UP Board Class 10 sanskrit Chapter 9 Jivanam Nihitam Vane जीवनं निहितं वने – (संस्कृत गद्य भारती)

UP Board Class 10 sanskrit Chapter 9 Jivanam Nihitam Vane जीवनं निहितं वने – (संस्कृत गद्य भारती)

Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 10 संस्कृत – UP Board Solution of Class 10 Sanskrit Chapter 9 , जीवनं निहितं वने (jivanam nihitam vane )   गद्य – भारती  in Hindi translation – हाईस्कूल परीक्षा हेतु  उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम।

Class 10 Sanskrit Chapter

Subject / विषयसंस्कृत (Sanskrit)
Class / कक्षा10th
Chapter( Lesson) / पाठChpter -9
Topic / टॉपिकजीवनं निहितं वने
Chapter NameJeevanam Nihitam Vane
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रमकम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन

वनमितिशब्दः श्रुतमात्र एवं कमपि दरमादरं वा मनसि कुरुते । तत्र सिंहव्याघ्रादयो भयानका हिंस्रकाः पशवोऽजगरादयो विशालश्च सरीसृपाः वसन्ति, निर्जनता तु तादृशी यत्तच्छायायामापदि निपतितस्य जनस्य आर्तः स्वरो मानवकणें प्रविशेदिति घुणाक्षरीयैव सम्भावना, प्रायशस्तु स वनगहन एव विलीयेतेति नियतिः। एतां स्थितिमेव विबोध्य संस्कृते मनीषिभिररण्यरोदनन्याय उद्भवितः। सत्यमेव स्थितिमेतामनुस्मृत्यापि भिया वपुष्येकपदे एव रोमाञ्चो जायते।

शब्दार्थ श्रुतमात्र = सुनने मात्र से। दरमादरं = भय और सम्मान । सरीसृपाः = रेंगनेवाले प्राणी। आर्ताः -करुण । घुणाक्षरीया = संयोग से । विबोध्य = जानकर । उद्भवितः = कल्पना की गयी। एकपदे = तुरन्त । प्रत्युत = बल्कि । दायः = भाग । उत्क्रान्तम् = प्रकट हुआ। प्राक्तनैः = प्राचीनों के द्वारा । अजर्यं = अजीर्णता ।

सन्दर्भ – प्रस्तुतं गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य भारती’ के ‘जीवनं निहितं वने’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।.

हिंदी अनुवाद – वन शब्द सुनने मात्र से कोई भय और आदर का भाव मन में उत्पन्न हो जाता है। वहाँ सिंह, बाघ आदि हिंसक भयानक पशु, अजगर आदि विशाल रेंगनेवाले जीव (साँप आदि) रहते हैं। निर्जनता (सन्नाटा) तो ऐसी होती है कि छाया में भी विपत्ति में पड़े हुए आदमी का करुण स्वर मनुष्य के कान में घुस जाय, इस प्रकार संयोग से ही सम्भावना होती है और वह प्रायः घने जंगल में ही विलीन हो जाय, यह भाग्य है। इसी स्थिति को समझकर संस्कृत में विद्वानों ने ‘अरण्य-रोदन’ न्याय की कल्पना की। सचमुच ही इस स्थिति को स्मरण कर भय से शरीर में एक तत्काल रोमांच (रोएँ खड़ा होना) हो जाता है।

परन्त्वस्माकं न केवलं भौतिके प्रत्युत सांस्कृतिकोऽपि विकासे वनानां सुमहान् दायो यत आरण्यकोपनिषदादयः पराविद्याविवेचका ग्रन्थाः वनेष्वेवाविर्भूताः। वनस्थेषु तपोवनेष्वेव दशलक्षणात्मको मानवधर्मश्चतुष्टयात्मकं जीवनोद्देश्यं च उत्क्रान्तमितीतिहासः सुतरां प्रमाणयति तस्मात् वनेष्वस्माकमादरोऽपि भवति। प्राक्तनैस्तु वनं विना जीवनमेव न परिकल्पितं संस्कृतकवीनां वनदेवताकल्पना वानप्रस्थाश्रमे च वननिवासविधानं तदेव सङ्केतयति । एतदपि बोध्यं यत् प्रत्यक्षतो वनानि मनुजजात्यै यावद् ददति परोक्षतस्तु ततोऽप्यधिकम्, तस्मादेव कारणात् प्राञ्चः स्वपुत्रकानिव पादपान् पालयन्ति स्म जन्तूंश्च रक्षन्ति स्म, अजर्यं तेषां तैः सङ्गतमासीत्।

हिंदी अनुवाद –परन्तु न केवल हमारे भौतिक विकास में बल्कि सांस्कृतिक विकास में भी वनों का बहुत बड़ा हिस्सा है, क्योंकि आरण्यक उपनिषद् आदि पराविद्या (मोक्षदेनेवाली) के विवेचन करनेवाले ग्रन्थ वनों, में ही उत्पन्न हुए हैं। वनों में स्थित तपोवनों में ही दस लक्षणयाले मानव धर्म तथा चार प्रकार के जीवन का उद्देश्य आविर्भूत हुआ, ऐसा इतिहास निरन्तर प्रमाणित करता है। इसी से हमारे यहाँ वनों का सम्मान होता है। प्राचीन काल में लोग तो वन के बिना देवता की कल्पना ही नहीं करते थे और वानप्रस्थ आश्रम में वन में निवास का विधान भी यही संकेत करता है। यह भी जानना चाहिए कि वन प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य जाति के लिए जितना देते हैं, परोक्ष रूप में उससे भी अधिक (देते हैं) इस कारण से प्राचीन लोग अपने पुत्रों की तरह पेड़ों को सँभालते थे और जीवों की रक्षा करते थे, उनकी अज़ीर्णता उनके साथ थी।

किन्तु हन्त! निरन्तरविवर्धितसंख्यो विवृद्धलोभो मानवस्तात्कालिकाल्पलाभहेतोर्विचारमूढतया वनानि तथा अचीकृन्तत् चङ्कृन्तति च यत्तस्य निजजीवनस्यैव नैकधा भीरुपस्थिता। जानात्येव लोको यज्जीवनमन्नमयम्, अन्नं च कृष्योत्पाद्यम्, कृषिविकासार्थ समुचितं वातावरणं घटयितुं प्राकृतिकं सामञ्जस्यं च रक्षितुं वनानामद्यत्वे यादृश्यावश्यकता न तादृशी क्वापि पुराऽन्वभूयत्। यतोऽहर्निशं विद्यमानानां वनानां तावानेवांशोऽविशिष्टः यावान् भारतभूभागस्य प्रतिशतं केवलमेकादशमंशमावृणोति, तत्राप्युत्कृष्टवनानि तु प्रतिशतं चतुरंशात्मकान्येव। भद्रमिदं यदधुना विश्वस्य सर्वेष्वपि राष्ट्रेषु वनानां रक्षार्थ प्रयासाः क्रियन्ते। भारतेऽपि सर्वकारेण तदर्थं जनं प्रबोधयितुमेकमान्दोलनमेव चालितं यदधीनं समय-समये नैकत्र वनमहोत्सवा आयोज्यन्ते, व्यक्तयः सार्वजनीनाः संस्थाश्चापि वृक्षान् रोपयितुं प्रोत्साह्यन्ते।

शब्दार्थ – विवृद्धलोभः बढ़ती हुई लालचवाला। अचीकृन्तत् काट डाला। चङ्कृन्तति = काट रहा है। नैकधा = अनेक बार। आवृणोति घेरता है। भद्रम् अच्छा, कल्याणकारी।

हिंदी अनुवाद –– किन्तु खेद है कि लगातार बढ़ती हुई संख्यावाला अति लोभी मनुष्य ने तुरन्त थोड़े से लाभ के लिए मूर्खतावश वनों को ऐसा काट डाला, और काट रहा है कि उसके अपने जीवन को अनेक भय उपस्थित हो गया। सभी लोग जानते हैं कि जीवन अन्नमय है और अन्न खेती से पैदा होता है, खेती के विकास के लिए, समुचित वातावरण बनाने के लिए और प्राकृतिक सन्तुलन की रक्षा के लिए वनों की आजकल जैसी आवश्यकता है, वैसी पहले कभी भी कहीं भी अनुभव नहीं की जाती थी। क्योंकि दिन-रात वर्तमान रहनेवाले वनों का उतना ही भाग बचा हुआ है जितना भारतभूमि का केवल ग्यारह प्रतिशत भाग को घेर सकता है, उसमें भी उत्तम जंगल – तो चार प्रतिशत भाग को ही (घेरते हैं) अच्छा यह है कि संसार के सभी राष्ट्रों में वनों की रक्षा के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। भारत में भी सब प्रकार से उसके लिए लोगों को बताने के लिए एक आन्दोलन भी चलाया गया, जिसके अन्तर्गत समय-समय पर अनेक स्थानों पर वन महोत्सव आयोजित किये जाते हैं और जनता के लोग तथा सार्वजनिक संस्थाएँ भी वृक्षों को लगाने (वृक्षारोपण) के लिए विशेष रूप से उत्साहित किये जाते हैं।

वनसंघटकास्तावद् द्विविधा वनस्पतयः सविहगा जन्तवश्च, उभयस्मादपि मानवस्य लाभस्तद् द्वयमपि च यथायोग्यं रक्षणीयम्। वृक्षेभ्यो न केवलं फलानि, पुष्पाणि, इन्धनार्हाणि भवनयोग्यानि च काष्ठानि अपितु भैषज्यसमुचितानि नानाप्रकाराणि वल्कलमूलपत्राणि वस्तून्यपि लभ्यन्ते, नानाविधौद्योगिकोत्पादन समुचितानि जतूनि, तैलानि, तदितरद्रवपदार्थाचापि प्राप्यन्ते। स्वास्थ्यकरं मधुरं सुस्वादु औषधभोजनं मधु अपि वनस्पतिभ्यः एवोपलभ्यते। कर्गदस्येव नाइलोन इति प्रसिद्धस्य उत्तमपटनिर्मितिप्रयुक्तस्य सूत्रस्योत्पादनेऽपि वृक्षविशेषाणां काष्ठमुपादानं जायते।

शब्दार्थ-वनसंघटकाः वनों की रचना करनेवाले। उभयस्माद् – दोनों से। इन्धनार्हाणि = ईंधन के योग्य । भैषज्य = दवा । वल्कलमूलपत्राणि छाल व जड़ें और पत्ते। जतूनि = लाख-लाख । कर्गदस्य = कागज का। मञ्जूषा = सन्दूक । रज्जवः = रस्सियाँ। कटाः चटाई। अविचारितकर्तनम् – बिना समझे काटना। कर्तनावरोधः = काटने की रुकावट।

हिंदी अनुवाद –– वनों की संरचना दो प्रकार से होती है, वनस्पतियाँ और पशु-पक्षी (उसमें सहायक होते हैं)। दोनों से ही मनुष्य का लाभ है, दोनों ही उचित रूप से रक्षा करने योग्य हैं। वृक्षों से न केवल फल-फूल, ईंधन के योग्य तथा मकान बनाने योग्य लकड़ियाँ, बल्कि ओपधि के लिए उपयुक्त अनेक प्रकार की छाल, जड़ें, पत्र आदि वस्तुएँ भी मिलती हैं। अनेक प्रकार के औद्योगिक उत्पादन के योग्य लाख, तेल, उनके अतिरिक्त द्रव पदार्थ भी मिलते हैं। स्वास्थ्यवर्द्धक मधुर स्वादिष्ट ओषधि भोजन शहद भी वनस्पतियों से प्राप्त होता है। कागज की तरह ‘नायलोन’ नाम से प्रसिद्ध अच्छे कपड़े बनाने के उपयोग में आनेवाले सूत के उत्पादन में भी वृक्ष-विशेष की लकड़ी सामग्री रूप में प्रयुक्त होती है।

तेषां शाखानामुपयोगो मञ्जूषापेटिकादिनिर्माणे क्रियते। रज्जवः कटाश्चापि वानस्पतिकमुत्पादनमिति कस्याविदितम् ? एवंविधस्य वनस्पतिसमूहस्य अविचारितकर्तनं न केवलं कृतघ्नता अपितु ब्रह्महत्येव महापातकमपि। संप्रति यावद् वनानां या हानिः कृता तत्पूर्त्यर्थ हरितवृक्षाणां कर्तनावरोधो नूतनानां प्रतिदिनमधिकाधिकारोपश्च सर्वेषामपि राष्ट्रियं कर्तव्यम्। वायुशुद्धिः, भूक्षरणनिरोधः पर्जन्यसाहाय्यं च वनानां मानवस्य जीवनप्रदः परोक्ष उपकारः।

हिंदी अनुवाद – उनकी शाखाओं का उपयोग सन्दूक, पेटी आदि के निर्माण में किया जाता है। कौन नहीं जानता कि रस्सी, चटाई आदि वनस्पतियों से ही बनती हैं। इस प्रकार की वनस्पतियों को बिना सोचे-समझे काटना, केवल कृतघ्नता ही नहीं, बल्कि ब्रह्महत्या की तरह महान् पाप है। इस समय अब तक वनों की जो हानि की गयी है, उसकी पूर्ति के लिए हरे वृक्षों को काटने पर रोक तथा प्रतिदिन नये पेड़ों को अधिक-से-अधिक लगाना – सभी का राष्ट्रीय कर्तव्य है। वायु की शुद्धि, भूमि कटाव को रोकना तथा बादल बनने में सहायता करना, वनों का मनुष्य को जीवन देनेवाला अप्रत्यक्ष उपकार है।


यथा वृक्षाणामुच्छेदस्तथैव मानवेन वन्यजन्तूनामप्यमानवीयो विनाश आचरितः। चर्मदन्तपक्षादिलोभेन मांसलौल्येन च पशुपक्षिणां तावान् वधः कृतो यदनेकास्तेषां प्रजातयो भूतलाद् विलुप्ताः, नैकाश्च लुप्तप्रायाः। सिंहव्याघ्रादीनां तु दूर एवास्तां कथा, हरिणादिमुग्धपशून् तित्तिरादिकान् उपयोगिनः पक्षिणोऽपि निघ्नन्नासौ विरमति। हिंस्रकाः जन्तवोऽपि प्राकृतिकं संतुलनं रक्षन्ति मनुष्यस्य चोपकारका एव भवन्ति।

शब्दार्थ – मांसलौल्येन मांस के लालच से। निघ्नन् = मारने में।

हिंदी अनुवाद –– मनुष्य ने जिस प्रकार वृक्षों को काटा, उसी प्रकार वन के जीव-जन्तुओं को समाप्त कर अमानवीय आचरण किया। खाल, दाँत, पंख आदि के लोभ से और मांस की लोलुपता के कारण पशु-पक्षियों का तब तक वध किया जब तक उनमें से अनेक जातियों का पृथ्वी से लोप न हो गया। सिंह, व्याघ्र आदि की बात तो अलग रही, हिरण आदि भोले पशु तथा तीतर आदि उपयोगी पक्षियों को भी मारने से भी मानव नहीं रुकता। हिंसक जानवर भी प्राकृतिक सन्तुलन की रक्षा करते हैं और मनुष्य के उपकारक ही होते हैं।

 

पक्षिणः कृषिहानिकरान् कीटान् भक्षयन्ति यथा तित्तिरः सितपिपीलिकाः तथैव सिंहादयाः पशून् हत्वा परिसीमयन्ति। एवं स्वतः एव प्रकृतिः स्वयं संतुलनं साधयति। एवमद्यानुभूयते यत् मनुष्यस्य तदितरेषां प्राणिनां च मध्ये सौहार्द स्थापनीयम्। तत्र मनुष्य एव प्रथमं प्रबोधनीयः शिक्षणीयश्च यतः स निरर्थकं मनोरञ्जनायापि मृगयां क्रीडन् हिंसां करोति ।अस्माकं विशाले भारतवर्षे सार्धद्वादशशतजातीयाः पक्षिणः प्राप्यन्ते। तेषु बहवः ऋतुपरिवर्तनकारणात्, प्रजननहेतोभोंजनस्य दुष्षाप्यत्वात् काले काले परत्र व्रजन्ति। 

शब्दार्थ – सितपिपीलिकाः सफेद चींटी, दीमक। परिसीमयन्ति सीमित कर देते हैं। प्रबोधनीयः = जगाना चाहिए। प्रजननहेतोः सन्तान उत्पत्ति के लिए। परत्र अन्य देशों में।

हिंदी अनुवाद –– पक्षी खेती को हानि पहुँचानेवाले कीड़ों को खाते हैं, जैसे तीतर दीमक को खा जाते हैं। इसी प्रकार सिंह आदि भी पशुओं को मारकर उन्हें परिसीमित करते हैं। इस प्रकार प्रकृति अपना सन्तुलन आप ही करती रहती है। इस प्रकार आज अनुभव किया जा रहा है कि मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में सौहार्द (मित्रता, सद्भाव) स्थापित करना चाहिए। उनमें सबसे पहले मनुष्य को ही जगाना तथा शिक्षा देनी चाहिए, क्योंकि वह निरर्थक मनोरञ्जन के लिए भी शिकार खेलता हुआ हिंसा करता है। हमारे विशाल भारतवर्ष में साढ़े बारह सौ जाति के पक्षी पाये जाते हैं। उनमें से बहुत-से तो ऋतु परिवर्तन के कारण सन्तानोत्पत्ति के लिए तथा भोजन दुर्लभ हो जाने के कारण समय-समय पर दूसरे देशों को चले जाते हैं।

 

एवमेव देशान्तरादपि बहवः पक्षिणोऽत्रागत्य प्रवासं कुर्वन्ति। रूसप्रदेशस्य साइबेरियाप्रान्तात् सहस्रशो विहगाः शीतकाले ‘भारतस्य भरतपुरनिकटस्थे घानापक्षिविहारम् आगच्छन्ति। पक्षिणां मैत्रीभावः, दाम्पत्यम्, मिथो व्यापाराः, भोजनविधयः, नीडनिर्माणम् विपदि आचरणम् सर्वमपि प्रेक्षं प्रेक्षमध्येयं भवति तन्न केवलं मनोरञ्जकमपि तु शिक्षाप्रदमात्मानन्दजनकं चापि ‘भवति।

शब्दार्थ – विहगानुवीक्षकः पक्षियों पर अनुसन्धान करनेवाला। तृणाय = तिनके के समान तुच्छ । विच्छेदिष्यमाणवृक्षान् काटे जानेवाले वृक्षों को। जल्पद्भिः कहते हुए।

हिंदी अनुवाद –– इसी प्रकार दूसरे देशों से भी बहुत-से पक्षी यहाँ आकर प्रवास करते हैं। रूस देश के साइबेरिया नामक प्रान्त से हजारों पक्षी शीतकाल में भारत के भरतपुर के निकट स्थित घाना पक्षी विहार में आ जाते हैं। पक्षियों में मित्रता, पति-पत्नी का प्रेम, आपसी व्यापार, भोजन की विधि, घोंसला बनाना, विपत्ति में किया गया आचरण- ये सब चीजें देख-देखकर अध्ययन करने योग्य होती हैं। यह अध्ययन केवल मनोरञ्जक ही नहीं, बल्कि शिक्षाप्रद और आत्मा के लिए आनन्ददायक भी होता है।

अस्माकं देशे सलीमअलीनाम महान् विहगानुवीक्षको जातो येन पक्षिविज्ञानविषये बहूनि पुस्तकानि लिखितानि सन्ति। हरियाणाप्रदेशे राजस्थाने च निवसन्तो विश्नोईसम्प्रदायस्य पुरुषा वनानां पक्षिणां च रक्षणे स्वप्राणानपि तृणाय मन्यन्ते। न ते हरितवृक्षान् छिन्दन्ति नापि चान्यान् छेत्तुं सहन्ते। वन्यपशूनामाखेटोऽपि तेषां वसतिषु नितरां प्रतिषिद्धः। जोधपुरनरेशस्य प्रासादनिर्माणार्थं काष्ठहेतोः केजरीवृक्षाणां कर्तनाज्ञाविरुद्धम् एकैकशः शतत्रयसंख्यकैर्विश्नोई स्त्रीपुरुर्षः विच्छेदिष्यमाणवृक्षानालिङ्गद्भिः, प्रथममस्माकं वपुश्छेद्यं पश्चाद् वृक्षाः इत्येवं जल्पद्भिः स्वप्राणा दत्ता इति तु जगति विश्रुतं नामाङ्कनपुरस्सरं तत्राङ्कितम् च।

हिंदी अनुवाद – हमारे देश में सलीम अली नाम का एक महान् पक्षियों की खोज करनेवाला हुआ है जिसने पक्षी विज्ञान के विषय में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। हरियाणा प्रदेश तथा राजस्थान में रहनेवाले विश्नोई सम्प्रदाय के लोग वनों और पक्षियों की रक्षा में अपने प्राणों को भी तिनके के समान तुच्छ समझते हैं। वे स्वयं हरे वृक्षों को नहीं काटते और दूसरों द्वारा काटा जाना सहन भी नहीं करते। जंगली  पशुओं का शिकार करना भी उनकी बस्तियों में बिल्कुल मना है। जोधपुर नरेश के महल के निर्माण के लिए, लकड़ियों के लिए केजरी के वृक्षों को काटने की आज्ञा के विरुद्ध एक-एक करके तीन सौ की संख्या में विश्नोई स्त्री-पुरुषों ने काटे जानेवाले वृक्षों का आलिंगन करके- ‘पहले हमारे शरीर को काटो, बाद में वृक्षों को’ इस तरह कहते हुए अपने प्राण दे दिये थे- यह बात संसार में प्रसिद्ध है। यह उनके नामों के लेख के साथ वहाँ लिखा है।

नास्त्येषोऽस्माकमभिप्रायो यद्वनेभ्यः प्राप्यो लाभो ग्राह्य एव न। स तु अवश्यं ग्राह्यः यथा मधुमक्षिका पुष्पाणां हानिं विनैव मधु नयति तथैव भवननिर्माणाय अन्यकारणाद् वा काष्ठं काम्यत एव, किन्तु पुरातना एव वृक्षा योजनां निर्माय कर्त्तनीया, न नूतनाः। यावन्तः कर्त्तनीयास्त‌द्विगुणाश्च पूर्वत एव आरोपणीयाः। गृहाणां प्राङ्गणेषु केदाराणां सीमसु पर्वतानामुपत्यकासु, मार्गानुभयतः क्रीडाक्षेत्राणि परितश्च यत्रापि यावदपि स्थलं विन्दते तत्र यथानुकूल्यं विविधा वृक्षा रोपणीयाः। प्रत्येकं देशवासिनैवमेव विधेयं, प्रत्येकं जन्म मृत्युर्विवाहश्च वृक्षारोपणेनानुसृतः स्यात्। यद्येवं सोत्साहं योजनाबद्धं च कार्य भवेत् आरोपितानां वृक्षाणां च निरन्तरपोषणमुपचयेंत तर्हि वर्षदशकेनैव निकामं क्षतिपूर्तिर्भवेत्। किं बहुना, वृक्षाणां पशुपक्षिणां च रक्षणे विश्नोई सम्प्रदायस्यादर्शः सर्वैरपि पालनीयः। एवं च ब्रूमः-

वनेन जीवनं रक्षेत् जीवनेन वनं पुनः।

मा वनानि नरश्छिन्देत् जीवनं निहितं वने ।।

शब्दार्थ विधेयम् = करना चाहिए। अनुसृतः अनुसरण किया हुआ । उपचर्येत = उपचार किया जाय । निकामम् = पर्याप्त । छिन्देत् = काटना चाहिए।

हिंदी अनुवाद – हमारा अभिप्राय यह नहीं है कि वनों से प्राप्त होने योग्य लाभ प्राप्त ही न किये जायँ। वह तो अवश्य ही प्राप्त करना चाहिए। किन्तु जैसे मधुमक्खी पुष्पों को हानि किये बिना ही शहद ले लेती है, वैसे ही भवन निर्माण के लिए या दूसरे कारण से काष्ठ तो चाहिए ही, किन्तु योजना बनाकर पुराने वृक्ष ही काटे जाने चाहिए, नये नहीं। जितने काटे जायँ, काटने से पहले उनसे दुगुने बो दिये जायँ। घरों के आँगनों, खेतों की सीमाओं, पहाड़ों की तलहटियों, रास्तों के दोनों ओर, खेल के मैदानों के चारों ओर, जहाँ भी जितना भी स्थान मिले, वहाँ यथानुकूल विभिन्न वृक्ष लगाये जाने चाहिए। प्रत्येक देशवासी द्वारा ऐसा ही किया जाना चाहिए, प्रत्येक को जन्म और विवाह आदि कार्य पेड़ लगाकर ही सम्पन्न करने चाहिए। यदि यह काम उत्साहपूर्वक योजनाबद्ध किया जाय और लगाये गये वृक्षों का निरन्तर पोषण किया जाय तो दस वर्षों के भीतर ही पर्याप्त कमी पूरी हो जाय। अधिक क्या? वृक्षों और पशु-पक्षियों की रक्षा करने में विश्नोई सम्प्रदाय का आदर्श सभी के द्वारा पालन किया जाना चाहिए। हम तो यह कहते हैं-

श्लोकार्थ– ‘वन के द्वारा जीवन की रक्षा की जानी चाहिए और जीवन द्वारा वन की रक्षा की जानी चाहिए। मनुष्यों द्वारा वन नहीं काटे जाने चाहिए, क्योंकि वन में जीवन निहित है।’

   जीवनं निहितं वने [ पाठ का सारांश ]

वन का स्वरूप – वन का नाम सुनते ही भय और आदर दो विपरीत भावनाएँ साथ-साथ उत्पन्न होती हैं। भय इसलिए कि वन में सिंह-जैसे भयंकर और अजगर-जैसे विशालकाय जन्तु होते हैं तथा सघन वृक्ष और एकान्त सन्नाटा भय उत्पन्न करता है। आदर इसलिए कि वन का वातावरण अति शान्त और पवित्र होता है। वनों में ही ऋषि-मुनियों ने तप किया। वेदों तथा हमारे धार्मिक ग्रन्थों और प्राचीन साहित्य की रचना वनों में हुई। वन आदर के पात्र हैं।

वनों की कटाई से हानि – वन प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं। प्राकृतिक सन्तुलन होने पर अन्न पैदा होते हैं। अन्न ही जीवन का आधार है, परन्तु मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए वनों की अन्धाधुन्ध कटाई की है। इससे प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ गया है। मनुष्य ने अपने थोड़े-से आर्थिक लाभ के लिए जो वनों का विनाश किया है, उससे मानवता के लिए संकट उपस्थित हो गया है।

बनों से लाभ – वनों से हमें कीमती लकड़ी, फल-फूल, ईंधन आदि बहुत-सी चीजें मिलती हैं। ये वन हमें स्वास्थ्य के लिए ओषधियाँ तथा उद्योगों के लिए कच्चा माल देते हैं। ये भूक्षरण को रोकते हैं, वायु को शुद्ध करते हैं और वर्षा कराते हैं। वनों में रहनेवाले वन्य जन्तु प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं। खेती के लिए हानिकर कीड़ों को कुछ वन्य पशु-पक्षी खा जाते हैं। ये पशु-पक्षी हमारा मनोरञ्जन भी करते हैं। उनके जीवन से हम बहुत-कुछ सीखते हैं। परन्तु मनुष्य इतना स्वार्थी है कि उसने मांस, चर्म, दाँत और पंख आदि के लाभ से वन्य पशु-पक्षियों का बहुत विनाश किया है।

निष्कर्ष – हमें वनों से लाभ प्राप्त करना चाहिए। कीमती लकड़ी आदि भी प्राप्त करनी चाहिए, परन्तु उनकी समृद्धि को क्षति नहीं पहुँचानी चाहिए। केवल पुराने वृक्ष काटें और काटने से पहले दो गुने वृक्ष लगा देने चाहिए क्योंकि वनों में ही जीवन निहित है।

                   जीवनं निहितं वने (MCQ)

नोट : प्रश्न-संख्या 1 एवं 2 गद्यांश पर आधारित प्रश्न हैं। गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और उत्तर का चयन करें।

विवृद्धलोभो मानवस्तात्कालिकाल्पलाभ हेतोर्विचार मूढतया वनानि तथा अचीकृन्तत् चकृन्तति च यत्तस्य निजजीवनस्यैव नैकधा भीरुपस्थिता। जानात्येव लोको यज्जीवनमन्नमयम्, अन्नं च कृष्योत्पाद्यम्, कृषिविकासार्थं समुचितं वातावरणं घटयितुं प्राकृतिकं सामञ्जस्यं च रक्षितुं वनानामद्यत्वे यादृश्यावश्यकता न तादृशी क्वापि पुराऽन्वभूयत्। यतोऽहर्निशं विद्यमानानां वनानां तावानेवांशोऽविशिष्टः यावान् भारतभूभागस्य प्रतिशतं केवलमेकादशमंशमावृणोति, तत्राप्युत्कृष्टवनानि तु प्रतिशतं चतुरंशात्मकान्येव । भद्रमिदं यदधुना विश्वस्य सर्वेष्वपि राष्ट्रेषु वनानां रक्षार्थं प्रयासाः क्रियन्ते।

1. जानात्येव लोकः यज्जीवनं ………..भवति ।

(क) अन्नमयम्

(ख) मृण्मयम्

(ग) गोमयम्

(घ) स्वर्णमयम्

उत्तर-(ग) गोमयम्

2. विश्वस्य सर्वेष्वपि राष्ट्रेषु केषां रक्षार्थं प्रयासाः क्रियन्ते।

(क) जनानाम्

(ख) वनानाम्

(ग) फलानाम्

(घ) पशूनाम्

उत्तर- (ख) वनानाम्

3. भारतभूभागस्य कति प्रतिशतं अंशं विद्यमानैः वनैः आब्रियते?

(क) दशांशम्

(ख) एकादशांशम्

(ग) द्वादशांशम्

(घ) त्रयोदशांशम्

उत्तर-(ख) एकादशांशम्

4. साइबेरियाप्रान्तः कस्मिन् देशे विद्यते ?

(क) आस्ट्रेलियादेशे

(ख) अफ्रीकादेशे

(ग) भारतदेशे

(घ) रूसदेशे

उत्तर-(घ) रूसदेशे

5. साइबेरियाप्रान्तात् विहगाः कदा घानापक्षिविहारम् आगच्छन्ति?

(क) वसन्तकाले

(ख) वर्षाकाले

(ग) शीतकाले

(घ) ग्रीष्मकाले

उत्तर-(ग) शीतकाले

6. अद्यत्वे केषां महती आवश्यकता वर्तते ?

(क) वनानाम्

(ख) जनानाम्

(ग) विघ्नानाम्

(घ) भवनानाम्

उत्तर- (क) वनानाम्

7.भारतस्य भरतपुरनिकटस्थे कः पक्षिविहारः वर्तते ?

(क) रंगनाथ पक्षिविहारः

(ख) सलीमअली पक्षिविहारः

(ग) घानापक्षिविहारः

(घ) नागरहोलपक्षिविहारः

उत्तर-(ग) घानापक्षिविहारः

8. पराविद्याविवेचकाः ग्रन्थाः कुत्र आविर्भूताः ?

(क) प्रसादेषु

(ख) गृहेषु

(ग) वनेषु

(घ) स्थलेषु

उत्तर-(ग) वनेषु

9. यावन्तः वृक्षाः कर्त्तनीयाः तंद् कतिगुणाः पूर्वतः एव आरोपणीयाः ?

(क) त्रिगुणाः

(ख) द्विगुणाः

(ग) चतुर्गुणाः

(घ) पञ्चगुणाः

उत्तर- (ख) द्विगुणाः

10. मधुमक्षिका पुष्पाणां हानिं विनैव किं नयति ?

(क) फलम्

(ख) जलम्

(ग) मधु

(घ) पत्रम्

उत्तर-(ग) मधु

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