Up board solution of class 10 Hindi – कर्मवीर भरत (खण्डकाव्य) (Karmveer Bharat) charitr chitran sarans -up board class 10 syllabus 2022-23
up board class 10 syllabus 2022-23– Class 10 Hindi Chapter – कर्मवीर भरत (खण्डकाव्य) – कर्मवीर भरत -खंडकाव्य-सभी-सर्ग-10th, charitr chitran sarans kathavastu. कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के आधार पर पात्रों का चरित्र-चित्रण कीजिए कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए। UP Board Solution Class 10 Hindi Chapter Question Answer. Karmveer Bharat. सर्गों का सरांश.
कर्मवीर भरत
प्रश्न 1. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग ( आगमन) की कथावस्तु लिखिए।
उत्तर—आगमन सर्ग (प्रथम सर्ग) – भरत एवं शत्रुघ्न, दोनों अपनी ननिहाल गये हुए थे। अयोध्या के दूत ने वहाँ पहुँचबार दोनों भाइयों को सूचित किया कि आप दोनों राजकुमारों को यथाशीघ्र गुरु वशिष्ठ ने अयोध्या बुलाया है। भरत ने पारिवारिक कुशल क्षेम जाननी चाही लेकिन दूत अपनी भावनाओं को दबाते हुए मौन ही रहा तथा वह दशरथ की मृत्यु एवं राम बनवास के समाचार को छिपा गया। भरत एवं शत्रुच्न मामा की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन्हें मार्ग शून्य-राम प्रतीत हुआ। अयोध्या नगरी में शुन्यता देखकर तो उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने देखा कि उनके आगमन पर किसी प्रकार का उल्लास नहीं दिखलाई दिया।
न कोई स्वागत, न ही कोई नाचगान । राजभवन मूक- इंगितों का केन्द्र बन चुका था। बुद्धिमान भरत ने अमंगल भांप लिया कि कोई न कोई अमंगल हो गया है लेकिन क्या हो गया, इस वास्तविकता का उन्हें पता नहीं चला। वे ‘सर्वप्रथम सोधे अपने पूज्य पिता दशरथ जी के भवन में ही पहुँचे। वहाँ की शून्यता देखकर तो उनका मन एकदम विचलित हो उठा। उन्होंने राजभवन के द्वार पर किसी द्वारपाल अथवा मन्त्री तक को नहीं देखा। तब वे अति व्याकुल हुए और अपनी माता कैकेयी के भवन की ओर चल पड़े।
प्रश्न 2. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के ‘राजभवन सर्ग (द्वितीय सर्ग) का सारांश लिखिए।
(अथवा) ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के किसी एक सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए।
उत्तर– भरत कैकेयी मिलन – भरत को आया देखकर कैकेयी ने उसे गले लगा लिया। कैकेयी द्वारा पितृकुल का कुशल पूछने के पश्चात और ननिहाल का कुशल सुनाने के पश्चात भरत ने अयोध्या की उदासी का कारण पूछा। कैकेयी ने कहा. “काल-गति से तुम्हारे पिता स्वर्ग सिधार गये और राजपाट तुम्हें सौंप गये हैं।” पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर भरत जी भूमि पर गिर पड़े। कैकेयी का कथन—भरत ने कैकेयी से मृत्यु का कारण पूछा। कैकेयी ने भरत को समझाया – “बेटा ! मुझे राम तुमसे अधिक प्यारा है।
परन्तु जब महाराज राम का राज्याभिषेक करने की तैयारी करने लगे तो मैंने सोचा कि यदि राम अयोध्या पर राज्य करेंगे तो वन में वनवासियों के दुःखों को कौन देखेगा? मन्थरा ने मुझे भूले हुए दो वरदानों की याद दिला दी। मैंने एक वरदान से तुम्हें राजतिलक और दूसरे वरदान से राम को चौदह वर्ष का वनवास मांग लिया। बेटा! मुझे विश्वास था कि तुम राम का कार्य समझकर चौदह वर्षों तक अयोध्या का राज्य करोगे। बेटा ! राम प्रतिभा सम्पन्न और कीर्तिमान हैं। वे दुःखियों की सेवा, सज्जनों की रक्षा और दृष्टों का संहार करने में समर्थ हैं।
बेटा! माता का कर्तव्य है अपने पुत्रों का सही संयोजन करना। जो जिस योग्य है, उसको वही काम सौंपना उचित है। हानि-लाभ, दुःख-सुख के विवाद में फंसना अज्ञानियों का काम है। यही सोचकर मैंने अपना दूसरा वरदान—राम को वनवास-मांगा और महाराज ने भी सत्य की रक्षा करते हुए अपना वचन पूरा किया। राम, लक्ष्मण और सीता अपने जीवन को सफल बनाने हेतु वन में चले गये हैं।”
“कैकेयी के कठोर वचनों को सुनकर भरत को अपनी माता पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने माता को इन कार्यों के लिए दोषी ठहराया और राम के बिना अपने जीवन को दोषी ठहराया। कैकेयी ने भरत को अनेक प्रकार से समझाया किन्तु उनका मनो और ग्लानि में डूबा रहा। शान्ति उन्हें मिल नहीं पायी। अन्त में वे किसी तरह साहस और शक्ति बटोरकर शत्रुघ्न सहित कौशल्या के दर्शनार्थ चल दिये।
प्रश्न 3. ‘कर्मवीर भारत’ के आधार पर ‘कौशल्या- सुमित्रा मिलन’ नामक तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – कौशल्या मिलन – भरत का आगमन सुनकर कौशल्या का हृदय प्रेम से भर गया। भरत और शत्रुघ्न ने विकल कौशल्या को प्रणाम किया। भरत ने कौशल्या से पिता की मृत्यु का कारण पूछा और अन्तिम समय पिता के दर्शन न कर पानेश्रके लिए अपने को दुर्भाग्यशाली बताया। शोक सागर में निमग्न भरत अपनी माता कैकेयी के कार्यों पर पश्चाताप करते हैं।ौशल्या ने भरत को समझाया।
उन्होंने कहा कि जो हानि होती है, वह होकर रहती है। दोष न तुम्हारा है, न कैकेयी का । कैकेयी राम को मुझसे अधिक प्रेम करती है और राम भी मुझसे अधिक कैकेयी को मानता है। यदि कैकेयी की बात मानकर राम वन में चला गया तो तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। इसलिए बेटा! उठो और अपने कर्तव्य का पालन करो। कर्मशील मनुष्य अपयश और निन्दा की परवाह न करके महान कार्य करते हैं। अतः कैकेयी के दोषों को भुलाकर जनहित के कार्यों में लग जाओ। तुम्हारा यश अमर हो जायेगा ।
सुमित्रा मिलन – भरत के आगमन का समाचार सुनकर सुमित्रा उससे मिलने दौड़ी आयी। सुमित्रा ने दोनों पुत्रों को स्नेह से गले लगाकर आशीर्वाद दिया। भरत ने कैकेयी के कार्यों की निन्दा की तो सुमित्रा ने भरत को समझाया – “तुम्हारा कोई दोष नहीं। राज्य का तुम्हें लोभ नहीं, तुम तो विदेह हो । जैसे राम पिता की आज्ञा मानकर वन को चले गये उसी प्रकार तुम भी अपने कर्तव्यों का पालन करो और चौदह वर्षो तक तप कर कंचन बन जाओ, तभी तुम्हारे आदर्श, सिद्धान्त और व्यक्तित्व सफल होंगे।” भरत का संशय कुछ दूर हुआ, परन्तु उसका प्रश्न था – “मेरे लिए राज्य क्यों माँगा, वन क्यों नहीं माँगा ?”
सुमित्रा ने कहा—“वन में राक्षस उत्पात करते हैं, साधुजनों और ऋषि-मुनियों को सताते हैं। राम उन पर शासन कर सकते हैं। इसलिए जनहित के लिए कैकेयी ने राम को वन में भेजा है। तुम अपने मन में हीन भावना मत लाओ और अपने कर्तव्य का पालन करो।” सुमित्रा ने भरत से फिर कहा – “इस समय तुम ही हमारा सहारा हो । यदि तुम इस प्रकार धैर्य खोओगे तो हमारा क्या होगा?
क्या होगा वधु उर्मिला और माण्डवी का ! कैसे हम अपने आँसुओं को सम्भाल पायेंगी! इसलिए बेटा ! धैर्य धारण करो । ‘दुःख, चिन्ता और ग्लानि को छोड़कर हमारा पथ-प्रदर्शन करो और राज्य का कार्य सम्भालो।” इतना कहकर सुमित्रा ने दोनों भाइयों को गुरु वशिष्ठ के पास भेज दिया।
प्रश्न 4. ‘कर्मवीर ‘भरत’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग (आदर्शवरण) की कथा संक्षेप में लिखिए।
उत्तर – माता कौशल्या और सुमित्रा से मिलकर भरत गुरु वशिष्ठ की सेवा में पहुँचे और उन्हें प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त किया। गुरु वशिष्ठ ने भरत को सान्त्वना दी और तेल में सुरक्षित रखे हुए महाराज दशरथ के शरीर का विधिवत दाह संस्कार करने की आज्ञा दी । भरत ने पिता के शव को देखकर विलाप किया और उनका दाह संस्कार कर दिया।
वशिष्ठ ने बड़े स्नेह से भरत को पास बैठाया। सुमन्त ने उन्हें पिता की आज्ञा के अनुसार सिंहासन पर बैठकर राज करने के लिए निवेदन किया। परन्तु भरत ने कहा- “रघुकुल की यह परम्परा है कि ज्येष्ठ पुत्र ही सिंहासन प्राप्त करता है।” सुमन्त ने भरत से पुनः निवेदन किया कि पिता की आज्ञा के अनुसार राम की अनुपस्थिति में राज्य के कार्य को चलाना अधर्म नहीं है, फिर भी भरत तैयार नहीं हुए। उन्होंने गुरु जी से राम को मनाकर वापस लाने के लिए अनुमति मांगी। गुरु वशिष्ठ द्वारा आज्ञा दे देने से सारी अयोध्या नगरी में हर्ष का वातावरण छा गया।
गुरु की आज्ञा पाकर भरत राजभवन गये। उन्होंने शत्रुघ्न से कहा- “मैं बन जा रहा हूँ। मेरे आने तक माताओं तथा प्रजा की रक्षा करना।” शत्रुघ्न ने आग्रह किया कि जैसे लक्ष्मण राम के साथ वन में गये हैं उसी प्रकार मैं भी आपके साथ वन में चलूँगा उसी समय सुमित्रा भी आ गयी। उन्होंने कहा- शत्रुघ्न भी तुम्हारे साथ जायेगा। इसके पश्चात तीनों माताएँ भी वन जाने के लिए तैयार हो गयीं। सुबह होने तक सारी प्रजा वन में जाने को तैयार हो गयी। इस प्रकार गुरु वशिष्ठ, शत्रुघ्न, माताओं तथा प्रजाजनों के साथ भरत राम को लौटाने चल दिये। दिन भर चलकर वे तमसा नदी पर पहुँचे। कुछ देर विश्राम किया और फिर गोमती नदी को पार किया तथा आगे बढ़े।
प्रश्न 5. ‘कर्मवीर ‘भरत’ के पंचम सर्ग ‘वनगमन’ का सारांश लिखिए।
उत्तर—‘कर्मवीर भरत’ के पंचम सर्ग में निषाद की शंका तथा निषाद-भरत मिलन का वर्णन है। कथा इस प्रकार है भरत गोमती नदी को पार करके गंगा तट पर श्रृंगवेरपुर पहुँचे। वहाँ निषादराज ने जनसमूह के साथ इक्ष्वाकु वंशा देखा। उन्हें शंका हुई कि भरत वन में राम पर आक्रमण करने के लिए जा रहा है। निषादराज ने अपने साथियों को भरत को रोकने के लिए कहा, परन्तु किसी वृद्ध ने कहा कि उनकी शंका निर्मूल है क्योंकि भरत के साथ गुरु वशिष्ठ और माताएँ भी हैं, अत: भरत का सत्कार करना चाहिए। वृद्ध की बात सुनकर लज्जित निषादराज कन्द-मूल आदि की भेंट लेकर भरत की सेवा में उपस्थित हुआ। भरत के भावों को जानकर उसने कहा कि भरत के समान भाई इस संसार में कोई दूसरा नहीं है।
राम के प्रति निषादराज का प्रेम देखकर भरत निषादराज को गले लगाकर मिले। उन्होंने शीघ्र राम के दर्शन कराने के लिए कहा। निषादराज की आज्ञा से उसके साथियों ने सब लोगों को गंगा पार करायी। निषादराज भी भरत के साथ चल दिये। वे भरत को भरद्वाज ऋषि के आश्रम में ले गये । भरत ने ऋषि को प्रणाम किया। भरद्वाज ऋषि ने सबको रामदर्शन के लिए व्याकुल जानकर उन्हें चित्रकूट जाने के लिए कहा।
भरद्वाज की आज्ञा से सब लोग चित्रकूट की ओर चल दिये। चित्रकूट वन के निकट पहुँचकर गुरु से आज्ञा लेकर भरत और शत्रुघ्न दोनों पैदल चलने लगे।
प्रश्न 6. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के अन्तिम सर्ग (षष्ठ सर्ग) ‘राम-भरत मिलन’ का सारांश लिखिए।
उत्तर—‘कर्मवीर भरत’ काव्य के छठे सर्ग में ‘राम और भरत के मिलन का वर्णन है। कथा इस प्रकार है भरत जनसमूह के साथ चित्रकूट वन में पहुँचे। वन में कोल जाति के लोगों ने जनसमूह के साथ भरत के आने का समाचार राम-लक्ष्मण को सुनाया। लक्ष्मण को भरत द्वारा आक्रमण किये जाने की शंका हुई किन्तु राम तो भरत का नाम सुनते ही उससे मिलने के लिए दौड़ पड़े।
राम के कुटिया से बाहर आते ही भरत राम के चरणों में गिर पड़े। राम ने भरत को उठाकर गले से लगा लिया। शत्रुघ्न ने भी राम को प्रणाम किया। भरत और शत्रुघ्न ने सीता और लक्ष्मण को भी प्रणाम किया और स्नेहपूर्वक मिले। राम भी गुरु वशिष्ठ और माताओं को प्रणाम कर उनसे प्रेम के साथ मिले। गुरु ने राम को दशरथ की मृत्यु का समाचार सुनाया और दु:खी राम को सान्त्वना देकर धैर्य बंधाया। तब राम ने श्रद्धापूर्वक पिताजी का तर्पण किया ।
राम की कुटिया के सामने सभी पुरजनों एवं परिजनों की सभा हुई। सभा में राम ने गुरु वशिष्ठ से कहा कि वे भरत को अयोध्या लौटकर राज्य सम्भालने के लिए कहें। भरत बोले- “मैं राम को छोड़कर नहीं जाऊँगा। जहाँ राम हैं, वहीं अयोध्या है।” भरत ने कहा- “मैं आपकः पतिनिधि बनकर वन में रहूँगा, आप अयोध्या में जाकर राज्य सम्भालें। कुल परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता है।”
कैकेयी ने कहा—”लोग चाहे मुझे कुमाता करें दिन मेरे हृदय की बात जानता है। मैंने कभी भी रान और भरत में भेद नहीं माना है। फिर मेरे कार्य से जो कलंक लग गया है, राम तुम उस कलंक को मिटाओ और अयोध्या का राज्य सम्भालो । ”
राम ने कैकेयी को निर्दोष बताया और कहा – “पिता की आज्ञा का पालन करना पुत्र का धर्म है, इसलिए मैं अयोध्या नहीं लौहूँगा।” राम उठकर भरत के पास आये और उन्हें प्रेमपूर्वक अयोध्या लौटने के लिए समझाया । राम और भरत के उस प्रेम मिलन को देखकर सारी सभा व्याकुल हो गयी। गुरु वशिष्ठ की भी आँखों में आँसू आ गये। आखिर भरत ने बड़े भाई की बात मान ली । भरत ने कहा- “राज्य आपका रहेगा। मैं 14 वर्षों तक नन्दीग्राम में वनवासी की तरह रहूँगा और आपके राज्य की रक्षा करूँगा। आप मुझे अपनी खड़ाऊँ दे दें। सिंहासन पर वे ही विराजमान रहेंगी और मैं उनसे ही आज्ञा मांगकर सम्पूर्ण राज- कार्य करूँगा।”
राम ने भरत की प्रार्थना स्वीकार कर ली । भरत ने राम की खड़ाऊँ को सिर पर धारण किया। इसके पश्चात कैकेयी ने राम के चरित्र की बड़ी प्रशंसा की। राम ने प्रेमपूर्वक सबको विदा किया। भरत ने अयोध्या पहुँचकर राम की खड़ाऊँ को सिंहासन पर स्थापित किया और स्वयं नन्दीग्राम में कुटिया बनाकर रहने लगे। राज्य का सब कार्य भरत के आदेशानुसार शत्रुघ्न चलाते थे। उनके शासनकाल में अयोध्या में विद्या, कला, कौशल, कृषि तथा उद्योग आदि की बहुत उन्नति हुई ।
प्रश्न 7. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक) संक्षेप में लिखिए।
(अथवा) ‘कर्मवीर ‘भरत’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख कीजिए ।
(अथवा ‘कर्मवीर भारत की किसी प्रमुख घटना का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर- [ उपर्युक्त प्रश्न संख्या 1 से 6 तक के उत्तरों का सारांश लिखिए।
प्रश्न 8. ‘कर्मवीर भारत’ खण्डकाव्य के आधार पर इसके प्रमुख पात्र (भरत) का चरित्र चित्रण कीजिए ।
(अथवा) ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर भरत (नायक) के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए।
(अथवा) ‘कर्मवीर भरत खण्डकाव्य में वर्णित प्रमुख पात्र का परिचय दीजिए।
(अथवा) भरत को ‘कर्मवीर क्यों कहा गया है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए ।
(अथवा) ‘कर्मवीर भरत के किसी एक पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए ।
‘उत्तर- ‘कर्मवीर भरत’ में भरत काव्य का नायक है। भरत का चरित्र एक आदर्श महापुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। भरत के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं
त्यागी पुरुष— भरत त्याग की साक्षात मूर्ति है। स्वार्थ और लोभ जैसी तुच्छ भावनाएँ उसे छूती भी नहीं। राजभोग का सुख भी उसके मन में लोभ उत्पन्न नहीं करता। उसकी माता कैकेयी उसके लिए राजा से राज्य माँगती है परन्तु आदर्शों की रक्षा के लिए वह राज्य को स्वीकार नहीं करता। राम के प्रति उसके हृदय में निष्ठा है, भक्ति है । खण्डकाव्यकार लक्ष्मीशंकर मिश्र के शब्दों में
“नहीं राज-वैभव में है अनुरक्ति तुम्हारी ।
तुम विदेह हो, अटल राम की भक्ति तुम्हारी ॥”
आदर्श भ्राता – भरत एक आदर्श भाई है। अपने भाइयों के प्रति उसे अगाध प्रेम है। वह राम के बिना अपने जीवन को निष्फल बताता है । भरत को अनायास राज्य मिल रहा है परन्तु वह राज्य तो भाई का है। वह किसी भी दशा में राज्य को स्वीकार नहीं करता। वह यह भी सहन नहीं कर पाता है कि उसके भाई और भाभी वन में भटकते फिरें और वह राजभोग का आनन्द ले। चित्रकूट में राम और भरत के मिलन को देखकर सारी सभा व्याकुल हो जाती है। गुरु वशिष्ठ तक की आँखों में आँसू आ जाते हैं।
मर्यादापालक – भरत अपने कर्तव्य और मर्यादा के प्रति सदा सचेत रहते हैं। वह अपन कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए अपने जीवन तक का बलिदान करने को तैयार है। पिता के बाद ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता हैं, अपनी इस कुल की मर्यादा की वह दृढ़ता से रक्षा करता है।
शीलवान – भरत शील और सज्जनता की मूर्ति है। माता-पिता और गुरु का वह यथोचित सम्मान करता है। जब ननिहाल में अयोध्या के दूत पहुँचते हैं तो वह माता, पिता, गुरु तथा प्रजाजनों आदि सबका कुशल क्षेम पूछता है। गुरु का आदेश पा वह तुरन्त प्रस्थान कर देता है। वह जब माताओं तथा बड़े भाई से मिलता है तो उनके चरण स्पर्श करता है। वह कोई भी काम अपने बड़ों की अनुमति के बिना नहीं करता । राम भरत के शील की प्रशंसा करते हुए उसे देवताओं से भी महान बताते हैं
कर्मवीर – भरत महान कर्मवीर हैं। भरत के जीवन में कर्म सर्वोपरि था। वे किसी कार्य की कठिनाइयों को देखकर घबराते नहीं बल्कि अत्यन्त उत्साह के साथ कार्य में जुट जाते हैं। चाहे राम को वापस लौटाने का काम हो या अयोध्या का राज्य सम्भालने का काम हो- वे उसे बिना किसी फल की इच्छा के तत्परता से करते हैं।
प्रश्न 9. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर कैकेयी का चरित्र चित्रण कीजिए।
(अथवा) ‘कर्मवीर भरत’ से उद्धृत उक्त पंक्तियों के आधार पर कैकेयी के चरित्र की विशेषताएँ बताइए ।
(अथवा ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के किसी स्त्री पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर – ‘कर्मवीर भरत’ में कैकेयी एक आदर्श, विचारशील नारी के रूप में चित्रित हुई है। इस काव्य में कवि का उद्देश्य है – कैकेयी को एक आदर्श माता और भरत को आदर्श पुत्र के रूप में चित्रित करना । कवि को इस उद्देश्य की पूर्ति में पूर्ण सफलता मिली है। कैकेयी के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं
आदर्श माता – कैकेयी के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता ‘मातृत्व गुण’ है। जिस प्रकार सभी माताएँ अपने पुत्रों की हितकामना करती हैं, उनके भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए अपने सब सुखों का बलिदान कर देती हैं, उसी प्रकार कैकेयी अपने पुत्र
भरत के लिए राजतिलक का वरदान माँगती है।
कैकेयी चारों भाइयों को समान रूप से स्नेह करती है । पुत्रों को केवल लाड़-प्यार न करके उन्हें उचित मार्ग पर लगाना भी माता का कर्तव्य है । वह राम को किसी द्वेषवश नहीं बल्कि इसलिए वन भिजवाती है क्योंकि राम वन में दुःखियों और ऋषि मुनियों की रक्षा और दानवों का शमन करने में पूर्ण समर्थ हैं। उन्होंने जो किया वह सबके हित के लिए किया। वे स्वयं ही कहती हैं
“लोग भले ही मुझे स्वार्थरत नीच बताएँ,
भले क्रूर माता कह मुझे कलंक लगाएँ ।
पर मैंने जो किया उसी में सबका हित है।
जन-जीवन सुख हेतु व्यक्ति का त्याग उचित है ।”
सामाजिक दृष्टिकोण – कैकेयी के चरित्र की दूसरी विशेषता उसकी सामाजिक भावना है। वह केवल अपने परिवार के लोगों केही सुख-दुःख की चिन्ता नहीं करती बल्कि सम्पूर्ण देश और सम्पूर्ण समाज की हित-कामना करती है । उसे दुःखी मानवता की चिन्ता है-यदि सभी राज्य का सुख भोगने वाले बन जायेंगे तो दीन दुःखियों की रक्षा कौन करेगा? जनसेवा को वह राजकीय वैभव से भी अधिक श्रेयस्कर मानती है। जनसेवा करने के लिए ही वह राम को वन भेजती हैं। इसे वे स्वयं इस प्रकार कहती
” ममता तजकर मैंने पत्थर किया कलेजा ।
जनसेवा के लिए राम को वन में भेजा ।।”
वीरांगना – कैकेयी एक वीर महिला है। वह केवल घर की शोभा नहीं बल्कि अवसर आने पर पुरुषों के साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने में समर्थ है। वह राजा दशरथ के साथ युद्ध में जाती है और संकट आने पर पति के प्राणों की रक्षा करती है।
इस प्रकार कैकेयी का चरित्र एक आदर्श माता, समाज सेविका तथा कर्तव्यपरायण वीर महिला का चरित्र है जिसे लेखक ने परम्परा से भिन्न उज्ज्वल बनाकर गौरव प्रदान किया है।
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