद कराते हैं।
हिंदी अनुवाद – कल्पित अनेकरूपात्मक सृष्टि का आश्रय अद्वैत रूप (ब्रह्म) है। इस भावना के प्रसार से न केवल एक ही राष्ट्र रूपी वृक्ष बढ़ता है, अपितु (इसके द्वारा) जाति, स्थान और ऊँच-नीच से सम्बन्धित भावना भी समूल नष्ट हो जाती है। इस राष्ट्रीय भावना को पुष्ट करने के लिए उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार वेद पीठों की स्थापना की। मैसूर प्रदेश में शृंगेरी मठ, पुरी (जगन्नाथपुरी) में गोवर्धन पीठ, बदरिकाश्रम में ज्योतिष्पीठ तथा द्वारिका में शारदा मीठ । आज भी (ये पीठें) राष्ट्र की उन्नति, विश्व के कल्याण और अद्वैत के प्रचार के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हैं।
निष्कामकर्मयोगी शङ्करः यद्यपि अल्पायुरासीत् किन्तु तस्य कार्याणि, अत्युत्कृष्टभाष्यग्रन्थाः, अनेके मौलिकग्रन्थाः अद्वैतसिद्धान्तश्चैनम् अनुक्षणं स्मारयन्ति। धन्यः खल्वसौ महनीयकीर्तिः जगद्गुरुः भगवान् शङ्करः।
हिंदी अनुवाद – निष्काम कर्मयोगी शंकर यद्यपि अल्प आयु के ही थे, किन्तु उनके कार्य, उत्तम भाष्य (टीकाएँ), अनेक मौलिक पन्थ तथा अद्वैत सिद्धान्त उनकी प्रतिक्षण याद दिलाते हैं। पूजनीय, कीर्तिधारी जगद्गुरु भगवान् शंकर धन्य हैं।
आदिशंकराचार्यः [ पाठ का सारांश ]
यह भारतभूमि ऐसी है, जहाँ समय-समय पर दुष्कर्मियों के विनाश और सज्जनों की रक्षा के लिए राम-कृष्ण आदि के रूप में भगवान् अवतार लेते हैं। इस समय कलियुग में भी वैदिक धर्म की रक्षा के लिए भगवान् शिव शङ्कर के रूप में प्रकट हुए। इनके जन्म के समय अशोक आदि राजाओं के बल से लोग वेदमूलक धर्म का विनाश कर रहे थे। शंकर ने जन्म लेकर ‘वैदिक’ धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की।
शंकर केरल प्रदेश में मालाबार प्रान्त के पूर्णा नदी के किनारे शलक गाँव में नम्बूदरी वंश में पैदा हुए थे। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। ये बचपन से ही अलौकिक प्रतिभा वाले थे। आठ वर्ष की अवस्था में वेद-वेदांगों में निपुण हो गये थे। पिता की मृत्यु के बाद वे संन्यास लेना चाहते थे, किन्तु माता की आज्ञा बिना उन्होंने ऐसा नहीं किया।
एक दिन शंकर पूर्णा नदी में नहाने गये, जहाँ एक मगर ने उन्हें पकड़ लिया। इसके बाद रोती हुई माता को देखकर उन्होंने उससे संन्यास लेने की आज्ञा लेकर अपने को मगर से छुड़ा लिया और संन्यासी बन गये। इसके बाद स्वामी गोविन्ददास से उन्होंने दीक्षा ली। वेदान्त आदि का अध्ययन कर गुरु से आज्ञा लेकर वे वैदिक धर्म के उद्धार के लिए चल पड़े। काशी के प्रसिद्ध विद्वान् मण्डन मिश्र को उन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया। कुछ काल के पश्चात् वे परकीय प्रवेश की विद्या से कामशास्त्र के ज्ञाता हो गये। फिर मण्डन मिश्र की पत्नी शारदा को भी कामशास्त्र में हराया। बाद में मण्डन मिश्र उनके शिष्य बन गये।
दिग्विजय के प्रसंग में प्रयाग में उन्होंने कुमारिल भट्ट के मत का खण्डन कर शास्त्रार्थ में उसे हराया और सारे देश में वैदिक धर्म का प्रचार किया। उन्होंने अद्वैत मत का सर्वत्र प्रचार और प्रसार किया।
आदिशंकराचार्यः (बहुविकल्पीय प्रश्न)
नोट : प्रश्न-संख्या 1 एवं 2 गद्यांश पर आधारित प्रश्न हैं। गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और उत्तर का चयन करें।
शङ्करः केरलप्रदेशे मालावारप्रान्ते पूर्णाख्यायाः नद्यास्तटे स्थिते शलकग्रामे अष्टाशीत्यधिके सप्तशततमे खिष्टाब्दे नम्बूद्रिकुले जन्म लेभे । तस्य पितुर्नाम शिवगुरुरासीत् मातुश्च सुभद्रा । शैशवादेव शङ्करः अलौकिकप्रतिभासम्पन्न आसीत्। अष्टवर्षदेशीयः सन्नपि परममेधावी असौ वेदवेदाङ्गेषु प्रावीण्यमवाप। दुर्दैवात् बाल्यकाले एव तस्य पिता श्रीमान् शिवगुरुः पञ्चत्वमवाप। पितृवात्सल्यविरहितः मात्रैव लालितश्चासौ प्राक्तनसंस्कारवशात् जगतः मायामयत्वमाकलय्य तत्त्वसन्धाने मनश्चकार । प्ररूढवैराग्यप्रभावात् स प्रव्रजितुमियेषु, परञ्च परमस्नेहनिर्भरा तदेकतनयाम्बा नानुज्ञां ददौ। लोकरीतिपरः शङ्कर मातुरनुज्ञां विना प्रव्रज्यामङ्गीकर्तुं न शशाक।
1. आदिशंकराचार्यः कस्मिन् प्रदेशे जन्म अभवत् ?
(क) तमिलनाडु प्रदेशे
(ख) आन्ध्र प्रदेशे
(ग) केरल प्रदेशे
(घ) कर्नाटक प्रदेशे
उत्तर-(ग) केरल प्रदेशे
2. आदिशंकराचार्यस्य पितुः किम् नाम आसीत् ?
(क) शिवगुरुः
(ख) देवगुरुः
(ग) विष्णुगुरुः
(घ) ब्रह्मगुरुः
उत्तर- (क) शिवगुरुः
3. आदिशंकराचार्यस्य गुरोः किम् नाम आसीत् ?
(क) गौडपादः
(ख) गोविन्दपादः
(ग) देवपादः
(घ) नम्बूदरीपादः
उत्तर-(ख) गोविन्दपादः
4. आदिशंकराचार्यः कियन्तः वेदान्तपीठानां स्थापनाञ्चकार ?
(क) त्रयाणाम्
(ख) चतुर्णाम्
(ग) पञ्चानाम्
(घ) सप्तानाम्
उत्तर-(ख) चतुर्णाम्
5. शृङ्गेरी पीठ कुत्र अस्ति?
(क) उज्जैननगरे
(ख) द्वारिकापीठे
(ग) मैसूर प्रदेशे
(घ) प्रयागे
उत्तर-(ग) मैसूर प्रदेशे
6. आचार्य शङ्करस्य माता आसीत् –
(क) अम्बालिका
(ख) देवकी
(ग) आर्याम्बा
(घ) सीता
उत्तर- (ग) आर्याम्बा
7. आचार्य शङ्करस्य कया लालितः ?
(क) मात्रा
(ख) चित्रा
(ग) भ्राता
(घ) भगिन्या
उत्तर- (क) मात्रा
8. ‘स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणम्’ इति का अवदत् ?
(क) प्रज्ञा
(ख) मालिनी
(ग) सुभद्रा
(घ) धीवरी
उत्तर-(घ) धीवरी
9. ‘शिवोऽहम्’ इति कः उक्तवान् ?
(क) आर्याम्बा
(ख) शिवगुरुः
(ग) आचार्य शङ्करः
(घ) गोविन्दपादः
उत्तर-(ग) आचार्य शङ्करः
10. शङ्करः पूर्णानद्यां किमर्थं गतः ?
(क) पातुम्
(ख) स्नातुम्
(ग) सेवितुम्
(घ) द्रष्टुम्
उत्तर-(ख) स्नातुम्
11. वत्सला माता स्वपुत्रस्य किं परिचीय भृशं विलपति ?
(क) आकृतिं
(ख) मुखं
(ग) स्वरं
(घ) शरीरं
उत्तर-(ग) स्वरं
12. ‘सुरेश्वर’ इति नाम्ना कस्य प्रसिद्धिः अभवत् ?
(क) शङ्करस्य
(ख) मण्डनमिश्रस्य
(ग) देवदत्तस्य
(घ) सुभद्रायाः
उत्तर-(ख) मण्डनमिश्रस्य