UP Board Solutions of Class 10 Sanskrit Padya Piyusham Chapter 4 – चतुर्थ: पाठ: क्षान्तिसौख्यम् [ Kshanti Saukhyam ] Hindi Anuvad MCQ

UP Board Solutions of Class 10 Sanskrit Padya Piyusham Chapter 4 – चतुर्थ: पाठ: क्षान्तिसौख्यम् [ Kshanti Saukhyam ] Hindi Anuvad (Objective) MCQ Suktiyo ki Vykhya

प्रिय विद्यार्थियों! यहाँ पर हम आपको कक्षा 10 यूपी बोर्ड संस्कृत पद्य पीयूषम के 4 – चतुर्थ: पाठ: क्षान्तिसौख्यम् [ Kshanti Saukhyam ] का हिंदी अनुवाद Hindi Anuvad बहुविकल्पीय प्रश्न – MCQ तथा Suktiya (सूक्तियों की व्याख्या) प्रदान कर रहे हैं। आशा है आपको अच्छा ज्ञान प्राप्त होगा और आप दूसरों को भी शेयर करेंगे।

लक्ष्य-वेध-परीक्षा

Subject / विषयसंस्कृत (Sanskrit) पद्य पीयूषम 
Class / कक्षा10th
Chapter( Lesson) / पाठChpter -4
Topic / टॉपिकक्षान्तिसौख्यम् (chhanti saukhyam)
Chapter NameKshanti Saukhyam
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रमकम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन

क्षान्तिसौख्यम्  के श्लोकों का संस्कृत व हिंदी अर्थ 

यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुषं द्विषते नरः।

धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत् स खलु वञ्चते।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक व्यास-रचित महाभारत से संगृहीत हमारी पाठ्य-पुस्तक’ संस्कृत पद्य पीयूषम्’ के ‘क्षान्ति-सौख्यम्’ नामक पाठ से उद्‌धृत किया गया है।

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके भीष्म पितामह  कथयति यत् यः नरः दुर्लभतरं मानुषं जन्म प्राप्य द्विषेत, सः धर्मावमन्ता कामात्मा च भवेत् स खलु आत्मानं वञ्चते।

शब्दार्थदुर्लभतरं- अन्य जन्मों की अपेक्षा कठिनाई से पाने योग्य। मानुषम्- मनुष्य का जन्म। प्राप्य – पाकर। धर्मावमन्ता धर्म का अनादर करनेवाला। कामात्मा कामनाओं में आसक्त रहनेवाला। वञ्चते धोखा देता है।

हिन्दी व्याख्या -इस श्लोक में महाभारत के युद्ध में शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि क्षमा मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है-  जो मनुष्य अन्य जन्मों की अपेक्षा अधिक दुर्लभ मनुष्य का जन्म पांकर (दूसरों से) द्वेष करता है वह धर्म का अनादर करनेवाला, कामनाओं में आसक्त रहनेवाला होता है, वह अपने से ही धोखा करता है।

सान्त्वेनान्नप्रदानेन प्रियवादेन चाप्युत।

समदुःखसुखो भूत्वा स परत्र महीयते ।।

आक्नुश्यमानो नाक्क्रुश्येन्मन्युरेनं तितिक्षतः ।

आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं च तितिक्षतः।।

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके भीष्म पितामह कथयति यत्- सः सान्त्वेन अन्न प्रदानेन उतप्रिय वादेन च अपि सम सुख-दुख भूत्वा परत्र महीयते। आकृश्यमानः न आक्नुश्येत्। तितिक्षतः मन्युः एनम् आक्रोष्टारं निर्दहति, तितिक्षतः च सुकृतम् भवति ।

शब्दार्थसान्त्वेन सान्त्वना द्वारा। प्रियवादेन प्रिय वचन द्वारा। परन्त्र परलोक में। महीयते– प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। आक्कुश्यमानः गाली या अपशब्द दिया जाता हुआ। आक्रुष्येत् – गाली दी जानी चाहिए। तितिक्षतः क्षमाशील व्यक्ति का। आक्रोष्टारम् गाली देनेवाले को। मन्युः क्रोध। निर्दहति-जलाता है। सुकृतम्-पुण्य ।

हिन्दी व्याख्या- इन श्लोकों में मानव को सुख-दुःख में समान भाव से रहने और दूसरे के द्वारा गाली दिये जाने पर भी स्वयं गाली न देने की प्रेरणा दी गयी है- (जो मनुष्य) दूसरों को सान्त्वना देता है, अन्न दान कर या प्रिय वचन बोलकर सन्तुष्ट करता है, वह मनुष्य सुख-दुःख को समान माननेवाला होता है और (इस संसार से जाने के बाद) परलोक में भी प्रतिष्ठा पाता है। 

(क्षमाशील व्यक्ति को दूसरे के द्वारा) गाली दिये जाते हुए भी (उसके प्रति बदले में) गाली नहीं देनी चाहिए; क्योंकि क्षमाशील मनुष्य की क्षमाशीलता गाली देनेवाले मनुष्य को पूर्णतया भस्म कर देती है, उसके (क्षमाशील के) इस कार्य से उसे (क्षमाशील को) पुण्य की प्राप्ति होती है ॥

 

सक्तस्य बुद्धिश्चलति मोहजालविवर्धिनी।

मोहजालावृतो दुःखमिह चामुत्र चाश्नुते ।। 

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके भीष्म पितामह  कथयति यत् – सक्तस्य मोहजाल विवर्धिनी बुद्धिः चलति। मोहजालावृतः इह च अमुत्र च दुःखम् अश्नुते।

शब्दार्थ सक्तस्य-संसार के प्रति आसक्ति रखनेवाले का। मोहजालविवर्धिनी मोहजाल को बढ़ानेवाली । अमुत्र = परलोक में। अश्नुते प्राप्त करता है।

हिन्दी व्याख्या – संसार से अति लगाव रखनेवाले व्यक्ति की मोहजाल को बढ़ानेवाली बुद्धि गतिशील रहती है। मोहजाल में फँसा हुआ व्यक्ति इस लोक में और परलोक में दुःख प्राप्त करता है।

 

अतिवादांस्तितीक्षेत नाभिमन्येत कञ्चन।

क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयादाक्क्रुष्टः कुशलं वदेत्।।

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके भीष्म पितामह  कथयति यत् – अतिवादान् तितीक्षेत। कञ्चन न अभिमन्येत। क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयात्। आक्कुष्टः कुशलं वदेत्।

शब्दार्थअतिवादान् कटु वचनों को। तितीक्षेत सहन करना चाहिए। कञ्चन किसी के प्रति । करना चाहिए। आकुष्टः गाली दिया गया। अभिमन्येत– अभिमान प्रकट।

हिन्दी व्याख्या- कटु वचनों को सहन करना चाहिए। किसी के प्रति अभिमान प्रकट नहीं करना चाहिए। क्रोध दिलाये जाने पर प्रिय वचन बोलना चाहिए। गाली दिये जाने पर कुशल वचन बोलना चाहिए।

 

भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानु चिन्तयेत्।

चिन्त्यमानं हि न व्येति भूयश्चापि प्रवर्धते ।।

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके भीष्म पितामह  कथयति यत् – एतद् दुःखस्य भैषज्यम् (अस्ति) यत् एतत् न अनुचिन्तयेत् हि चिन्त्यमानम् (दुःखम्) न व्येति। 

शब्दार्थभैषज्यम् – ओषधि। अनुचिन्तयेत्– चिन्तन करना चाहिए। न व्येति कम नहीं होता है। प्रवर्धते = बढ़ता है।

हिन्दी व्याख्या- यह दुःख की ओषधि है कि इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। निश्चय ही चिन्तन किया गया दुःख कम नहीं होता है, अपितु और भी बढ़ जाता है।

सर्वे क्षयान्ताः निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।

संयोगाः विप्रयोगान्ताः मरणान्तं हि जीवितम्।।

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके भीष्म पितामह  कथयति यत् – सर्वे निचयाः क्षयान्ताः सन्ति समुच्छ्रयाः पतनान्ताः सन्ति। संयोगा: विप्रयोगान्ताः सन्ति । जीवितम् हि मरणान्तम् अस्ति।

शब्दार्थनिचयाः संग्रह। क्षयान्ताः क्षय में अन्तवाले। समुच्छ्रयाः ऊँचाइयाँ। पतनान्ताः पतन में अन्तवाली। विप्रयोगान्ताः वियोग में अन्तवाले। मरणान्तम् मरण में अन्तवाला।

हिन्दी व्याख्या– सब संग्रह क्षय में अन्तवाले हैं। ऊँचाइयाँ पतन में अन्तवाली हैं। संयोग वियोग में अन्तवाले हैं। जीवन मृत्यु में अन्तवाला है।

 

दमः क्षमा धृतिस्तेजः संतोषः सत्यवादिता।

ह्रीरहिंसाऽव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः ।।

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके कवि कथयति यत्- दमः, क्षमा, धृतिः तेजः संतोषः सत्यवादिता, ही: अहिंसा, अव्यसनिता, दाक्ष्यम् च इति सुखावहाः।

शब्दार्थदमः इन्द्रियों का दमन करना। ह्री लज्जा। दाक्ष्यम् कार्य कुशलता। सुखावहाः = मुख देनेवाला।

हिन्दी व्याख्या – मन तथा इन्द्रिय दमन, क्षमा, धीरज, तेज, सन्तोष, सत्य बोलना, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसन से रहित होना, निपुणता ये सब गुण मनुष्य को सुख देनेवाले होते हैं।

 

ये क्रोधं सन्नियच्छन्ति क्रुद्धान् संशमयन्ति च।

न कुप्यन्ति च भूतानां दुर्गाण्यति तरन्ति ते ।।

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके भीष्म पितामह  कथयति यत् – ये क्रोधं सन्नियच्छन्ति, क्क्रुद्धान् च संशमयन्ति भूतानाम् च न कुप्यन्ति ते दुर्गाणि अतितरन्ति।

शब्दार्थसन्नियच्छन्ति – काबू में रखते हैं। संशमयन्ति- शान्त करते हैं। न कुप्यन्ति क्रोध नहीं करते।

हिन्दी व्याख्या – भीष्म पितामह युधिष्ठिर को बताते हैं कि जो अपने क्रोध को नियन्त्रण में कर लेते हैं तथा जो क्रोध में आये हुए क्रोधियों को भी शान्त कर देते हैं और जो प्राणियों पर क्रोध नहीं करते हैं वे कठोर आपत्तियों को भी तैर जाते हैं अर्थात् आपत्तियाँ उनके मार्ग में बाधा नहीं कर सकतीं।

अभयं यस्य भूतेभ्यो भूतानामभयं यतः ।

तस्य देहाद् विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ।।10।।

संस्कृतार्थ :-  अस्मिन् श्लोके भीष्म पितामह  कथयति यत् – यस्य भूतेभ्यः अभयं, यत्रः भूतानाम् अभयम्, देहाद् विमुक्तस्य तस्य कुतश्चन भयं नास्ति। शब्दार्थ – भूतेभ्यः – सभी प्राणियों से। कुतश्चन कहीं से।

हिन्दी व्याख्या – इस श्लोक में कवि कह रहा है कि देहाभिमान से रहित पुरुष को किसी से भय नहीं रहता है- भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि जिस मनुष्य की सब प्राणियों को निर्भयता प्राप्त है अर्थात् जिससे किसी को भय नहीं तथा जिसे सब प्राणियों से निर्भयता है, ऐसे मनुष्य को शरीर से मुक्त हो जाने पर अर्थात् शरीर त्याग (मृत्यु) के बाद किसी से कहीं से भी भय नहीं रहता।

 

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