Class 12 Hindi Khandkavy खण्डकाव्य Chapter 3 रश्मिरथी – Rashmirathi- sargo Saransh Charitra Chitran kathavastu.
UP Board solution of Class 12 & sahitya Hindi खण्डकाव्य Chapter 3 “रश्मिरथी” (रामधारी सिंह दिनकर) is new syllabus of UP Board exam Class 12 Hindi.
Class | 12 Intermediate |
Subject | Hindi || General Hindi |
Board | UP Board-UPMSP |
Chapter | Rashmirathi रश्मिरथी -Khandkavy |
रश्मिरथी (रामधारीसिंह ‘दिनकर’)
मुजफ्फरनगर, बुलन्दशहर, मथुरा, वाराणसी, फतेहपुर, उन्नाव तथा देवरिया जनपदों के लिए।
कथावस्तु
प्रश्न १ – ‘ रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा ‘रश्मिरथी’ के प्रथम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में पाण्डव शिविर द्वारा कर्ण के विरुद्ध बिछाए गए षड्यन्त्रों के जाल का उल्लेख कीजिए।
अथवा ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में कुन्ती और कर्ण के बीच हुई बातों को अपनी भाषा में समझाइए !
अथवा ‘रश्मिरथी’ के पंचम सर्ग के कुन्ती -कर्ण संवाद का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा ‘रश्मिरथी’ के तृतीय सर्ग में कृष्ण और कर्ण के संवाद में दोनों के चरित्र की कौन सी प्रमुख विशेषताएँ
प्रकट हुई हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर– ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य राष्ट्रकवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित है। इस काव्य की सर्गानुसार संक्षिप्त कथावस्तु इस प्रकार है
प्रथम सर्ग: कर्ण का शौर्य प्रदर्शन (सरांश)
कर्ण का जन्म कुमारी कुन्ती के गर्भ से हुआ था। कर्ण के पिता सूर्य थे। लोक-लज्जा के भय से कुन्ती ने अपने नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे ‘सूत’ (सारथी रथकार; रथ हाँकने वाला) ने नदी के बहते जल से निकाला और उसका लालन-पालन अपने पुत्र की भाँति किया ।
‘सूत’ के घर पलकर भी कर्ण महादानी एवं महान् धनुर्धर बना। एक दिन अर्जुन ने रंगभूमि में अपनी बाण-विद्या का प्रदर्शन किया। सभी दर्शक चकित एवं मन्त्रमुग्ध हो गए। उसी समय कर्ण ने भी अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन किया। कर्ण के प्रभावपूर्ण प्रदर्शन ने द्रोणाचार्य एवं पाण्डवों को उदास कर दिया।
कर्ण ने अर्जुन को द्वन्द्व युद्ध के लिए ललकारा। तभी कृपाचार्य ने कर्ण से उसकी जाति एवं कुल के विषय में पूछा। कर्ण ने अपनी जाति ‘सूत’ बतलाते हुए अर्जुन को लड़ने के लिए ललकारा। इस पर निम्न जाति का कहकर उसका अपमान किया गया। उसे अर्जुन से द्वन्द्व युद्ध करने योग्य इसलिए नहीं समझा गया; क्योंकि वह किसी राजकुल से सम्बन्धित नहीं था ।
दुर्योधन ने आगे बढ़कर कर्ण की वीरता एवं तेजस्विता की प्रशंसा की और कर्ण को अंगदेश का राजा बनाने की घोषणा की। कर्ण ने दुर्योधन को छाती से लगाकर उसे अपना अभिन्न मित्र बना लिया। द्रोणाचार्य कर्ण की धनुर्विद्या के कौशल को देखकर चिन्तित हो उठे थे। उन्होंने सोचा कि अर्जुन अब निष्कण्टक नहीं है। कुन्ती भी कर्ण के प्रति किए गए अपने कटु व्यवहार के लिए खिन्न हुई।
द्वितीय सर्ग आश्रमवास (सरांश)
उच्चकुलाभिमानी राजपुत्रों के विरोध से त्रस्त कर्ण ब्राह्मण रूप में धनुर्विद्या सीखने के लिए परशुरामजी के पास गया। परशुराम ने बड़े प्रेम एवं स्नेह के साथ कर्ण को धनुर्विद्या सिखाई। एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे कि उसी समय एक कीड़ा कर्ण की जंघा पर चढ़कर खून चूसता चूसता अन्दर तक प्रविष्ट हो गया, जिसके कारण कर्ण की जंघा से रक्त बहने लगा।
कर्ण असह्य पीड़ा को सहन करके भी इसलिए शान्त रहा कि गुरुदेव की नींद भंग न हो जाए; परन्तु जंघा से निकले रक्त के स्पर्श से परशुराम की निद्रा भंग हो गई। वस्तुस्थिति को देखकर परशुराम को कर्ण के ब्राह्मणत्व में सन्देह हुआ। अन्त में कर्ण ने उन्हें अपनी वास्तविकता बताई। परशुराम ने कर्ण से ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का अधिकार छीन लिया और उसे शाप दिया –
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आएगा।
है यह मेरा शाप समय पर उसे भूल तू जाएगा।
तत्पश्चात् गुरु के चरण छूकर कर्ण खोया हुआ-सा वहाँ से चला आया।
तृतीय सर्ग : कृष्ण सन्देश (सरांश)
पाण्डवों की एक वर्ष के अज्ञातवास की अवधि समाप्त हो गई। उन्होंने दुर्योधन से अपना राज्य वापस लौटाने को कहा, परन्तु उसने पाण्डवों को सूई की नोंक के बराबर भी भूमि देने से मना कर दिया। दुर्योधन को समझाने के लिए श्रीकृष्ण राजसभा में पहुँचे। श्रीकृष्ण की बात न मानकर दुर्योधन ने उन्हें कैद करने का प्रयास किया, किन्तु श्रीकृष्ण ने अपना विराट् रूप दिखाकर उसे भयभीत कर दिया।
जब कौरवों की राजसभा से लौटकर श्रीकृष्ण पाण्डवों के पास जा रहे थे, तभी मार्ग में उनकी भेंट कर्ण से हुई। श्रीकृष्ण ने उसके जन्म का इतिवृत्त बताते हुए उसे पाण्डवों का बड़ा भाई बताया तथा युद्ध की भीषणता एवं उसके दुष्परिणाम भी समझाए, परन्तु कर्ण श्रीकृष्ण की उन बातों में नहीं आया। उसने श्रीकृष्ण से नम्रतापूर्वक कहा कि वह युद्ध में पाण्डवों की ओर से सम्मिलित नहीं होगा।
चतुर्थ सर्ग : कर्ण के महादान की कथा (सरांश)
जब कर्ण ने पाण्डवों के पक्ष में जाने से मना कर दिया तो इन्द्र ब्राह्मण का वेष बनाकर कर्ण की दानशीलता की परीक्षा लेने आए। यद्यपि कर्ण इन्द्र के छल-प्रपंच को पहचान गया, तथापि उसने इन्द्र को सूर्य द्वारा प्रदत्त कवच और कुण्डल दान में दे दिए। कर्ण की इस दानशीलता को देखकर इन्द्र ने अपने आप को लज्जित अनुभव किया।
उन्होंने कर्ण को महादानी, पवित्र एवं सुधी कहा और अपने आपको प्रवंचक, कुटिल और पापी बताया। कर्ण की दानशीलता से प्रसन्न होकर इन्द्र ने कर्ण को ‘एकघ्नी’ नामक अमोघ शक्ति प्रदान की ।
पंचम सर्ग : माता की विनती (सरांश)
कुन्ती ने कर्ण के पास आकर उसके प्रति अपना ममत्व एवं पुत्र- वात्सल्य प्रकट किया, परन्तु कर्ण अटल रहा और किसी भी मूल्य पर दुर्योधन का साथ छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। फिर भी कुन्ती निराश नहीं हुई। उसने कर्ण की दानवीरता की प्रशंसा की और उसे अपने अंक में लेना चाहा। कर्ण माँ का प्यार पाकर पुलकित हो उठा, परन्तु साथ ही सचेत भी।
वह पाण्डवों के पक्ष को ग्रहण करने को तैयार नहीं हुआ, किन्तु उसने अर्जुन को छोड़कर अन्य किसी पाण्डव को न मारने का वचन कुन्ती को दे दिया। कर्ण ने कहा कि तुम प्रत्येक दशा में पाँच पाण्डवों की माता बनी रहोगी। कुन्ती निराश हो गई। कर्ण ने युद्ध समाप्त होने पर कुन्ती की सेवा करने की बात कही। अन्त में कुन्ती निराश होकर लौट गई।
षष्ठ सर्ग : शक्ति परीक्षण (सरांश)
श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि कर्ण के पास ‘एकघ्नी’ शक्ति है; अतः जब कर्ण को सेनापति बनाया गया तब श्रीकृष्ण ने हिडिम्बा – पुत्र घटोत्कच को कर्ण से लड़ने के लिए भेजा। कर्ण ने दुर्योधन के कहने पर घटोत्कच को ‘एकघ्नी’ शक्ति से मार गिराया, परन्तु इस विजय से वह बहुत खिन्न हुआ। पाण्डवों के शिविर में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। श्रीकृष्ण अपनी नीति से अर्जुन को अमोघ शक्ति से सुरक्षित बचा ले गए, परन्तु व्रती कर्ण ने फिर भी छल से दूर रहकर अपने व्रत का पालन दत्तचित्त होकर किया ।
सप्तम सर्ग: कर्ण के बलिदान की कथा (सरांश)
कर्ण का पाण्डवों से भयंकर युद्ध हुआ । कुन्ती को दिए गए वचन के अनुसार उसने रण में अर्जुन के अतिरिक्त अन्य पाण्डवों को पराजित कर पकड़ तो लिया, किन्तु उन्हें मारा नहीं, केवल अपमानित करके छोड़ दिया। कर्ण और अर्जुन का भी आमना-सामना हुआ। दोनों योद्धा अस्त्र-शस्त्र की वर्षा करते हुए अजेय रहे। अर्जुन कर्ण के बाणों से विचलित हो उठे।
एक बार तो वे मूच्छित ही हो गए। तभी कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में धँस गया। वह पहिये को निकालने के लिए रथ से नीचे उतरा। कर्ण को शस्त्रहीन और अस्त-व्यस्त देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा
खड़ा है देखता क्या मौन भोले ?
शरासन तान, बस अवसर यही है,
घड़ी फिर और मिलने को नहीं है।
विशिख कोई गले के पार कर दे,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के संकेत पर निहत्थे कर्ण का वध कर दिया गया।
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‘रश्मिरथी’ के आधार पर कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.‘रश्मिरथी’ कर्ण के चरित्र पर आधारित खण्डकाव्य है। कर्ण का चरित्र शील की प्रतिमूर्ति, शौर्य व पौरुष का अगाध सिन्धु, शक्ति का स्रोत, सत्य-साधना-दान-त्याग का तपोवन तथा आर्य-संस्कृति का आलोकमय तेज है। कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् है
- उत्कृष्ट चरित्र – कर्ण ‘रश्मिरथी’ का नायक है। काव्य की सम्पूर्ण कथा कर्ण के चारों ओर घूमती है। काव्य का नामकरण भी कर्ण को ही नायक सिद्ध करता है। ‘रश्मिरथी’ का अर्थ है-वह मनुष्य, जिसका रथ रश्मि अर्थात् पुण्य का हो। इस काव्य में कर्ण का चरित्र ही पुण्यतम है। कर्ण के आगे अन्य किसी पात्र का चरित्र नहीं ठहर पाता। कर्ण के सम्बन्ध में कवि के ये शब्द द्रष्टव्य हैं
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी ।
जाति गोत्र का नहीं, शील का पौरुष का अभिमानी ॥
- साहसी और वीर योद्धा – इस खण्डकाव्य के आरम्भ में ही कर्ण हमें एक वीर योद्धा के रूप में दिखाई देता है। शस्त्र-विद्या- प्रदर्शन के समय वह प्रदर्शन-स्थल पर उपस्थित होकर अर्जुन को ललकारता है तो सब स्तब्ध रह जाते हैं। जब इस पर कृपाचार्य कर्ण से उसकी जाति – गोत्र आदि पूछते हैं तो कर्ण उनसे कहता है
पूछो मेरी जाति, शक्तिक्षहो तो मेरे भुज बल से ।
रवि समान दीप्ति ललाट से, और कवच कुण्डल से ॥
- सच्चा मित्र – दुर्योधन ने जाति- अपमान से कर्ण की रक्षा उसे राजा बनाकर की, तभी से कर्ण दुर्योधन का अभिन्न मित्र बन गया। कृष्ण और कुन्ती के समझाने पर भी वह दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता और अन्त समय तक अपनी मित्रता के प्रति पूर्ण समर्पित रहता है।
- सच्चा गुरुभक्त और विनयी— कर्ण गुरु के प्रति परम विनयी एवं श्रद्धालु है कीट कर्ण की जाँघ काटकर भीतर घुस जाता है, रक्त की धारा बहने लगती है, पर कर्ण पैर नहीं हिलाता; क्योंकि हिलने से उसकी जाँघ पर सिर रखकर सोये गुरु की नींद खुल जाएगी। आँखें खुलने पर वह गुरु को वास्तविकता बता देता है तो वे क्रोधित होकर उसे आश्रम से निकाल देते हैं, परन्तु कर्ण अपनी विनय नहीं छोड़ता और जाते समय भी गुरु की चरण- धूलि लेता है।
- परम दानवीर – कर्ण के चरित्र की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वह धन-सम्पत्ति की लिप्सा से मुक्त है। इसलिए प्रतिदिन प्रातः काल सन्ध्या – वन्दन करने के बाद वह याचकों को दान देता है। ब्राह्मण वेश में आये इन्द्र को वह अपने जीवन रक्षक कवच और कुण्डल तक दान में दे देता है। अपनी माता कुन्ती को युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को न मारने का अभयदान देता है। कर्ण की दानशीलता के सम्बन्ध में कवि कहता है
रवि-पूजन के समय सामने जो भी याचक आता था।
मुँह माँगा वह दान कर्ण से, अनायास ही पाता था ॥ 6. महान सेनानी – कौरवों की ओर से कर्ण महाभारत के युद्ध में सेनापति है । वह शर – शय्या पर लेटे भीष्म पितामह से युद्ध हेतु आशीर्वाद लेने जाता है। भीष्म उसके विषय में कहते हैं
अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे तुम मिले कौरवों को वैसे ॥
युद्ध में कर्ण ने अपने रण-कौशल से पाण्डवों की सेना में हा-हाकार मचा दिया। उसकी वीरता की प्रशंसा श्रीकृष्ण भी करते हैं।
- अन्य विशेषताएँ – श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से कहा गया निम्नलिखित कथन कर्ण की चारित्रिक श्रेष्ठता की पुष्टि करता है
हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का दलित हारक, समुद्धारक त्रिया का।
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था ।
युधिष्ठिर! कर्ण का अदभुत हृदय था ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि कवि का मुख्य मन्तव्य कर्ण के चरित्र के शीलपक्ष, मैत्रीभाव एवं शौर्य का चित्रण करना रहा है, जिसके लिए उसने कर्ण को राज्य और विजय की गलत महत्त्वाकांक्षाओं से पीड़ित न दिखाकर षड्यन्त्रों, परीक्षाओं और प्रलोभनों की स्थितियों में उसे अडिग चित्रित किया है। यही स्थिति उसको खण्डकाव्य का महान नायक बना देती है।
प्र. 2. रश्मिरथी’ के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर.’रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में श्रीकृष्ण के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ दिखाई देती है—
- युद्ध – विरोधी – पाण्डवों के वनवास से लौटने के बाद श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए स्वयं हस्तिनापुर जाते हैं और युद्ध टालने का भरसक प्रयास करते हैं, किन्तु हठी दुर्योधन नहीं मानता। इसके बाद वे कर्ण को भी समझाते हैं, परन्तु कर्ण भी अपने प्रण से नहीं हटता। अन्त में श्रीकृष्ण कहते हैं
यश मुकुट मान सिंहासन ले, बस एक भीख मुझको दे दे।
कौरव को तज रण रोक सखे, भू का हर भावी शोक सखे ॥
- निर्भीक एवं स्पष्टवादी— श्रीकृष्ण केवल अनुनय-विनय ही करना नहीं जानते, वरन् वे निर्भीक एवं स्पष्ट वक्ता भी है। जब दुर्योधन समझाने से नहीं मानता तो वे उसे चेतावनी देते हुए कहते हैं
तो ले मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।
- शीलवान व व्यावहारिक — श्रीकृष्ण के सभी कार्य उनके शील के परिचायक हैं। वास्तव में वे एक सदाचारपूर्ण समाज की स्थापना करना चाहते हैं। वे शील को ही जीवन का सार मानते हैं
नहीं पुरुषार्थ केवल जाति में है, विभा का सार शील पुनीत में है।
साथ ही वह सांसारिक सिद्धि और सफलता के सभी सूत्रों से भी अवगत
- गुणों के प्रशंसक — श्रीकृष्ण अपने विरोधी के गुणों का भी आदर करते हैं। कर्ण उनके विरुद्ध लड़ता है, परन्तु श्रीकृष्ण कर्ण का गुणगान करते नहीं थकते
वीर शत बार धन्य, तुझ सा न मित्र कोई अनन्य ।
- महान् कूटनीतिज्ञ – श्रीकृष्ण महान् कूटनीतिज्ञ हैं। पाण्डवों की विजय श्रीकृष्ण की कूटनीति के कारण ही हुई वे पाण्डवों की ओर के कूटनीतिज्ञ का कार्य कर दुर्योधन की बड़ी शक्ति कर्ण को उससे अलग करने का प्रयत्न करते हैं। उनकी कूटनीतिज्ञता का प्रमाण कर्ण से कहा गया उनका यह कथन है
कुन्ती का तू ही तनय श्रेष्ठ, बलशील में परम श्रेष्ठ । मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, तेरा अभिषेक करेंगे हम ॥
- अलौकिक शक्तिसम्पन्न – कवि ने श्रीकृष्ण के चरित्र में जहाँ मानव स्वभाव के अनुरूप अनेक साधारण विशेषताओं का समावेश किया है, वहीं उन्हें अलौकिक शक्ति सम्पन्न रूप देकर लीलापुरुष भी सिद्ध किया है। जब दुर्योधन उन्हें कैद करना चाहता है, तब वे अपने विराट स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं.
हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप किया। डगमग डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले –
“जंजीर बढ़ाकर साध मुझे, हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे।”
इस प्रकार इस खण्डकाव्य में श्रीकृष्ण को श्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ, किन्तु महान् लोकोपकारक के रूप में चित्रित करके कवि ने उनके पौराणिक चरित्र को
युगानुरूप बनाकर प्रस्तुत किया है। कवि के इस प्रस्तुतीकरण की विशेषता यह है कि इससे कहीं भी उनके पौराणिक स्वरूप को क्षति नहीं पहुँची है। कृष्ण का यह व्यक्तित्व कवि की कविता में युगानुसार प्रकट हुआ है।
प्र.3. ‘रश्मिरथी’ के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर – कुन्ती पाण्डवों की माता है अविवाहिता कुन्ती के गर्भ से सूर्य पुत्र कर्ण का जन्म हुआ था। इस प्रकार कुन्ती के पाँच नहीं वरन् छः पुत्र थे। कुन्ती की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नवत् हैं
- वात्सल्यमयी माता— कुन्ती को जब यह ज्ञात होता है कि कर्ण का उसके अन्य पाँच पुत्रों से युद्ध होने वाला है तो वह कर्ण को मनाने उसके पास पहुँच जाती है। उस समय कर्ण सूर्य की उपासना कर रहा था। अपने पुत्र कर्ण के तेजोमय रूप को देख कुन्ती फूली नहीं समाती सन्ध्या से आँखें खोलने पर कर्ण स्वयं को राधा का पुत्र बताता है तो कुन्ती यह सुनकर व्याकुल हो जाती है—
रे कर्ण! बेध मत मुझे निदारुण शर से ।
राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है।
कर्ण के पास से निराश लौटती हुई कुन्ती कर्ण को अपने अंक में भर लेती है, जो उसके वात्सल्य का प्रमाण है।
- अन्तर्द्वन्द्वग्रस्त – जब कुन्ती के ही पुत्र परस्पर शत्रु बने खड़े हैं, तब कुन्ती के हृदय में अन्तर्द्वन्द्व को भीषण आँधी उठ रही थी वह इस समय बड़ी ही उलझन में पड़ी हुई है। पाँचों पाण्डवों और कर्ण में से किसी की हानि हो, पर वह हानि तो कुन्ती की ही होगी। वह अपने पुत्रों का सुख-दुःख अपना सुख-दुःख समझती है—
दो में किसका डर फटे, फटंगी मैं ही।
जिसकी भी गर्दन कटे, कहूँगी मैं ही ॥
- समाज भीरु – कुन्ती लोक – लाज से बहुत अधिक भयभीत एक भारतीय नारी की प्रतीक है। कौमार्यावस्था में सूर्य से उत्पन्न नवजात शिशु (कर्ण) को वह लोक-निन्दा के भय से गंगा की लहरों में बहा देती है। इस बात को वह कर्ण के समक्ष भी स्वीकार करती है
मंजूषा में धर वज्र कर मन को,
धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को ।
कर्ण को युवा और वीरत्व की प्रतिमूर्ति बने देखकर भी अपना पुत्र कहने का साहस नहीं कर पाती। जब युद्ध की विभीषिका सम्मुख आ जाती है, तो वह कर्ण से अपनी दयनीय स्थिति को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त करती है
बेटा धरती पर बड़ी दीन है नारी,
अबला होती, सचमुच योषिता कुमारी। है
कठिन बन्द करना समाज के मुख को,
सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।
- निश्छल – कुन्ती का हृदय छलरहित है। वह कर्ण के पास मन में कोई छल रखकर नहीं, वरन् निष्कपट भाव से गयी थी । यद्यपि कर्ण उसकी बातें स्वीकार नहीं करता, किन्तु कुन्ती उसके प्रति अपना ममत्व कम नहीं करती।
- बुद्धिमती और वाक्पटु – कुन्ती एक बुद्धिमती नारी है वह अवसर को पहचानने तथा दूरगामी परिणाम का अनुमान करने में समर्थ है। कर्ण अर्जुन युद्ध का निश्चय जानकर वह समुचित कदम उठाती है—
सोचा कि आज भी चूक अगर जाऊँगी,
भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँगी।
फिर भी त जीता रहे, न अपयश जाने, ”
अब आ क्षणभर मैं तुझे अंक में भर लूँ ।।
इस प्रकार कवि ने ‘रश्मिरथी’ में कुन्ती के चरित्र में कई उच्चकोटि के गुणों के साथ-साथ मातृत्व के भीषण अन्तर्द्वन्द्व की सृष्टि करके, इस विवश माँ की ममता को महान बना दिया है।