UP Board Solutions of Class 10 Sanskrit Padya Piyusham Chapter 6 – षष्ठ: पाठ: गीतामृतम् [ Geetamritam ] Hindi Anuvad (Objective) MCQ Suktiyo ki Vykhya
प्रिय विद्यार्थियों! यहाँ पर हम आपको कक्षा 10 यूपी बोर्ड संस्कृत पद्य पीयूषम के 6 – षष्ठ: पाठ: गीतामृतम् [ Geetamritam ] का हिंदी अनुवाद Hindi Anuvad बहुविकल्पीय प्रश्न – MCQ तथा Suktiya (सूक्तियों की व्याख्या) प्रदान कर रहे हैं। आशा है आपको अच्छा ज्ञान प्राप्त होगा और आप दूसरों को भी शेयर करेंगे।
Subject / विषय | संस्कृत (Sanskrit) पद्य पीयूषम |
Class / कक्षा | 10th |
Chapter( Lesson) / पाठ | Chpter -6 |
Topic / टॉपिक | गीतामृतम् |
Chapter Name | Geetamritam |
All Chapters/ सम्पूर्ण पाठ्यक्रम | कम्पलीट संस्कृत बुक सलूशन |
सन्दर्भ – गीता महाभारत के सात सौ श्लोकों का संकलन है। यह श्लोक इसी ग्रन्थ से हमारी पाठ्य- पुस्तक ‘संस्कृत पद्य पीयूषम्’ में ‘गीतामृतम्’ शीर्षक से संकलित है। इस श्लोक में वासुदेव श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्म करने का उपदेश देते हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत् ते कर्मणि एव अधिकारः अस्ति फलेषु कदाचन न अस्ति। कर्मफलहेतुः मा भूः ते अकर्मणि सङ्गः मा अस्ति।
शब्दार्थ – कर्मणि कर्म करने में। अधिकारः कर्तव्य। कदाचन कभी भी। कर्मफलहेतुः कर्म फल के निमित्त। मा भूः मत बनो।
व्याख्या –इस श्लोक में वासुदेव श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि तुम्हारा कर्म करने में अधिकार (कर्त्तव्य) है, फल में कभी नहीं। कर्मफल के निमित्त न बनो।’ तुम्हारा कर्म न करने में आसक्ति (लगाव) न हो। भाव यह कि निष्काम कर्म करना तुम्हारा कर्तव्य है।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत् हे धनञ्जय ! सङ्ग त्यक्त्वा सिद्ध्यसिद्ध्योः समः भूत्वा योगस्थः कर्माणि कुरु। समत्वम् योग उच्यते।
शब्दार्थ – सिद्धयसिद्धयोः सफलता और असफलता में। योगस्थः योग में स्थिर होकर। समः – समान बुद्धिवाला। उच्यते कहा जाता है।
व्याख्या- इस श्लोक में वासुदेव श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे धनञ्जय (अर्जुन)! आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर। यह समत्व भाव ही योग नाम से कहा जाता है।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो हाकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत् त्वं नियतं कर्म कुरु। हि अकर्मणः कर्म ज्यायः (अस्ति) अकर्मणः ते शरीर यात्रा अपि न प्रसिद्धयेत्।
शब्दार्थ – नियतम् = शास्त्र विधि से निश्चित। अकर्मणः कर्म न करने की अपेक्षा। ज्यायो अधिक अच्छा।
व्याख्या – इस श्लोक में वासुदेव श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्म को कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से तेरी शरीर-यात्रा भी सिद्ध (सफल) नहीं होगी।
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुलॉकसंग्रहम्
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत् हे भारत ! कर्मणि संक्ताः अविद्वांसः यथा कुर्वन्ति तथा असक्तः विद्वान् लोकसंग्रहं चिकीर्षुः कुर्यात्।
शब्दार्थ – अविद्वांसः अज्ञानी। चिकीर्षुः करने की इच्छा से।
व्याख्या- इस श्लोक में वासुदेव श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं उसी प्रकार अनासक्त हुआ विद्वान् लोक-संग्रह (लोकशिक्षा) को करने की इच्छावाला कर्म करे।
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत् यदृच्छालाभ सन्तुष्टः द्वन्द्वातीतः, विमत्सरः सिद्धौ असिद्धौ च समः पुमान् कर्म कृत्वा अपि न निबध्यते।
शब्दार्थ – यदृच्छालाभ अपने आप प्राप्त। विमत्सरः ईर्ष्यारहित। निबध्यते- बँधता है।
व्याख्या– इस श्लोक में वासुदेव श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने-आप (स्वभावतः) प्राप्त हो, उससे ही सन्तुष्ट रहनेवाला, इन्द्रों (हर्षशीकादि) से अतीत (रहित) हुआ, ईष्यां से रहित, सिद्धि और असिद्धि में समत्व भाववाला (कर्मों को) करके भी नहीं वैधता है।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत्- श्रद्धावान्, तत्परः संयतेन्द्रियः ज्ञानं लभते। ज्ञानं लब्ध्वा अचिरेण परां शान्तिम् अधिगच्छति।
शब्दार्थ– संयतेन्द्रियः जितेन्द्रिय। अधिगच्छति प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या– इस श्लोक में वासुदेव श्रीकृष्ण कहते हैं कि श्रद्धा वाला ज्ञान प्राप्त करने में प्रयत्नशील, इन्द्रियों को वश में रखनेवाला पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान प्राप्त करके शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है।
अज्ञश्चाश्रद्यानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत्- अज्ञः अश्रद्दधानः च संशयात्मा विनश्यति। संशयात्मनः अयं लोकः न अस्ति, परः (लोकः) न अस्ति, सुखं न (अस्ति)।
शब्दार्थ – अज्ञः ज्ञानहीन। अश्रद्दधानः श्रद्धा न रखनेवाला। संशयात्मा संशय से युक्त मनवाला। परः परलोक ।
व्याख्या– ज्ञानहीन, श्रद्धा न रखनेवाला और संशय से युक्त मनवाला पुरुष नष्ट हो जाता है। संशय में पड़े हुए मनुष्य का न यह लोक है, न परलोक है और न ही सुख है।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत्- हे पाण्डव ! यः मत्कर्मकृत्, मत्परमः, मद्भक्तः सङ्गवर्जितः, सर्वभूतेषु च निर्वैरः (अस्ति), सः माम् एति।
शब्दार्थ – मत्कर्मकृत् – मेरे लिये कर्म करनेवाला। मत्परमः मुझे ही सबसे बड़ा माननेवाला। सङ्गवर्जितः आसक्तिरहित, दुर्जनों के साथ से रहित। निर्वैरः शत्रुता से रहित। मामेति मुझे प्राप्त करता है।
व्याख्या – श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- पाण्डु पुत्र हे अर्जुन! जो मेरे लिये कर्म करनेवाला, मुझे ही सबसे बड़ा माननेवाला, मेरा भक्त, दुर्जनों की संगति से रहित और सब जीवों पर शत्रुता से रहित है वह पुरुष मुझे प्राप्त कर लेता है।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ।।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत् यः न हृष्यति, न द्वेष्टि, न शोचति, न काङ्क्षति, शुभाशुभ परित्यागी, यः भक्तिमान् च अस्ति सः नर: मे प्रियः अस्ति।
शब्दार्थ – हृष्यति – प्रसन्न होता है। द्वेष्टि द्वेष करता है। शोचति शोक करता है। काङ्क्षति – इच्छा करता है।
व्याख्या- जो पुरुष व प्रसन्न होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न इच्छा करता है, शुभ और अशुभ पदार्थों का त्याग करनेवाला और जो भक्तियुक्त है, वह मुझे प्रिय है।
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ।।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत्(यः जनः) शत्रौ मित्रे च समः (अस्ति), तथा मानापमानयोः समः (अस्ति), शीतोष्णसुखदुःखेषु समः (अस्ति), सङ्गविवर्जितः च (अस्ति) (स मे प्रियः अस्ति)।
शब्दार्थ- सङ्गविवर्जितः आसक्ति से रहित।
व्याख्या- जो मनुष्य शत्रु और मित्रं के प्रति समान है, जो मान और अपमान में समान रहता है, गर्मी-सर्दी और सुख-दुःख में जो समान है तथा आसक्ति से रहित है, वह मुझे प्रिय है।
तुल्यनिन्दास्तुतिमाँनी संतुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।।
संस्कृतार्थ :- अस्मिन् श्लोके श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति यत्- तुल्यनिन्दास्तुतिः, मौनी, येन केनचित् सन्तुष्टः अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् नरः मे प्रियः (अस्ति)।
शब्दार्थ – तुल्यनिन्दास्तुतिः निन्दा और प्रशंसा को समान समझनेवाला। मौनी मौन (चुप) रहनेवाला। सन्तुष्टः सुप्रसन्न। अनिकेतः गृहहीन अर्थात् ममतारहित। स्थिरमतिः स्थिर बुद्धिवाला।
व्याख्या- निन्दा और प्रशंसा में समान रहनेवाला, मौन रहनेवाला, जिस किसी से भी प्रसन्न रहनेवाला, गृहहीन (ममतारहित), स्थिर बुद्धि एवं भक्तिवाला मनुष्य मेरा प्रिय है।
गीतामृतम् पाठ की सूक्तियों की व्याख्या
1. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । अथवा ते सङ्गोऽस्त्व कर्मणि ।
सन्दर्भ – प्रस्तुत सूक्ति महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’ की है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत के 700 श्लोकों का संकलन है। गीता से संकलित तथा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य पीयूषम्’ के ‘गीतामृतम्’ पाठ से उद्धृतं है। इसमें कृष्ण भगवान् अर्जुन को कर्म का महत्त्व समझाते हैं।
अर्थ- कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में कभी नहीं।
व्याख्या – भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं। वास्तव में जिस व्यक्ति का ध्यान कर्म में होता है, वह पुरुषार्थी होता है और उसमें आत्मविश्वास भरपूर मात्रा में रहता है। अगर उसे फल की प्राप्ति भी नहीं होती तो उसे हताशा नहीं होती, दूसरी तरफ कर्महीन व्यक्ति का ध्यान फल पर ही लगा रहता है, उसे कर्म करने में आनन्द की अनुभूति नहीं होती। वह सोचता है कि कर्म कम करना पड़े और फल अधिक प्राप्त हो जायँ। उसमें सदा भय बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि उसे फल न मिले। साथ ही फल न मिलने पर वह हताश और दुःखी हो जाता है। अतः मानव को कर्म की ओर ही ध्यान रखना चाहिए और फल की चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
2. समत्वं योग उच्यते ।
अर्थ – समत्व को योग कहा जाता है।
व्याख्या – सफलता और असफलता, दुःख और सुख, गरीबी और अमीरी को समान भाव से समझना ही समत्व भाव कहलाता है। जो व्यक्ति दुःख में हताश नहीं होता और सुख में अहंकारी नहीं होता, उसे समत्व भाववाला समझना चाहिए। ऐसा व्यक्ति ज्ञानी होता है। वह जानता है कि दुःख के बाद अनिवार्य रूप से सुख आता है और सुख के बाद अनिवार्य रूप से दुःख आता है, फिर दुःख और सुख में समान भाव क्यों न रखा जाय? कृष्ण भगवान् इस समत्व भाव को योग कहते हैं, क्योंकि योग द्वारा मन एकाग्र होता है और एकाग्र मनवाला ही समत्व भाव से युक्त हो सकता है।
3. श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं ।
अर्थ – श्रद्धावान् ज्ञान को प्राप्त करता है।
व्याख्या – ज्ञान गुरु से प्राप्त होता है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए गुरु के प्रति श्रद्धा का भाव अवश्य होना चाहिए। श्रद्धा का भाव उसी व्यक्ति में होता है, जो विनयशील होता है। जिस व्यक्ति के हृदय में श्रद्धा भाव नहीं होता, उसके हृदय में अहंकार होता है। अहंकारी व्यक्ति कभी भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अतः श्रीकृष्ण का यह कथन कि श्रद्धा से ही ज्ञान प्राप्त होता है, पूर्ण रूप से स्वाभाविक एवं व्यावहारिक है।
4. न सुखं संशयात्मनः । अथवा संशयात्मा विनश्यति ।
अर्थ- संशय में पड़े हुए मनुष्य को सुख नहीं मिलता।
व्याख्या- जो व्यक्ति संशय में पड़ा रहता है वह कभी सटीक निर्णय नहीं ले पाता है और न ही उसमें. आत्मविश्वास का भाव प्रबल होता है। ऐसा व्यक्ति सदा हताश रहता है तथा दुःखमय जीवन व्यतीत करता है। इसलिए व्यक्ति को संशय नहीं करना चाहिए, तभी वह सुख को प्राप्त कर सकता है और आनन्दमय जीवन जी सकता है। ज्ञानी व्यक्ति संशय से दूर रहता है। इसलिए ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है।
5. निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव !
अर्थ- जो सब जीवों पर शत्रुता से रहित है, (हे) पाण्डुपुत्र ! वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या- हे अर्जुन ! जो व्यक्ति संसार के सभी प्राणियों से प्रेम करता है, उनसे किसी प्रकार का द्वेष अथवा वैरभाव नहीं रखता है, वह मुझे प्रिय है; क्योंकि सभी प्राणियों को मैंने ही बनाया है। फिर, मेरे द्वारा बनायी वस्तु के प्रति वैर अथवा ईर्ष्या-द्वेष रखना तो परोक्ष रूप से मुझसे वैर रखने के समान है; तब ऐसा व्यक्ति मुझे प्रिय क्यों होगा। संसार में जो कोई भी व्यक्ति यह चाहता है कि उस पर मेरी कृपा बनी रहे तो उसे अपने मन से ईर्ष्या- द्वेष की भावनाओं को निकाल फेंकना चाहिए।
6. योगस्थः कुरु कर्माणि ।
व्याख्या – भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन ! तुम योग में स्थिर होकर कर्म के प्रति फल के मोह को छोड़कर, सफलता एवं असफलता में समान भाव रखते हुए कर्म करो क्योंकि सफलता-अंसफलता, हानि-लाभ, जीवन-मरण आदि में समानता का भाव रखना ही योग है।
7. ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति । अथवा श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्।
व्याख्या- जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर अधिकार रखता है तथा सच्चे ज्ञान हेतु प्रयत्नशील रहता है, ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा रखता है, वही ज्ञान प्राप्त करता है तथा ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त ही उसे लोकोत्तर शान्ति प्राप्त होती है।
गीतामृतम्’ पाठ के बहुविकल्पीय प्रश्न – MCQ