Up Board Solution of Class 10 Sanskrit Chapter 5 – Karyam Va sadhyeyam… पञ्चमः पाठः – ‘कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’

Up Board Solution of Class 10 Sanskrit Chapter 5 – Karyam Va sadhyeyam… पञ्चमः पाठः – ‘कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’

Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 10 संस्कृत – UP Board Solution of Class 10 Sanskrit Chapter -5‘कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’  गद्य – भारती  in Hindi translation – हाईस्कूल परीक्षा हेतु  उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम।

Class 10 Sanskrit Chapter

Subject / विषयसंस्कृत (Sanskrit)
Class / कक्षा10th
Chapter( Lesson) / पाठChpter 5
Topic / टॉपिक‘कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’
Chapter NameKaryam vasadhyeyam deham va patyeyam 
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रमकम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन

पञ्चमः पाठः – ‘कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’
(या तो कार्य को सिद्ध करूँगा अथवा शरीर को नष्ट करूंगा)

[हिंदी सारांश – पण्डित अम्बिकादत्त व्यास द्वारा विरचित ‘शिवराज विजय’ संस्कृत का गौरवपूर्ण उपन्यास माना जाता है। इसमें छत्रपति शिवाजी के जीवन की गौरवमयी पृष्ठभूमि का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत अंश ‘शिवराज विजय’ के ‘चतुर्थनिश्वास’ से संग्रहीत है। शिवाजी का विश्वासपात्र अनुचर रघुवीर सिंह उनका गोपनीय आवश्यक पत्र लेकर अनेक कष्टों का सामना करते हुए सिंहदुर्ग से तोरणदुर्ग में प्रवेश करता है। अनुचर ने अपनी विश्वसनीयता का पूर्ण परिचय दिया है। प्रकृति उसके सम्मुख ऐसी भयंकर स्थिति उत्पन्न करती है कि वह आगे न बढ़ सके परन्तु उसने प्रतिज्ञा कर ली थी ‘कार्य वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्’। इस दृढ़ प्रतिज्ञा को पूरा करके ही उसे सन्तोष प्राप्त हुआ।।)

मूल पाठ

सन्दर्भ – प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य भारती’ के ‘कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

शिववीरस्य कोऽपि सेवकः श्रीरघुवीरसिंहः तस्यावश्यकं पत्रञ्चादाय महताक्लेशेन सिंहदुर्गात् तोरणदुर्ग प्रयाति। मासोऽयमाषाढस्यास्ति समयश्च सायम् अस्तं जिगमिषुर्भगवान् भास्करः, सिन्दूर-द्रव-स्नातानामिव वरुण- दिगवलम्बिनामरुण- वारिवाहानामभ्यन्तरं प्रविष्टः। कलविङ्काः नीडेषु प्रतिनिवर्तन्ते। वनानि प्रतिक्षणमधिकाधिकां श्यामतां कलयन्ति। अथाकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणिरिव प्रादुर्भूय समस्तं गगनतलं प्रावृणोत्।

शब्दार्थ जिगमिषुः = जाने की इच्छावाला। सिन्दूर-द्रवस्नातानामिव–  लाल जल से नहाये हुए की तरह से। वरुण-दिक् – पश्चिम दिशा। कलविङ्का- गौरैया। प्रादुर्भूय- उत्पन्न होकर । प्रावृणोत् – घेर लिया।

हिंदी अनुवाद-  शिववीर का कोई सेवक श्री रघुवीर सिंह उनके आवश्यक पत्र को लेकर बहुत कष्ट से तोरण दुर्ग के सिंहद्वार (मुख्य द्वार) से भीतरी द्वार पर जाता है। आषाढ़ का महीना है, शाम का समय है, अस्ताचल को जाने की इच्छावाला भगवान् सूर्य सिन्दूर के घोल से. नहाये हुए की तरह पश्चिम दिशा में स्थित समुद्र के भीतर प्रविष्ट हो गया। गौरैया (एक चिड़िया का नाम) घोंसलों में लौट रही हैं। जंगल प्रतिक्षण अधिक-से-अधिक काले होते जा रहे हैं (श्यामता को धारण कर रहे हैं), इसके बाद एकाएक चारों ओर बादलों की राशि ने पहाड़ की चोटी की तरह उत्पन्न होकर (उठकर) सारे आसमान को घेर लिया।

‘कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’

अस्मिन् समये एकः षोडशवर्षदेशीयो गौरो युवा हयेन पर्वतश्रेणीरुपर्युपरि गच्छति स्म। एष सुघटित-दृढ- शरीरः, श्यामश्यामैर्गुच्छगुच्छः कुञ्चितकुञ्चितैः कचकलापैः कमनीयकपोलपालिः, दूरागमनायास-वशेन- स्वेदबिन्दुव्रजेन समाच्छादित-ललाट-कपोलनासाग्रोत्तरोष्ठः, प्रसन्नवदनाम्भोजः, हरितोष्णीषशोभितः, हरितेनैव कञ्चुकेन प्रकटीकृत-व्यूढ-गूढचरता-कार्यः, कोऽपि शिववीरस्य विश्वासपात्रम्, सिंहदुर्गात् तस्यैव पत्रमादाय, तोरणदुर्ग प्रयाति स्म।

शब्दार्थ – हयेन – घोड़े से। कुञ्चित घुँघराले। कचकलापैः बालों से। स्वेदबिन्दुव्रजेन = पसीने की बूँदों के समूह से। समाच्छादित-ललाट-कपोलनासाग्रोत्तरोष्ठः मस्तक, गाल, नाक और ओंठों के ढके हुए। हरितोष्णीषशोभितः हरी पगड़ी से सुशोभित। प्रकटीकृतव्यूढगूढचरताकार्यः = कठिन गुप्तचर के कार्य को प्रकट करनेवाला।

हिंदी अनुवाद-  इस समय एक सोलह वर्ष का गोरा युवक घोड़े से पहाड़ की चोटियों के ऊपर-ही-ऊपर जा रहा था। यह हृष्ट-पुष्ट शरीरवाला, काले-काले गुच्छेदार बालों के समूह से सुन्दर मुखवाला, दूर से आने के कारण परिश्रम के पसीने की बूँदों से जिसका गाल, नाक और ऊपर का ओंठ अच्छी तरह ढका हुआ है, प्रसन्न मुखवाला, हरे रंग की पगड़ी से सुशोभित, हरे ही रंग के कवच से गम्भीर गुप्तचर के कार्य को प्रकट करनेवाला कोई शिवाजी का विश्वासपात्र सिंहदुर्ग से उन्हीं का पत्र लेकर तोरण दुर्ग में जा रहा था।

तावदकस्मादुत्थितो महान् झञ्झावातः। एकः सायं समयप्रयुक्तः स्वभाववृत्तोऽन्धकारः स च द्विगुणितो मेघमालाभिः। झञ्झावातोद्धूतै रेणुभिः शीर्णपत्रैः कुसुमपरागैः शुष्कपुष्पैश्च पुनरेष द्वैगुण्यं प्राप्तः। इहपर्वतश्रेणीतः पर्वतश्रेणीः, वनाद् वनानि, शिखराच्छिखराणि, प्रपातात् प्रपातान्, अधित्यकातोऽधित्यकाः, उपत्याकात उपत्यकाः, न कोऽपि सरलो मार्गः, पन्था अपि नावलोक्यते, क्षणे क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कणपाषाणखण्डेषु प्रस्खलन्ति, पदे पदे दोधूयमाना वृक्षशाखाः सम्मुखमाघ्नन्ति, परं दृढ संकल्पोऽयं सादी न स्वकार्याद् विरमति।

शब्दार्थ – झंझावातः = वर्षा सहित तूफान। द्विगुणितः दुगुना । द्वैगुण्यम् – दुगुनेपन को । शीर्णपत्रैः – टूटे हुए पत्तों से। प्रपातात् = निर्झर से। अधित्यकातः तलहटी से। नावलोक्यते दिखायी नहीं देता है।  चिक्कणपाषाणखण्डेषु – चिकने पत्थर के टुकड़ों पर। स्खलन्ति स्खलित होते हैं, रपटते हैं। दोधूयमाना हिलते हुए। आघ्नन्ति चोट करती हैं। सादी घुड़सवार। न विरमति नहीं रुकता है।

हिंदी अनुवाद-  उसी समय अचानक बड़ी तेज वर्षा और आँधी आयी। एक तो सन्ध्या समय होने के कारण स्वाभाविक रूप से ही अन्धकार घिरा हुआ था और वह (उस समय) मेघमालाओं (के घिरने) के कारण दुगुना हो गया था। वर्षा सहित आँधी से उड़ी हुई धूल, टूटे हुए पत्तों, फूलों के पराग और सूखे फूलों से वह और दुगुना हो गया था। (इस समय) यहाँ एक पर्वतश्रेणी से दूसरी पर्वतश्रेणी तक, एक वन से दूसरे वनों तक, एक चोटी से दूसरी चोटियों तक, एक झरने से दूसरे झरनों तक, पर्वत की एक घाटी से दूसरी घाटियों तक, पर्वत की एक तलहटी से दूसरी तलहटी तक जाने के लिए कोई सीधा मार्ग नहीं दिखायी दे’रहा है। क्षण-क्षण पर घोड़े के पैरों के खुर चिकने पत्थर के खण्डों पर फिसल रहे हैं। प्रत्येक पग पर तीव्रता से हिलती हुई वृक्षों की शाखाएँ सामने से लगकर चोट कर रही हैं। इतने पर भी दृढ़ संकल्पी वह घुड़सवार (रघुवीर सिंह) अपने कार्य से नहीं रुक रहा है।

‘कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’

कदाचित् किञ्चिद् भीत इव घोटकः पादाभ्यामुत्तिष्ठति, कदाचिच्चलन्नकस्मात् परिवर्तते, कदाचिदृत्प्लुत्य च गच्छति। परमेष वीरो वल्गां संभालयन्, मध्ये-मध्ये सैन्धवस्य स्कन्धौ कन्धराञ्च करतलेनऽऽस्फोटयन्, चुचुत्कारेण सान्त्वयंश्च न स्वकार्याद् विरमति । यावदेकस्यां दिशि नयने विक्षिपन्ती, कर्णी स्फोटयन्ती, अवलोचकान् कम्पयन्ती, वन्यांस्त्रासयन्ती, गगनं कर्त्तयन्ती, मेघान् सौवर्ण-कषयेवघ्नन्ती, अन्धकारमग्निना दहन्ती इव चपला चमत्करोति, तावदन्यस्यामपि दिशि ज्वालाजालेन बलाहकानावृणोति, स्फुरणोत्तरं स्फुरणंगर्जनोत्तरं उत्तरं गर्जनमिति परः शतः शतघ्नी-प्रचार-जन्येनेव, महाशब्देन पर्यपूर्यत साऽरण्यानी। परमधुनाऽपि ‘कार्य वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्’ इति कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीर-चरो न निजकार्यान्निवर्त्तते।

शब्दार्थ – घोटकः = घोड़ा। परिवर्त्तते लौट जाता है। उत्प्लुत्य उछलकर। वल्गाम् लगाम को। सैन्धवस्य – घोड़े के। स्कन्धौ दोनों कन्धों को। कन्धराञ्च गर्दन को। आस्फोटयन् = थपथपाता हुआ। चुचुत्कारेण – पुचकार से। विक्षिपन्ती चौंधियाती हुई। अवलोचकान् दर्शकों को। त्रासयन्ती – भयभीत करती हुई। कर्त्तयन्ती चीरती हुई। सौवर्णकषये सोने की चाबुक से। बलाहकान् बादलों को। आवृणोति – ढक लेती है। परः शत सैकड़ों। शतघ्नी तोपें । अरण्यानी – वन।

हिंदी अनुवाद- 

कभी कुछ डरे हुए के समान घोड़ा दोनों पैरों से खड़ा हो जाता है, कभी चलता हुआ अचानक लौट पड़ता है और कभी कूद-कूदकर जाता है, परन्तु यह वीर लगाम को पकड़े हुए बीच-बीच में घोड़े के दोनों कन्धों और गर्दन को हाथ से थपथपाता हुआ, पुचकार से सान्त्वना देता हुआ अपने कार्य से नहीं रुकता है। जब तक एक दिशा में नेत्रों को चौंधियाती हुई, कानों को फोड़ती हुई, दर्शकों को कँपाती हुई, जंगली जीवों को भयभीत करती हुई, आकाश को चीरती हुई, बादलों को सोने की चाबुक से मानो पीटती हुई, अन्धकार को अग्नि से जलाती हुई-सी बिजली चमकती है, तब तक दूसरी दिशा में भी बादलों को ज्वाला के समूह से ढक लेती है। चमक के बाद चमक, गर्जना के बाद गर्जना, इस प्रकार सैकड़ों से अधिक तोपों के चलने से उत्पन्न हुए के समान घोर शब्द से वह वन भर गया, परन्तु अभी ‘या तो कार्य को पूरा करूँगा, या शरीर को नष्ट कर दूँगा’ इस प्रकार प्रतिज्ञावाला वह वीर शिवाजी का दूत अपने कार्य से नहीं लौटता है।

 यस्याध्यक्षः स्वयं परिश्रमी, कथं स न स्यात् स्वयं परिश्रमी ? यस्य प्रभुः स्वयं अद्भुतसाहसः, कथं स न भवेत् स्वयं तथा? यस्य स्वामी स्वयमापदो न गणयति, कथं स गणयेदापदः? यस्य च महाराजः स्वयंसङ्कल्पितं निश्चयेन साधयति, कथं स च साधयेत् स्व-संकल्पितम् ? अस्त्येष महाराज शिववीरस्य दयापात्रं चरः, तत्कथमेषः झञ्झा-विभीषिकाभिर्विभीषितः प्रभु-कार्य विगणयेत् ? तदितोऽप्येष तथैव त्वरितमश्वं चालयंश्चलति।

शब्दार्थ – न गणयति परवाह नहीं करता। विभीषिका = भय ।

हिंदी अनुवाद- जिसका अध्यक्ष स्वयं परिश्रमी हो, वह स्वयं परिश्रमी क्यों न हो? जिसका प्रभु स्वयं अद्भुत साहसवाला हो, वह स्वयं वैसा क्यों न हो? जिसका स्वामी स्वयं आपत्तियों की परवाह न करता हो, वह आपत्तियों की परवाह क्यों करे? जिसका महाराज स्वयं अपने संकल्पित कार्य को निश्चय से सिद्ध करता है, वह अपने संकल्प को पूरा क्यों न करे? महाराज शिववीर का यह दयापात्र गुप्तचर है, तब यह कैसे आँधी-तूफान की. विभीषिकाओं से डरकर अपने स्वामी के कार्य की लापरवाही कर दे? इसलिए इधर भी उसी प्रकार तेजी से घोड़े को चलाते हुए चल रहा है।

    कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम् [ पाठ का सारांश ]

रघुवीर सिंह का परिचय – रघुवीर सिंह शिवाजी का विश्वासपात्र सेवक है। वह उनका आवश्यक गोपनीय पत्र लेकर सिंह दुर्ग से तोरण दुर्ग की ओर जा रहा है।

गमन-समय एवं वेशभूषा – आषाढ़ मास में सायं समय सूर्य अस्त होने ही वाला था। पक्षी अपने घोंसलों में लौट रहे थे। अचानक आकाश में बादल छा गये। उस समय कोई गौर शरीर युवा शिववीर का विश्वासपात्र अनुचर रघुवीर सिंह उनका आवश्यक पत्र लेकर सिंहदुर्ग से घोड़े पर तोरण दुर्ग जा रहा था। उसका सुगठित गौर शरीर, काले बाल थे। वह प्रसन्नमुख, हरा कुर्ता और हरी पगड़ी पहने जा रहा था।

मौसम का प्रतिकूल होना – उसी समय अचानक तेज वर्षा और आँधी आयी। काले बादलों से शाम के समय में अंधकार दुगुना हो गया था। धूल और पत्ते उड़ गये थे। पर्वतों, वनों, ऊँचे शिखरों, झरनों का मार्ग सूझ नहीं रहा था। उसका घोड़ा क्षण-प्रतिक्षण चिकनी चट्टानों पर फिसल जाता था। वृक्षों की शाखाओं से ताड़ित होता हुआ दृढ़-संकल्पी वही घुड़सवार अपने काम से नहीं रुक रहा था।

कर्त्तव्य-परायणता – कभी उसका घोड़ा डरकर दोनों पैरों पर खड़ा हो जाता था, कभी लौट पड़ता था तथा कभी कूद-कूदकर दौड़ने लगता था, परन्तु यह वीर लगाम हाथ में पकड़े घोड़े के कन्धों और गर्दन को हाथ से थपथपाता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। एक ओर आँखों में चकाचौंध पैदा करनेवाली, दर्शकों को कँपाती हुई, आकाश को चीरती हुई बिजली चमक रही थी, दूसरी ओर सैकड़ों तोपों के समान घोर शब्द जंगल में गूँज रहा था। परन्तु ‘या तो कार्य पूरा करके रहूँगा या मर मिटूंगा’ यह प्रतिज्ञा करता हुआ वह अपने कार्य से लौट नहीं रहा था।

अपने स्वामी से प्रेरित – जिसका स्वामी परिश्रमी, अद्भुत साहसी, विपत्तियों में धैर्यशाली और दृढ़-संकल्पी हो, उसका विश्वासपात्र सेवक फिर वैसा परिश्रमी, साहसी, वीर और दृढ़ संकल्पी क्यों न हो? वह आँधी-तूफान और तेज वर्षा में अपने स्वामी के कार्य की कैसे उपेक्षा कर सकता है? यह सोचता हुआ घोड़े से तेज दौड़ता हुआ चला जा रहा था।

 

          कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम् (Bahuviklpiy Question and Answers)

नोट : प्रश्न-संख्या 1 एवं 2 गद्यांश पर आधारित प्रश्न हैं। गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और उत्तर का चयन करें। शिववीरस्य कोऽपि सेवकः श्रीरघुवीरसिंहः तस्यावश्यकं पत्रञ्चादाय महताक्लेशेन सिंहदुर्गात् तोरणदुर्गं प्रयाति । मासोऽयमाषाढस्यांस्ति समयश्च सायम् अस्तं जिगमिषुर्भगवान् भास्करः, सिन्दूर-द्रव-स्नातानामिव वरुण-दिगवलम्बिनामरुण- वारिवाहानामभ्यन्तरं प्रविष्टः। कलविङ्काः नीडेषु प्रतिनिवर्तन्ते। वनानि प्रतिक्षणमधिकाधिकां श्यामतां कलयन्ति। अथाकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणिरिव प्रादुर्भूय समस्तं गगनत्लं प्रावृणोत् ।

1. श्रीरघुवीरसिंहः कस्य सेवकः अस्ति?

(क) शिववीरस्य

(ख) बलवीरस्य

(ग) रणवीरस्य

(घ) रामवीरस्य

उत्तर- (क) शिववीरस्य

2. केन नीडेषु प्रतिनिवर्तन्ते ?

(क) कपोताः

(ख) कलविङ्काः

(ग) मयूराः

(घ) सारिकाः

उत्तर-(ख) कलविङ्काः

अथवा

कदाचित् किञ्चिद् भीत इव घोटकः पादाभ्यामुत्तिष्ठति, कदाचिच्चलन्नकस्मात् परिवर्तते, कदाचिदुत्प्लुत्य च गच्छति। परमेष वीरो वल्गां संभालयन्, मध्ये- मध्ये सैन्धवस्य स्कन्धौ कन्धराञ्च करतलेनऽऽस्फोटयन्, चुचुत्कारेण सान्त्वयंश्च न स्वकार्याद् विरमति ।

3. कः भीतः अस्ति?

(क) शिववीरः

(ख) श्रीरघुवीरसिंहः

(ग) शत्रुः

(घ) घोटकः

उत्तर-(घ) घोटकः

4. एकः वीरः सैन्धवस्य स्कन्धौ कन्धरांच केन आस्फोटयति?

(क) करतलेन

(ख) करवस्त्रेण

(ग) पादतलेन

(घ) न केनापि

उत्तर-(क) करतलेन

5. ‘बल्गा’ इति शब्दस्य हिन्दीभाषायां कः अर्थ?

(क) लगाम

(ख) रस्सी

(ग) सांकल

(घ) चाबुक

उत्तर-(क) लगाम

6. श्रीरघुवीरसिंहः कस्मात् दुर्गात् तोरणदुर्गं प्रयाति ?

(क) आमेरदुर्गात्

(ख) चित्तौड़दुर्गात्

(ग) जयपुरदुर्गात्

(घ) सिंहदुर्गात्

उत्तर-(घ) सिंहदुर्गात्

7. श्रीरघुवीरसिंह शिववीरस्य कीदृशः सेवकः ?

(क) आरक्षकः

(ख) गुप्तचरः

(ग) दुर्गपालः

(घ) सेनापतिः

उत्तर-(ख) गुप्तचरः

8. कस्य सेवकः श्रीरघुवीरसिंहः अस्ति?

(क) महावीरस्य

(ख) रणवीरस्य

(ग) शिववीरस्य

(घ) न कस्यापि

उत्तर-(ग) शिववीरस्य

9. कः स्वसङ्कल्पितं निश्चयेन साधयति ?

(क) महाराजः

(ख) सेनापतिः

(ग) भृत्यः

(घ) न कोऽपि

उत्तर- (क) महाराजः

10 . केन पर्यपूर्यत साऽरण्यानी ?

(क) अश्वघोषेण

(ख) महाशब्देन

(ग) झञ्झावातेन

(घ) न केनापि

उत्तर-(ख) महाशब्देन

 

error: Content is protected !!