UP Board Solutions of Class 10 Sanskrit Padya Piyusham Chapter 3 – तृतीय: पाठ: सूक्ति-सुधा [Sukti Sudha]  Hindi Anuvad MCQ

UP Board Solutions of Class 10 Sanskrit Padya Piyusham Chapter 3 – तृतीय: पाठ: सूक्ति-सुधा [Sukti Sudha] Hindi Anuvad (Objective) MCQ Suktiyo ki Vykhya

प्रिय विद्यार्थियों! यहाँ पर हम आपको कक्षा 10 यूपी बोर्ड संस्कृत पद्य पीयूषम के 3 – तृतीय: पाठ: सूक्ति-सुधा [Sukti Sudha] का हिंदी अनुवाद Hindi Anuvad बहुविकल्पीय प्रश्न – MCQ तथा Suktiya (सूक्तियों की व्याख्या) प्रदान कर रहे हैं। आशा है आपको अच्छा ज्ञान प्राप्त होगा और आप दूसरों को भी शेयर करेंगे।

लक्ष्य-वेध-परीक्षा

Subject / विषयसंस्कृत (Sanskrit) पद्य पीयूषम 
Class / कक्षा10th
Chapter( Lesson) / पाठChpter -3
Topic / टॉपिकसूक्ति-सुधा 
Chapter NameSukti Sudha
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रमकम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन

श्लोकों का संस्कृत एवं हिंदी अर्थ /व्याख्या 

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।

तस्माद्धि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्।।1 

शब्दार्थ – गीर्वाणभारती– देवताओं की वाणी, संस्कृत। दिव्या अलौकिक। मधुरा मधुर गुण से युक्त।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य पीयूषम्’ में संकलित ‘सूक्ति-सुधा’ शीर्षक से अवतरित है। इसमें संस्कृत भाषा की विशेषता बतायी गयी है।

व्याख्या – भाषाओं में देवताओं की वाणी संस्कृत प्रमुख, मधुर गुण से युक्त और अलौकिक है। इसलिए उसका काव्य मधुर है। उससे भी मधुर सुन्दर वचन है।

पृथिव्यां त्रीणि रलानि जलमन्त्रं सुभाषितम्।

मूडैः पाषाण-खण्डेषु रत्न-संज्ञा विधीयते ।।2 

संस्कृतार्थ  – अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत् पृथिव्याम्, जलम, अन्नम्, सुभाषितम् इति त्रीणि रत्नानि सन्ति। मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ।

शब्दार्थपाषाणखण्डेषु पत्थर के टुकड़ों में। रत्न संज्ञा रत्न का नाम। विधीयते = किया जाता है। मूढ़ेः = मूर्ख लोगों के द्वारा।

व्याख्या – इस श्लोक में वास्तविक रत्न तीन बताये गये हैं- पृथ्वी में जल, अन्न और सुन्दर वचन-ये तीन रत्न (श्रेष्ठ पदार्थ) है, मूर्ख लोगों ने पत्थर के टुकड़ों में रत्न का नाम कर दिया है।

काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।

व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।3 

संस्कृतार्थ  – अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत्- धीमताम् कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति। मूर्खाणां (कालः) व्यसनेन निद्रया कलहेन वा गच्छति।

शब्दार्थकाव्यशास्त्रविनोदेन काव्य और शास्त्र के अध्ययन द्वारा मनोरञ्जन से। गच्छति – बीतता है। धीमताम् – बुद्धिमानों का। व्यसनेन निन्दनीय कर्मों के करने से। कलहेन = झगड़ा करने से ।

व्याख्या – इस श्लोक में मूर्खी और बुद्धिमानों के समय बिताने के साधन बताये गये हैं- बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्रों के अध्ययन द्वारा मनोरंजन (आनन्द) से बीतता है। मूखौँ का समय निन्दित कार्यों के करने से, सोने से अथवा झगड़ने से बीतता है।

श्लोकस्तु श्लोकतां याति यन्त्र तिष्ठन्ति साधवः।

लकारो लुप्यते तत्र यत्र तिष्ठन्त्यसाधवः ।। 4 

संस्कृतार्थ  – अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत् – यत्र साधवः तिष्ठन्ति तत्र श्लोकः तु श्लोकताम् याति। यत्र असाधवः तिष्ठन्ति तत्र लकारो लुप्यते अर्थात् श्लोकः शोकतां याति।

शब्दार्थश्लोकताम् याति – कीर्ति की प्राप्ति करता है। साधवः सज्जन पुरुष। असाधवः दुर्जन पुरुष। लकारो लुप्यते – श्लोक का ‘ल’ वर्ण लुप्त हो जाता है, अर्थात् श्लोक शोक बन जाता है।

व्याख्या – जहाँ सज्जन पुरुष रहते हैं, वहाँ श्लोक (संस्कृत का छन्द) कीर्ति की प्राप्ति करता है। जहाँ दुर्जन लोग रहते हैं, वहाँ श्लोक का ‘ल’ लुप्त हो जाता है। अर्थात् श्लोक शोक की प्राप्ति कराता है।

अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपिब्ब्रुवन्।

प्राप्नुयाद् बुद्ध्यवज्ञानमपमानञ्च शाश्वतम्।।5

संस्कृतार्थ  – अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत् बृहस्पतिः अपि अप्राप्तकालम् वचनंम् ब्रुवन् बुद्धयवज्ञानम् शाश्वतम् अपमानम् च प्राप्नुयात्।

शब्दार्थअप्राप्तकालं जिसके बोलने का समय न हो, अवसर के विपरीत। बृहस्पतिः– देव गुरु। ब्रुवन-बोलते हुए, बोलनेवाला। प्राप्नुयात्-प्राप्त करे। बुद्धयवज्ञानं बुद्धि का अपमान, उपेक्षा। शाश्वतम्– निरन्तर, हमेशा।

व्याख्या – मनुष्य को समय के अनुसार ही बात करनी चाहिए। कवि कहता है कि अवसर के प्रतिकूल बोलनेवाला चाहे देवगुरु बृहस्पति भी क्यों न हो, वह अपनी बुद्धि की अवहेलना तथा अपमान प्राप्त करता है। मनुष्य को अवसर के अनुकूल ही बात करनी चाहिए।

वाच्यं श्रद्धासमेतस्य पृच्छतश्च विशेषतः ।

प्रोक्तं श्रद्धाविहीनस्याप्यरण्यरुदितोपमम् ।।6 

संस्कृतार्थ  – अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत् श्रद्धा समेतस्य विशेषतः पृच्छतश्च वाच्यम् श्रद्धाविहीनस्य अपि प्रोक्तम् अरण्य रुदितोपमम् ।

शब्दार्थवाच्यं बोलना चाहिए, कहना चाहिए। पृच्छत्-पूछते हुए का। विशेषतः खास तौर से। अरण्यरुदितोपमम् जंगल में रोने के समान, निरर्थक ।

व्याख्या- कवि कहता है कि श्रद्धा के साथ विशेष रूप से पूछनेवाले की बात का उत्तर देना चाहिए। परन्तु जो श्रद्धा से रहित मनुष्य के साथ बोले, वह तो वन में रोदन के समान निरर्थक होता है।

वसुमतीपतिना नु सरस्वती बलवता रिपुणा न च नीयते ।

समविभागहरैर्न विभज्यते विबुधबोधबुधैरपि सेव्यते ।।7 

संस्कृतार्थ  – अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत् सरस्वती वसुमतीपतिना बलवता रिपुणा च न नीयते। सम विभागहरैः न विभज्यते अपि च विबुधबोधबुधैः सेव्यते ।

शब्दार्थवसुमतीपतिना राजा द्वारा। बलवता बलवान् से। रिपुणा शत्रु द्वारा। नीयते-ले जायी जाती है। समविभागहरैः– समान हिस्सा बाँटनेवाले, भाई-बन्धुओं द्वारा। विभज्यते बाँटा जाता है। विबुधबोधबुधैः– देवताओं के ज्ञान को जाननेवाले, विद्वानों द्वारा। सेव्यते सेवन की जाती है।

व्याख्या – इसमें विद्या की महत्ता दिखायी गयी है। सिद्ध किया गया है कि सरस्वती (विद्या) लक्ष्मी (धन) से बढ़कर है- कवि कहता है कि सरस्वती राजा अथवा बलवान् शत्रु के द्वारा नहीं छीनी जा सकती। समान हिस्सा बाँटनेवाले भाई-बन्धुओं द्वारा भी नहीं बाँटी जा सकती है। दिव्यज्ञानवाले विद्वानों के द्वारा इसका सेवन किया जाता है।

लक्ष्मीर्न या याचकदुःखहारिणी विद्या न याऽप्यच्युत भक्तिकारिणी।

पुत्रो न यः पण्डितमण्डलाग्रणीः सा नैव सा नैव सा नैव ।।8 

संस्कृतार्थ  – अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत् या लक्ष्मीः याचक दुःखहारिणी न (सान) या विद्या अपि अच्युत भक्तिकारिणी न (सा न) यः पुत्रः पण्डितमण्डलाग्रणीः न (सन) सा (लक्ष्मीः लक्ष्मीः) नैव सा (विद्या विद्या) नैव, सः (पुत्रः पुत्रः) नैव ।

शब्दार्थअच्युत-भगवान् विष्णु। नैव नहीं।

व्याख्या इस सूक्ति में लक्ष्मी, विद्या और पुत्र की सार्थकता पर प्रकाश डाला गया है- जो लक्ष्मी याचकों के दुःख को दूर करनेवाली नहीं, जो विद्या भगवान् विष्णु की भक्ति प्रदान करनेवाली नहीं, जो पुत्र विद्वान् पुरुषों की मण्डली में अग्रगण्य नहीं, न तो वह लक्ष्मी ही है, न वह विद्या ही है और न वह पुत्र ही है।

केयूराः न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः ।

न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्द्धजाः।।

वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते।

क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणम् भूषणम् ।।9 

संस्कृतार्थ  – अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत्  केयूराः पुरुषं न विभूषयन्ति, चन्द्रोज्ज्वलाः हारा: न विभूषयन्ति। न खानम्, न विलेपनं, न कुसुमं न अलंकृताः पूर्द्धजाः पुरुषं विभूषयन्ति। एकावाणी, या संस्कृता धार्यते, पुरुषं समलङ्करोति । भूषणानि खलु क्षीयन्ते। वाग्भूषणं वास्तविकं भूषणम् अस्ति।

शब्दार्थकेयूराः बाजूबन्द। विभूषयन्ति सजाते है। चन्द्रोज्वला: चन्द्रमा के समान उज्ज्वल। विलेपनम् – उबटन लगाना। मूर्द्धजा: बाल, केश। संस्कृता शुद्ध। क्षीयन्ते- घटते हैं, नष्ट होते हैं। सततम्– सदा, निरन्तर। भूषणम् – गहना।

व्याख्या इस सूक्ति में मनुष्य द्वारा कृत्रिम सौन्दर्य साधनों की आभूषणता को नकारते हुए शुद्ध, सुसभ्य वाणी को ही सच्चा आभूषण बताया गया है-  इस संसार में मनुष्य को न तो बाजूबन्द ही सजाते हैं और न चन्द्रमा के समान उज्ज्वल अच्छे हार ही सुशोभित करते हैं, न स्नान करना, न उबटन आदि का लेप करना, न सुगन्धित पुष्प और न भली प्रकार सँवारे हुए सिर के बाल ही सजाते हैं। केवल एक वाणी ही जो शुद्ध रूप से घारण की जाती है, मनुष्य को सुशोभित करती है, क्योंकि सभी आभूषण नष्ट हो जाते हैं परन्तु वाणी रूपी आभूषण ही सच्चा आभूषण है।

 

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