UP Board Solution of Class 10 Sanskrit Padya Piyusham Chapter 2 – द्वितीय: पाठ: वृक्षाणां चेतनत्वम [Vrikshanam Chetantvam] Hindi Anuvad (Objective) MCQ Suktiyo ki Vykhya
प्रिय विद्यार्थियों! यहाँ पर हम आपको कक्षा 10 यूपी बोर्ड संस्कृत पद्य पीयूषम के chapter -2 द्वितीय: पाठ: वृक्षाणां चेतनत्वम [Vrikshanam Chetantvam] का हिंदी अनुवाद Hindi Anuvad बहुविकल्पीय प्रश्न – MCQ तथा Suktiya (सूक्तियों की व्याख्या) प्रदान कर रहे हैं। आशा है आपको अच्छा ज्ञान प्राप्त होगा और आप दूसरों को भी शेयर करेंगे।
Subject / विषय | संस्कृत (Sanskrit) पद्य पीयूषम |
Class / कक्षा | 10th |
Chapter( Lesson) / पाठ | Chpter -2 |
Topic / टॉपिक | वृक्षाणां चेतनत्वम |
Chapter Name | Vrikshanam Chetantvam |
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रम | कम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन |
श्लोकों की हिंदी व संस्कृत व्याख्या
भृगुरुवाच-
अमितानां महाशब्दो यान्ति भूतानि सम्भवम्।
ततस्तेषां महाभूतशब्दोऽ यमुपपद्यते ।। 1 ।।
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु कथयति यत् अमितानां (कृते) महाशब्दः (प्रयुज्यते) तेभ्यः भूतानि सम्भवं यान्ति । ततः तेषां कृते अयं महोशब्दः उपपद्यते ।
शब्दार्थ – अमितानां = असीमितों के । भूतानि = समस्त प्राणी । सम्भवन्ति = उत्पन्न होते हैं। उपपद्यते = सुसंगत होता है।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाभारत से संगृहीत करके ‘संस्कृत पद्य पीयूषम्’ पाठ्य-पुस्तक के ‘वृक्षाणां चेतनत्वम्’ शीर्षक से उधृत है। इस श्लोक में महर्षि भृगु पञ्चभूतों की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं।
हिन्दी व्याख्या – असीमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द का प्रयोग होता है। इनसे भौतिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इस कारण से इन पदार्थों के लिए ‘महाभूत’ शब्द का प्रयोग उपयुक्त लगता है।
चेष्टा वायुः खमाकाशमूष्माग्निः सलिलं द्रवः ।
पृथिवी चात्र संघातः शरीरं पाञ्चभौतिकम्।। 2 ।।
संस्कृत व्याख्या – अस्मिन् श्लोके भृगु कथयति यत् अत्र चेष्टा वायुः (अस्ति), खम् आकाशम् (अस्ति), ऊष्मा अग्निः (अस्ति) । द्रवः सलिलम् अस्ति । संघातः = पृथ्वी च (अस्ति)। (एवं) शरीरम् पाञ्चभौतिकम् (अस्ति)।
शब्दार्थ – चेष्टा = गति का होना। खम् = खोखलापन। ऊष्मा = गर्मी । सलिलम् = पानी । द्रव – तरल • पदार्थ । संघातः = ठोसपन । पाञ्चभौतिकम् = पाँच तत्त्वों से बना हुआ है।
हिन्दी व्याख्या – भृगुजी कहते हैं कि इस शरीर में गति का होना वायु, खोखलापन आकाश और गर्मी अग्नि का रूप है, इसी तरह रक्त आदि तरल पदार्थ पानी और ठोसपन पृथ्वी का भाग है। इस समूह से निर्मित यह शरीर पाँच महाभूतों (पञ्चतत्त्वों) से बना है।
इत्येतैः पञ्चभिर्भूतैर्युक्तं स्थावर जङ्गमम् ।
श्रोतं घ्राणं रसः स्पर्शो दृष्टिश्चेन्द्रियसंज्ञिता ।।3।।
संस्कृत व्याख्या – अस्मिन् श्लोके भृगु कथयति यत् इत एतैः पञ्चभिः भूतैः युक्तं स्थावरजङ्गमम् (अस्ति)। श्रोत्रं, घ्राणं, रसः, स्पर्शः, दृष्टिः च इन्द्रिय संज्ञिता (अस्ति) ।
‘शब्दार्थ – स्थावर-जङ्गमम् = जड़ और चेतन रूप संसार । इन्द्रियसंज्ञिता = इन्द्रिय नामवाली ।
हिन्दी व्याख्या – इस अंश में पंच महाभूतों के साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों का वर्णन किया गया है-
इस प्रकार इन पाँचों भूतों से युक्त जड़ और चेतन रूप संसार है। कान, नासिका, रसना, स्पर्श (त्वचा) और दृष्टि। ये पाँचों ‘इन्द्रिय’ नामवाले हैं।
भरद्वाज उवाच –
पञ्चभिर्यदि भूतैस्तु युक्ताः स्थावरजङ्गमाः।
स्थावराणां न दृश्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः ।।4
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भरद्वाज: कथयति यत् यदि स्थावर-जङ्गमाः पञ्चभिः भूतैः युक्ताः सन्ति, (तर्हि) तु स्थावराणां शरीर पञ्चधातवः (कथं) न दृश्यन्ते ।
शब्दार्थ – स्थावरजङ्गम = जड़ और चेतन। पञ्चभिः भूतैः = पाँच तत्त्वों सें। स्थावराणाम् = वृक्षों के। पञ्चधातवः = पाँच तत्त्व। न दृश्यन्ते नहीं दिखायी देते हैं। चैतन्यम् = चेतना शक्ति ।
इस श्लोक द्वारा महर्षि भरद्वाज सन्देह प्रकट करते हैं कि जड़ जीवों में ये पाँच तत्त्व नहीं हैं। यदि हैं तो वे दिखायी क्यों नहीं देते?
व्याख्या – यदि ये जड़ और चेतन पाँच तत्त्वों से युक्त होते हैं तो वृक्षों के शरीर में ये पाँच तत्त्व क्यों नहीं दिखायी देते हैं? अतः वृक्षों में चेतना शक्ति का अभाव है।
अनूष्माणामचेष्टानां घनानां चैव तत्त्वतः ।
वृक्षाणां नोपलभ्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः ।।511
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भरद्वाज: कथयति यत् अनूष्माणाम् अचेष्टानां घनानां च वृक्षाणां शरीरे तत्त्वतः पञ्चधातवः न उपलभ्यन्ते ।
शब्दार्थ – अनूष्माणाम् = ऊष्मारहित । अचेष्टानाम् गतिशीलता से रहित। घनानाम् ठोस रूप। तत्त्वतः = वास्तविक रूप में। न उपलभ्यन्ते नहीं पाये जाते हैं।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में महर्षि भरद्वाज वृक्षों के शरीर में पञ्च भूतों की सत्ता में सन्देह व्यक्त करते हुए कहते हैं- ऊष्मारहित, चेष्टाहीन और ठोस रूप वृक्षों के शरीर में वास्तविक रूप से पाँच भूत तत्त्व पाये जाते हैं।.
न शृण्वन्ति न पश्यन्ति न गन्धरससेविनः ।
न च स्पर्श विजानन्ति ते कथं पाञ्चभौतिकाः ।।6।।
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भरद्वाज: कथयति यत् वृक्षाः न शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, न गन्ध-रस सेविनः सन्ति, न च स्पर्श विजानन्ति, ते पाञ्चभौतिकाः कथं भवितुमर्हन्ति?
शब्दार्थ – गन्धरससेविनः = गन्ध और रस का सेवन करनेवाली। विजानन्ति = जानते हैं, अनुभव करते हैं।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में महर्षि भरद्वाज वृक्षों में पाञ्चभौतिक होने में शंका करते हुए कहते हैं- ये वृक्ष जंगमों की तरह न सुनते हैं, न देखते हैं, गन्ध और रस का सेवन भी नहीं करते हैं तो फिर वे पाँच भूतों से बने कैसे हो सकते हैं?
अद्रवत्वादनग्नित्वाद भूमित्वादवायुतः ।
आकाशस्याप्रमेयत्वाद् वृक्षाणां नास्ति भौतिकम् ।।7।।
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भरद्वाज: कथयति यत् वृक्षाणाम् अद्रवत्वात्, अनग्नित्वात्, अभूमित्वात्, अवायुतः आकाशस्य अप्रेमयत्वात् च (तेषां) भौतिकम् न (अस्ति)।
शब्दार्थ – अद्रवत्वात् = द्रव रूप न होने के कारण। अनग्नित्वात् अग्नि रूप न होने के कारण। अभूमित्वात् = भूमि का अंश न होने के कारण। अवायुतः वायु रूप न होने के कारण। आकाशस्य अप्रेमयत्वात् = आकाश में ज्ञेयत्व ने होने के कारण।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में वृक्षों में पंच भूतों का अभाव होने के कारण वे कैसे पञ्चभौतिक हो सकते हैं? इस प्रकार भरद्वाज शंका प्रकट करते हैं- वृक्षों के रुधिर आदि के अभाव में द्रव रूप न होने के कारण, अग्नि रूप न होने के कारण, भूमि रूप के न होने के कारण वायु का अंश न होने के कारण और आकाश के ज्ञेयत्व न होने के कारण उनका रूप पञ्चभूतों से नहीं बना है।
भृगुरुवाच-
घनानामपि वृक्षाणामाकाशोऽस्ति न संशयः।
तेषां पुष्पफलव्यक्तिर्नित्यं समुपपाद्यते ।। 8 ।।
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् घनानाम् अपि वृक्षाणाम् आकाशः अस्ति, अत्र संशयः न अस्ति। तेषां पुष्प-फल-व्यक्तिः नित्यं समुपपाद्यते ।
घनानाम् = ठोस रूप होते हुए भी। पुष्पफलव्यक्तिः = फूल और फलों की उत्पत्ति। समुपपाद्यते = सम्भव होती है।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में महर्षि भरद्वाज द्वारा किये गये वृक्षों की भौतिकता के सन्देह का समाधान करते हुए महर्षि भृगु कहते हैं- ठोस रूप होते हुए भी वृक्षों में आकाश तत्त्व अवश्य होता है, इसमें सन्देह नहीं है; क्योंकि उनकी फूल और फलों की उत्पत्ति नित्य सम्भव होती है। (आकाश तत्त्व के अभाव में फल और फूल उत्पन्न नहीं ‘हो सकते हैं) फलों और फूलों में भी आकाश तत्त्व होता है। बिना आकाश उनका अस्तित्व ही नहीं है। स्पर्शस्तेनात्र विद्यते ॥
ऊष्मतो म्लायते पर्णं त्वक् फलं पुष्पमेव च।
म्लायते शीर्यते चापि स्पर्शस्तेनात्र विद्यते ।।9।।
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् ऊष्मतः पर्णं म्लायते। त्वक् फलं पुष्पम् एव च म्लायते शीर्यते अपि च। तेन अत्र स्पर्शः विद्यते ।
शब्दार्थ – ऊष्मतः = गर्मी के कारण। म्लायते = कुम्हला जाता है। पर्ण = पत्ता । त्वक् छाल। शीर्यते = बिखर जाता है।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में महर्षि भृगु वृक्षों में स्पर्श की अनुभूति होने के कारण वायु तत्त्व की विद्यमानता बताते हुए कहते हैं- गर्मी के कारण (वृक्षों का) पत्ता मुरझा जाता है। छाल, फल और फूल भी कुम्हला जाता है और बिखर जाता है। इस कारण से वृक्षों में स्पर्श होता है (स्पर्श वायु का विषय है; अतः स्पर्श होने से वृक्षों में व्रायु तत्त्व है)। गर्म हवा के स्पर्श से ही वृक्षों के पत्ते, पुष्पादि मुरझा जाते हैं।
वाय्वग्न्यशनिनिघषिः फलं पुष्पं विशीर्यते।
श्रोत्रेण गृह्यते शब्दस्तस्माच्छृण्वन्ति पादपाः ।। 10
संस्कृत व्याख्या –अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् वाय्वग्न्यशनिनिर्घोषैः (वृक्षाणां) फलं पुष्पं च विशीर्यते। श्रोत्रेण शब्दः गृह्यते । तस्मात् पादपाः शृण्वन्ति ।
शब्दार्थ – वायु अग्नि अशनिनिर्घोषैः = वायु, अग्नि और बिजली की कड़क से। विशीर्यते = बिखर जाता है। गृह्यते = ग्रहण किया जाता है। तस्मात् = इस कारण से। शृण्वन्ति = सुनते हैं।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में महर्षि भृगु वृक्षों में श्रवणेन्द्रिय की विद्यमानता बताते हुए आकाश तत्त्व का होना बताते हैं।वायु, अग्नि और बिजली की कड़क से फल और फूल बिखर जाते हैं। शब्द कान से ग्रहण किया जाता है। इसलिए वृक्ष सुनते हैं, यह सिद्ध होता है (आकाश का गुण शब्द होता है; अतः वृक्षों में आकाश तत्त्व भी विद्यमान है)।
वल्ली वेष्टयते वृक्षं सर्वतश्चैव गच्छति।
न ह्यदृष्टेश्च मार्गोऽस्ति तस्मात् पश्यन्ति पादपाः ।।11
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् वल्ली वृक्षं वेष्टयते, सर्वतः गच्छति च। अदृष्टेः मार्गः न अस्ति। तस्माद् (सिध्यत यत्) पादपाः पश्यन्ति ।
शब्दार्थ- वल्ली -लता, बेल। वेष्टयते = लपेट लेती है। अदृष्टे दृष्टिहीन का। सर्वतः = चारों ओर ।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में वृक्षों का देखना सिद्ध किया गया है- बेल वृक्ष को लपेट लेती है और चारों ओर फैल जाती है। दृष्टिहीन पदार्थ का कोई मार्ग नहीं है। इस कारण सिद्ध होता है कि वृक्ष देखते हैं। जैसे- यदि किसी छोटे पौधे को अँधेरे में रख दिया जाय तो वह टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता है।
पुण्यापुण्यैस्तथा गंधैधूपैश्च विविधैरपि।
अरोगाः पुष्पिताः सन्ति तस्माज्जिघ्रन्ति पादपाः ।।12
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् वृक्षाः पुण्यापुण्यैः तथा गन्धैः धूपैः च अरोगाः पुष्पिताः च सन्ति। तस्मात् पादपाः जिघ्रन्ति इति सिध्यति
शब्दार्थ – पुण्यापुण्यैस्तथा- पुण्य और अपुण्य से । अरोगाः = रोगरहित ।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में वृक्षों का सूँघना सिद्ध किया गया है- वृक्ष पुण्यों और अपुण्यों से तथा अनेक प्रकार की गन्धों और धूपों से रोगरहित और पुष्पित होते हैं। इस कारण वृक्ष सूंघते हैं, यह सिद्ध होता है अर्थात् अनेक प्रकार की गन्ध पुष्पों से निकलने के कारण पुष्पों का सूँघना सिद्ध होता है।
पादैः सलिलपानाच्च व्याधीनां चापि दर्शनात्।
व्याधिप्रतिक्रियत्वाच्च विद्यते रसनं द्रुमे ।।13
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् पादैः सलिलपानात् व्याधीनां च अपि दर्शनात् व्याधि प्रतिक्रियत्वात् च द्रुमे रसनं विद्यते, इति सिध्यति ।
शब्दार्थ – पादैः = जड़ों से। व्याधिप्रतिक्रियत्वात् = रोगों की प्रतिक्रिया होने के कारण। रसनम् = स्वाद लेने की सामर्थ्य।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाभारत से संगृहीत करके ‘संस्कृत पद्य पीयूषम्’ पाठ्य-पुस्तक के ‘वृक्षाणां चेतनत्वम्’ शीर्षक से उद्धृत है।
हिन्दी व्याख्या – अपनी जड़ों के द्वारा जल पीने के कारण और रोगों के दिखायी पड़ने के कारण और रोगों का उपचार होने के कारण वृक्ष में स्वाद लेने की सामर्थ्य होती है (रसनेन्द्रिय के अभाव में जल पीना और रोगों की दवा पीना सम्भव नहीं है) अर्थात् बीमार वृक्षों में दवा छिड़की जाती है और वे पानी जमीन से ही पीते हैं। बिना स्वाद के दवा का प्रभाव हो ही नहीं सकता है।
वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोर्ध्व जलमाददेत्।
तथा पवनसंयुक्तः पादैः पिबति पादपः।।14।।
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् यथा उत्पलनालेन वक्त्रेण जलम् उर्ध्वम् आददेत् तथा पवन संयुक्तः पादपः पादैः (जलम्) पिबति ।
शब्दार्थ – वक्त्रेण = मुख से। उत्पलनालेन = कमल दण्ड से। पवनसंयुक्तः = हवा से युक्त। पादैः – जड़ों से। पादपः = पेड़।
हिन्दी व्याख्या – श्लोक में पेड़ नीचे जड़ से जल पीकर तने में कैसे पहुँचाते हैं, कुछ विपरीत-सा मालूम पड़ता है, इसका समाधान करते हुए भृगु जी कहते हैं – जिस प्रकार कमल दण्ड से मुख के द्वारा जल ऊपर दिया जाता है, उसी प्रकार वायु से युक्त पेड़ अपनी जड़ों से जल पीते हैं।
सुखदुःखयोश्च ग्रहणाच्छिन्नस्य च विरोहणात् ।
जीवं पश्यामि वृक्षाणामचैतन्यं न विद्यते । । 15
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् सुखदुःखयोः ग्रहणात् छिन्नस्य विरोह्णात् च वृक्षाणां जीवं पश्यामि (तेषाम्) अचैतन्यं न विद्यते ।
शब्दार्थ – सुखदुःखयोः = सुख और दुःख के। छिन्नस्य = कटे हुए के। विरोहणात् – अंकुर लगने से। अचैतन्यम् = निर्जीवता ।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में कहा गया है कि अन्य प्राणियों की तरह वृक्ष भी सुख एवं दुःख का अनुभव करते हैं उनमें भी चेतना होती है। महर्षि भृगु कहते हैं- वृक्षों के सुख और दुःख का अनुमान करने से कटे हुए के अंकुर आने से (मैं) उनमें जीव देखता हूँ। उनमें निर्जीवता नहीं है। भाव यह कि वृक्ष भी चेतन है जड़ नहीं।
तेन तज्जलमादत्तं जरयत्यग्नि-मारुतौ ।
आहारपरिणामाच्च स्नेहो वृद्विश्च जायते ।। 16
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् तेन आदत्तं तत् जलम् अग्निमारुतौजरयति। आहार परिणामात् च स्नेहः वृद्धिः च जायते । .
शब्दार्थ – आदत्तम् = ग्रहण किये गये। अग्निमारुतौ = अग्नि और हवा को । जरयति = पचने को प्रेरित करता है। आहारपरिणामात् = आहार के पचने से। स्नेहः = चिकनापन । वृद्धिः जायते = बढ़ता है।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में बताया गया है कि वृक्ष खाते हैं और उनकी पाचन क्रिया भी होती है। भृगु जी कहते हैं –वृक्ष के द्वारा ग्रहण किये गये उस जल को अग्नि और वायु पचाते हैं और आहार के पचने से चिकनापन और बढ़ता है।
एतेषां सर्ववृक्षाणां छेदनं नैव कारयेत्।
चतुर्मासे विशेषेण विना यज्ञादिकारणम्।।17
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् यज्ञादि कारणम् विना एतेषां सर्व वृक्षाणां छेदनं न कारयेत्। विशेषेण चातुर्मासे नैव कारयेत् ।
शब्दार्थ – छेदनम् = काटना। चातुर्मासे = वर्षा ऋतु के चार महीनों में।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में अन्य प्राणियों की तरह वृक्षों का वध (काटना) पाप कहा गया है जैसे दूसरे जीवों का वध पाप समझा जाता है। भृगु जी भरद्वाज से कहते हैं – यज्ञ आदि कारणों के बिना इन सभी वृक्षों को नहीं कटवाना चाहिए। विशेषकर वर्षा ऋतु के चार महीनों में निश्चय ही नहीं कटवाना चाहिए।
एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना ।
वासितं वै वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ।।18
संस्कृत व्याख्या -अस्मिन् श्लोके भृगु: कथयति यत् एकेन अपि पुष्पितेन सुगन्धिना सुवृक्षेण सुपुत्रेण कुलं यथा सर्व वै वनं वासितम् ।
शब्दार्थ – पुष्पितेन = फूलों से युक्त। सुगन्धिना = सुन्दर महकवाले। सुपुत्रेण = अच्छे पुत्र के द्वारा ।
हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में वृक्ष की पुष्प-समृद्धि से मानव की प्रशंसा की गयी है। कवि कहता है- क्योंकि एक ही फूले हुए (पुष्पयुक्त) सन्दर महकवाले वृक्ष से समस्त वन सुगन्धित हो जाता है। जैसे एक अच्छे पुत्र के द्वारा समस्त कुल (खानदान) सुगन्धित हो जाता है।